राहुल सिंह
भाषा संस्कृति का दर्पण व अभिव्यक्ति का माध्यम होती है. स्थानीय या लोक भाषा के अस्तित्व पर होने वाला हमला या उसके अस्तित्व पर उत्पन्न खतरा भविष्य में लोक संस्कृति पर उत्पन्न होने वाले खतरे का सूचक होता है. ऐसे में यह जरूरी है कि लोकभाषा को सहेजने व उसे आगे बढ़ाने का काम गंभीरता से किया जाये. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय व स्थानीय भाषा विभाग झारखंड की लोकभाषा को बचाने व सहेजने के लिए बेहद संजिदगी से काम कर रहा है. जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग ऐसी भाषाओं को सहेजने के लिए काम कर रहा है, जिसको बोलने वालों की संख्या अब बहुत कम रही गयी है. अफसोस कि वे भाषाएं जिस समुदाय की परंपरागत भाषा रही है, उस समुदाय की जनसंख्या से भी बहुत कम ही लोग उसे बोलते हैं.
भाषा सहेजने का यह कार्य केंद्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय के स्थानीय भाषाओं को संरक्षित करने व बढ़ाने की परियोजना के तहत हो रहा है. इस कार्य में अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी मिल रहा है. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग के प्राध्यापक गणोश मुमरू कहते हैं : संताली जैसी जनजातीय भाषा को व्यापक स्तर पर स्वीकार्यता मिल चुकी है और देश के आठ विश्वविद्यालय में इसकी पढ़ाई भी हो रही है, ऐसे में इसके अस्तित्व के साथ संकट कम है, लेकिन कई दूसरी भाषाओं के अस्तित्व पर संकट गहरा है. जैसे : बिरहोर या असुरी. मुमरू कहते हैं कि इस तरह की भाषाओं के संरक्षण को लेकर गंभीर होना आवश्यक है. उनके अनुसार, परंपरागत रूप से जिस समुदाय की यह भाषा रही है, वह भी अब कम ही इसका उपयोग करती है. इसका कारण है. बिरहोर अब वन क्षेत्र से बाहर निकल कर सामान्य बसावटों में रह रहे हैं, जहां वे मजदूरी या ऐसे दूसरे कार्यो को कर आजीविका चलाते हैं. इन कार्यो के लिए जिन लोगों से उनका संपर्क होता है, वहां उनकी अपनी भाषा काम नहीं आती है. ऐसे में वे नागपुर, सादरी जैसी भाषाओं का उपयोग करते हैं.
भाषा माध्यम, उद्देश्य राष्ट्रीय एकीकरण
दरअसल भारत सरकार स्थानीय, क्षेत्रीय व जनजातीय भाषाओं को संरक्षित कर व उसका प्रचार-प्रसार कर राष्ट्रीय एकीकरण को मजबूत करना चाहती है. देश में केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय के लिए नियंत्रण में सात लैग्वेंज सेंटर चल रहे हैं. इसमें भुवनेश्वर में इस्टर्न रिजनल लैंग्वेज सेंटर स्थापित है. यहां भाषाओं को प्रमोट करने के लिए कार्य किया जाता है. इस सेंटर पर संताली भाषा का पाठ्यक्रम उपलब्ध है, जिसमें नामांकन की पहली व सबसे महत्वपूर्ण शर्त है कि गैर संताली का ही यहां नामांकन होगा. ऐसा इसलिए ताकि गैर संताल व दूसरे क्षेत्र के लोग इस भाषा को जानेंगे-पढ़ेंगे तो इसका अधिक व्यापक प्रचार-प्रसार होगा और लोग भाषा के माध्यम से उस संस्कृति से जुड़ेंगे, जो राष्ट्रीय एकीकरण के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा. इस केंद्र में 50 प्रतिशत सीट शिक्षकों, 25 प्रतिशत रिसर्च स्कॉलर, पांच भाषाई अल्पसंख्यक के लिए सीट आरक्षित रहती है. बाकी सीटों के लिए खुला नामांकन होता है. यहां पढ़ने वालों को पांच हजार रुपये महीने छात्रवृत्ति भी दी जाती है. कुल 22 सीटों वाला यह पाठ्यक्रम जुलाई में शुरू होता है. संताली भाषा की आज झारखंड, पश्चिम बंगाल, ओडिशा व बिहार के कुल आठ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई हो रही है.
