लोक संस्कृति को बचाने, बढ़ावा देने के लिए जरूरत है सच्ची निष्ठा की : मेघनाथ
लोक संस्कृति के क्षेत्र में मेघनाथ झारखंड की जानी-मानी शख्सियत हैं. वह कई वर्षो से राज्य में लोक संस्कृति को केंद्रित कर फिल्म बनाने का काम कर रहे हैं. वह संत जेवियर कॉलेज, रांची के पत्रकारिता एवं फिल्म निर्माण विभाग में पढ़ाते भी हैं. मेघनाथ ने झारखंड के परिप्रेक्ष्य में कई फिल्में जैसी गाड़ी लोहरदगा […]
लोक संस्कृति के क्षेत्र में मेघनाथ झारखंड की जानी-मानी शख्सियत हैं. वह कई वर्षो से राज्य में लोक संस्कृति को केंद्रित कर फिल्म बनाने का काम कर रहे हैं. वह संत जेवियर कॉलेज, रांची के पत्रकारिता एवं फिल्म निर्माण विभाग में पढ़ाते भी हैं. मेघनाथ ने झारखंड के परिप्रेक्ष्य में कई फिल्में जैसी गाड़ी लोहरदगा मेल, सोना गाही पिंजर, एक रोपा धान तथा दूसरी क्षेत्रीय भाषा के अलावा आयरन इज हॉट जैसी इंग्लिश भाषा में फिल्में बनायी है. उनकी फिल्मों को राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है. उन्होंने अपनी फिल्मों में यहां की क्षेत्रीय भाषा में गाये लोक गीतों को खूबसूरती के साथ पिरोया है. मेघनाथ से झारखंड में लोक संस्कृति के संरक्षण, सरकारी प्रयासों जैसे विषय पर शिकोह अलबदर ने विस्तृत बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
लोक संस्कृति के प्रोत्साहन व संरक्षण में क्या दिक्कतें हैं?
लोक संस्कृति को बचाने, उसे बढ़ावा देने के लिए निष्ठा से काम करने की जरूरत है, जो नहीं हो रहा है. बाजारवाद छाया हुआ है. राजनीतिक पार्टियों से यह सवाल किया जाये कि क्या उन्होंने लोक संस्कृति के बारे में कभी सोचा है. क्या छऊ नृत्य के बारे में कभी जानकारी हासिल करने की कोशिश की है. क्या संताल परगना के घरों का ऐस्थेिटिक टेस्ट (कलात्मक चीजों को समझना और उसका आनंद ) को महसूस किया है. सबसे बड़ी समस्या यह है कि लोक कला के जनता के पास पहुंचने का जो माध्यम हैं, जैसे अखबार, शिक्षण संस्थान, वह पूरी गंभीरता से अपनी भूमिका नहीं अदा कर रहे हैं. इसलिए लोक कला उपेक्षित है. लोक कला को लोक यानी लोग या राजा के स्पांशरशिप में ही प्रोत्साहन मिल सकता है. वर्तमान में संस्कृति के नाम पर ईलता परोसी जाती है. ऐसी चीजों पर मीडिया को ध्यान देना होगा. यह सब संस्कृति को बचाने के लिए हो न कि उसे मारने के लिए.
