जो खुद अयोग्य है, वह कैसे चुन सकता है प्रत्याशी

राजीव कुमार, राज्य समन्वयक एडीआर दोषी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, तो राजनीतिक दलों का प्रमुख कैसे बन सकता है पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक सुनवायी के दौरान आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि जब दोषी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता तो पार्टी प्रमुख कैसे बनकर प्रत्याशी चुन सकता है? आपराधिक मामले में […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | March 28, 2019 5:56 AM
राजीव कुमार, राज्य समन्वयक एडीआर
दोषी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता, तो राजनीतिक दलों का प्रमुख कैसे बन सकता है
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक सुनवायी के दौरान आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा था कि जब दोषी व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ सकता तो पार्टी प्रमुख कैसे बनकर प्रत्याशी चुन सकता है? आपराधिक मामले में व्यक्ति दोषी ठहराया जा चुका है तो राजनीतिक दलों का प्रमुख कैसे बन सकता है? जो खुद अयोग्य घोषित हो चुका है, वह उम्मीदवारों का चयन कैसे करता है? सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले दिनों इस संबंध में सरकार से जवाब तलब किया था. आश्चर्यजनक है कि दोषी व्यक्ति राजनीतिक दलों के मुखिया बन रहे हैं. नयी-नयी पार्टियों का गठन कर उम्मीदवारों को चुनाव लड़वा रहे हैं.
यह लोकतंत्र और पार्टी तंत्र पर गंभीर सवाल खड़ा करता है. आखिर समाज के गर्भ से निकली पार्टियों के प्रमुख दोषी होंगे तो पार्टियों में दागियों की भीड़ लगते देर नहीं लगेगी. दागियों को पहले पार्टी चुनती है तब जनता चुनती है. जनता के पास कोई विकल्प ही नहीं होता है. एक तरफ सांप नाथ होता है तो दूसरी ओर नाग नाथ होते हैं. ऐसे में जनता दुविधा में फंसकर या तो नोटा का इस्तेमाल करते हैं या फिर वोट डालने में अरुचि दिखाते हैं.
यही वजह है कि दबंग उम्मीदवारों को पार्टियां धड़ल्ले से चुनाव के मैदान में उतार देती है, ताकि जीत पक्की हो सके. इससे तो कभी भी राजनीति में शुचिता नहीं आ पायेगी. अक्सर पार्टी के प्रवक्ता यह कहते हुए अपनी पार्टी का बचाव करते हैं कि जनता के हकों की लड़ाई लड़ते हुए विपक्ष के द्वारा झूठे मामले दर्ज कराये जाते हैं.
यह खुद के लिए नहीं बल्कि जनता के हितों के लिए होते हैं, जबकि बात संगीन धाराओं के तहत मामले से जुड़े हैं. गंभीर धाराओं मसलन–गैर जमानती मामले, हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार, अपहरण, महिला हिंसा, धोखाधड़ी आदि के तहत दर्ज होते हैं. इस संदर्भ में एडीआर की हालिया रिपोर्ट भी सोचने पर विवश करती है. रिपोर्ट में 26 प्रतिशत मुख्यमंत्रियों ने अपने पर गंभीर धाराओं के तहत मामले दर्ज होने की बात स्वीकारी है.
चाहे अनचाहे दागी भी शीर्ष पदों पर बैठकर संवैधानिक मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाने लगता है और न्याय को प्रभावित करता है. दागियों को लेकर तमाम फैसलों का असर यह है कि यह देश में मीडिया की खबर तो बनता रहा, किंतु जमीनी स्तर पर यह असरहीन साबित हुआ है. कानून की कमजोर कड़ी को दूर करने के भी प्रयास होते रहे हैं.
स्पेशल कोर्ट ने एक साल की मियाद भी पूरी कर ली है, लेकिन इसका असर खास देखने को नहीं मिला है. प्रधानमंत्री की घोषणा का भी कोई असर नहीं हुआ. इसके विपरीत दागियों की संख्या बढ़ गयी. यह इसलिए हुआ क्योंकि आपराधिक छवि के प्रतिनिधियों को तमाम पार्टियां धड़ल्ले से अपना उम्मीदवार बना रही हैं. समाज के गर्भ से उत्पन्न पार्टी तंत्र की यह सबसे बड़ी दुविधा है. शीर्ष पदों पर बैठे जनप्रतिनिधियों पर यदि संगीन धाराओं के तहत मामले तय होते हैं, तो समाज के लिए सहज ग्राह्य नहीं हो पाता है.

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