टीडीआइएल के तहत भाषाओं का संरक्षण व सवंर्धन
भारत सरकार के सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्रलय के तहत भी भाषाओं व उसकी लिपियों को संरक्षित व संवर्धित करने की पहल की गयी है. इसका एक कार्यक्रम है, जिसका नाम है : टेक्नोलॉजिकल डेवलपमेंट ऑफ इंडियन लैंग्वेज (टीडीआइएल). इसके तहत ही संताली भाषा में कंप्यूटर पर लिखने के लिए फांट बनाया गया है. ओलचिकी नाम के इस फांट को छह साल में 10 बार अपडेट किया गया है. हालांकि संताली के लिए वैकल्पिक लिपि देवनागरी रखी गयी है, जो हिंदी देवनागरी से थोड़ी अलग होती है.ओलचिकी के आठ फांट हैं. यूनीकोड भी इसका फांट है. यूनीकोड का प्रचलन वैश्विक स्तर पर रहने के कारण इसे इसके लिए बेहतर माना जा रहा है. ओलचिकी के लिए यूनीकोड 5.1.0 फांट का उपयोग हो रहा है. इस कार्यक्रम के तहत कंप्यूटर सॉफ्टवेयर का लोकलाइजेशन (स्थानीयकरण) किया जाना है. सीडीएसी यानी सेंटर फॉर डेवलपमेंट ऑफ एडवांस कंप्यूटिंग की देश में बहुत सारी शाखाएं हैं. आठवीं अनुसूची की भाषाओं के लिए इसके तहत कार्य किया जाता है.
सैंमसंग व एप्पल कंपनी ने भी संताली को अपनाया
टीवी, मोबाइल जैसी चीजें बनानी वाली विश्व स्तरीय कंपनी सैमसंग ने भी ओलचिकी को अपनाया है. उसने इसका विकास कर अपने उपकरणों में उपयोग किया है. गणोश मुमरू बताते हैं कि जब आप टीवी में अंगरेजी या दूसरी भाषाओं की फिल्में देखते हैं, तो नीचे पट्टी में हिंदी या अन्य भाषा लिखी आती है, वैसे ही सैमसंग के द्वारा विकसित तकनीक के सहारे आप अगर अपने टीवी सेट पर गुजराती फिल्म देख रहे हैं तो फिल्म का संवाद संताली में नीचे स्करॉल पट्टी में देख सकते हैं. इस तरह अत्याधुनिक व महंगे कंप्यूटर सेट तैयार करने वाली कंपनी एपल ने भी ओलचिकी फांट को अपनाया है, उसने अपने कंप्यूटर में इसे इंस्टाल किया है. इसने यह प्रयोग अपने मैकबुक कंप्यूटर में किया है.
जनजातीय भाषा बचाने के लिए पहल
भूमंडलीकरण के कारण कम बोली जाने वाली जनजातीय भाषा पर बड़ा संकट आया है. भाषाविद कहते हैं आदिवासी समुदाय में भी तीन श्रेणी हैं : एक उच्च वर्ग है, एक मध्यम व एक निम्न वर्ग है. निम्न वर्ग के साथ मध्यम वर्ग भी बहुत हद तक स्थानीय व जनजातीय भाषा से जुड़ा है, लेकिन उच्च वर्ग का उससे अलगाव हो गया है. उच्च वर्ग के लोग जब महंगे अंगरेजी स्कूलों में अपने बच्चों को डालते हैं तो वे अपनी मूल भाषा से कट जाते हैं. ऐसे में जनजातीय भाषाओं को बचाने के लिए केंद्रीय कार्यक्रम के तहत कई कार्य किये जा रहे हैं. इसमें से एक प्रमुख कार्य है 18 जनजातीय भाषाओं के लिए इलेक्ट्रानिक डिक्शनरी तैयार की जा रही है. पंचपरगनिया व संताली में काम चल रहा है. नागपुरी व खोरठा में काम चल रहा है. आठ भाषाओं की त्रि भाषाई डिक्शनरी लगभग तैयार हो गयी है. डिक्शनरी तैयार करने में दो अन्य भाषाओं के रूप में हिंदी व अंगरेजी का प्रयोग किया जाता है. सबसे पहले खड़िया की डिक्शनरी तैयार की गयी. इस इलेक्ट्रॉनिक डिक्शनरी की एक खूबी है कि इसे रिवर्स मोड में डाल सकते हैं. जैसे अंगरेजी-हिंदी-खड़िया में शब्दों के बारे में जानकारी हो तो उसे खड़िया-हिंदी-अंगरेजी के मोड में कर सकते हैं. इसके अलावा ट्रांसलिटेरेशन का काम यानी एक लिपि से दूसरी लिपि में रूपांतरण किया जा रहा है. ये कार्यक्रम सेंट्रल इंस्टिटय़ूट ऑफ इंडियन लैंग्वेज के तहत चलाया जा रहा है.
इन भाषाओं को सहेजने के तहत विभिन्न स्थलों पर कार्यशाला का भी आयोजन किया जाता है. इस तरह की कार्यशाला में उन भाषाओं को बोलने वाले व अन्य भाषाविदों को बुलाया जाता है. इस दौरान उन्हें प्रश्नावली देकर डाटा इंट्री करायी जाती है. किसी शब्द को व्याख्यात्मक स्वरूप में लिख कर उसका उस जनजातीय भाषा में उसका अर्थ लिखवा शब्दावली बढ़ायी जाती है. इस कार्यशाला में शामिल होने के लिए जिन ग्रामीणों को बुलाया जाता है, उन्हें भत्ता आदि का भी भुगतान किया जाता है.