अगर हम बात करें हिंदी भाषी राज्यों की तो यहां संस्कृति का कुछ मतलब ही नहीं रह जाता है. दूसरे राज्यों को देखिए. असम की लोक संस्कृति, वहां की कला को देखिए. महाराष्ट्र और कर्नाटक में वहां के लोक कला को देखिए. हिंदी भाषी क्षेत्र में जब लोक कला और संस्कृति की बात कही जाती है तो यह सबसे खराब हालत में है. इस बात पर गौर किया जाये. जिन माध्यमों से यह लोगों तक पहुंचते हैं, उन माध्यमों का सांस्कृतिक पाश्चात्यकरण (कल्चरल वेस्टरनाइजेशन) हो गया है. स्कूल कॉलेजों में बच्चों में लोक कला और लोक संस्कृति के विषय पर कुछ नहीं बताया जाता है. शिक्षण संस्थान भी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त हैं. शिक्षण संस्थाओं को इस औपनिवेशिक मानसिकता से बाहर निकलना होगा. आज इस मानसिकता को बढ़ावा दिया जा रहा है. बच्चों को बंबइया फिल्मों पर डांस कराते हैं. क्या किसी शिक्षण संस्थान ने अपने बच्चों को छऊ नृत्य के बारे में बताया है. यहां के दूसरे लोक नृत्य, पर्व-त्योहार, लोक गीत आदि के बारे में चर्चा की है. वो समझते हैं कि लोक कला असभ्य चीज है और वेस्टर्न गीत संगीत को सभ्य समझ कर उसे रिप्लेस कर रहे हैं. किसी भी शिक्षण संस्थान में उसके वार्षिक कार्यक्रम या फ्रेशर्स डे पर देखिए. ऐसा कुछ नहीं मिलता है, जिससे यहां की लोक कला को बढ़ावा मिल सके. जहां पर अपनी लोक कला और सभ्यता का आदर किया जाना चाहिए था, वहां ऐसा कुछ नहीं होता है. मैं यहां के क्षेत्रीय भाषा में फिल्में बनाता हूं. यहां की कई फिल्मों में जो कल्चरल रिचनेस (सांस्कृतिक प्राचुर्य) दिखने को मिलती है, उसके बारे में कभी लिखा नहीं जाता या उसके विषय पर कुछ चर्चा ही नहीं होती है. मुंडारी भाषा सोना गाहि पिंजर ( द गोल्डन केज) फिल्म गीत में मां और पिता के अपने पुत्र से दूर रहने का दुख साफ दिखने को मिलता है. दूसरी और जनजाति नृत्य में जो शरीर की भाव-भंगिमा व मुद्रा है, वह दिल और दिमाग दोनों पर सकारात्मक प्रभाव डालते हैं. ऐसी नृत्य आज के ईल भाव-भंगिमा वाले डांस की तरह उत्तेजक नहीं होते हैं. आज के समय में लोक नृत्य और लोक गीत और दूसरी कला का अखबारों या मीडिया के किसी भी माध्यम में विश्लेषण नहीं होता है. हम सभी को यह जानना होगा कि शिक्षण संस्थान अथवा मीडिया ने कल्चर को कैसे देखा है. लोक संस्कृति पर आज एक वृहद नजरिये की जरूरत है. संस्कृति को कैसे प्रतिबिंबित किया जा रहा है यह जानना जरूरी है.
लोक संस्कृति के संरक्षण की दिशा में सरकार की भूमिका से आप कितने संतुष्ट हैं?
सरकार की भूमिका की बात की जाये तो सरकार संस्कृति को समझने के लिए और इस दिशा में काम करने के लिए सोच ही नहीं रखती है. लोक संस्कृति पर सरकार सही से 15 मिनट बात भी नहीं कर सकती है. कला विभाग के किसी नौकरशाह से यह पूछा जाये कि किसी ने क्या छऊ के विषय में जानकारी लेने की कोशिश की है, कोई रिसर्च किया है. यह सब गौण है. जहां तक झारखंड में लोक कला अकादमी स्थापित करने की बात है, पहले हम यह जानें की यहां 13 साल में हुआ ही क्या है? यहां के कलाकारों और लोक संस्कृति व साहित्य में विशिष्ट योगदान देने वालों का नाम किसी अवार्ड के लिए भेजा ही नहीं जाता है. रामदयाल मुंडा की ही बात करें, तो जब उनका अंतिम समय था तब उनका नाम पदम् श्री के लिए भेजा गया. क्या यही काम पहले नहीं किया जा सकता था? लेकिन सरकार के मंत्रियों और नौकरशाह को इन बातों पर क्या विचार करने के लिए समय है? मुंडा जी को कम से कम पद्म भूषण मिलना चाहिए था. जब मुंडा जी को पद्म श्री मिला तो दूसरों को क्या मिलेगा. झारखंड के लोक गीतकार हैं – मधु मंसुरी हसमुख. इनको राज्य की तरफ से कोई सम्मान नहीं मिला है. उनके एक गीतों के अंदर झारखंड की सामाजिक और भौगोलिक वर्णन है. ऐसे गीत लिखने वालों को कोई सम्मान नहीं मिलता है. लोक गीत-संगीत शिक्षा के अंग नहीं बनते हैं.
झारखंड में जो क्षेत्रीय फिल्म बन रहीं हैं, उन्हें किस तरह से प्रोत्साहन मिल रहा है?
आप मराठी सिनेमा को देखिए. मराठी भाषा की फिल्में देखने के लिए काफी संख्या में दर्शक पहुंचते हैं. मीडिया भी वहां की सिनेमा पर लिखता रहता है. दूसरी सबसे बड़ी चीज है कि मराठी भाषा में अच्छी फिल्म बनाने के लिए राज्य सरकार की ओर से 25 लाख का अनुदान दिया जाता है और मराठी भाषा की फिल्मों को सिनेमा हॉल में दिखाया जाना अनिवार्य है. मराठी भाषा में काफी अच्छी फिल्में बनी हैं. गंभीर विषयों को फिल्मों के माध्यम से उठाया गया है. इसके साथ वहां के लेखक और पत्रकार भी वहां मराठी भाषा की सिनेमा पर लिख रहे हैं. लेकिन ऐसा हमारे राज्य में नहीं है.
लोक संस्कृति को बचाये जाने के लिए किस प्रकार की पहल की जरूरत है? इस दशा में क्या किया जाना चाहिए?
यदि हम बात करें यहां की लोक संस्कृति, कला, साहित्य, नृत्य, गीत, संगीत की तो जैसे एक संगीत कार्यक्रम से पहले एक संगीतकार अपने यंत्रों को ठोक बजा कर सही कर अपने वाद्य यंत्र की टयूनिंग सही करता है. वैसे ही यहां के संस्थानों को सही करना होगा. हम जब यह कहते हैं कि यह अच्छा है और यह खराब है तो यह आप पर निर्भर करता है. आज बाजारवाद का समय है.
हम बाजारवाद के शिकार हो रहे हैं. अब यहां के टुसू पर्व की ही बात कर लें. आज से तीस साल पुरानी बात है कि जब मैं टुसू पर्व के अवसर पर एक गांव गया था और वहां महिलाओं के एक समूह द्वारा इस अवसर पर गाये जा रहे गीत को रिकार्ड कर रहा था. उन महिलाओं ने मेरे इस काम को भी सुंदर शब्द देकर गीत में जोड़ दिया था. अब यह देखिए कि महिलाएं खुद गीत बना लेती हैं. यह जो कला है, वह यहां की संस्कृति का ही एक हिस्सा है जो जन्मजात यहां के लोगों में पाया जाता है. हमें अपने लोक संस्कृति को कभी भी तुच्छ या पिछड़ा नहीं समझना चाहिए.
औपनिवेशिक मानसिकता से आपका क्या तात्पर्य है? लोक संस्कृति के परिप्रेक्ष्य में इस औपनिवेशिक मानसिकता का क्या प्रभाव पड़ रहा है?
जब तक औपनिवेशिक मानसिकता से छुटकारा नहीं मिलेगा तब तक अपनी मूल चीजों को विकास नहीं हो सकता है. क्लास क्या है? क्लास हमारे अंदर है. हमारी जीभ क्लास है. हमारा नाक क्लास है. हमारी आंख क्लास है. हमारा कान क्लास है. अब हम जीभ की बात करें तो आज के समय में हमें गांव का बना पुटका साग अच्छा नहीं लगता. मुर्गी बनाने का जो हमारा लोकल स्टाइल है उसको क्या हमने कभी जाना है या कभी टेस्ट किया है. पेठा का कभी टेस्ट जानने की कोशिश की है. अब इसे इनफेरियर (पिछड़ा) समझते हैं. हमारा टेस्ट बदल रहा है. यह टेस्ट पिज्जा और बर्गर से शिफ्ट कर रहा है. आंख का टेस्ट बदल रहा है. आंख हमारे पांरपरिक चीजों को नहीं देखना चाहता. कान को सुनने में क्या अच्छा लगता है? पश्चिमी देशों का संगीत अब सुनने में अच्छा लगता है. यहां के लोक गीत और संगीत का आनंद नहीं उठाया जाता. अब इसे पिछड़ा समझा जाता है. इस तरह के विचार हमारे कलच्रल इनेमी (सांस्कृतिक दुशमन) हैं. इन शत्रुओं से मुक्ति पाना है. जो इस इनफेरियरिटी कॉम्पलेक्स में जियेगा वह अपना काम कभी नहीं कर सकेगा. आज बाजार सभी चीजों को बेचना चाहता है. बाजार लघु उद्योग को बढ़ावा नहीं देगा. बाजार डोकरा कला और छऊ नृत्य मुखौटा को न बनायेगा और न बेचेगा. बाजार की कोशिश होगी कि वह नरेंद्र मोदी का मुखौटा बेचे. बाजार हमारी लोक संस्कृति को नहीं जीने देना चाहता है. इन सब वजहों से हमारी जो लोक संस्कृति, कला, नृत्य, संगीत, गीत, नाटक हैं, इन सब पर प्रभाव पड़ा है. मीडिया और सरकार को इसमें प्रभावी भूमिका निभानी होगी.
मेघनाथ
फिल्म निर्माता व लोक कला संरक्षक