‘ग्राउंड फ़्लोर के लिए तरस गईं ज़ोहरा’
ज़ोहरा से मेरे ज़ातीय ताल्लुक़ात थे. वह हिंदुस्तान में थिएटर की ग्रैंड मदर की तरह थीं. दिल्ली में मंदाकिनी में जिस डीडीए फ़्लैट में वह तीसरी फ़्लोर पर रहती थीं, उसकी छत टूट रही थी. हमने सरकार से आग्रह किया था कि उन्हें ग्राउंड फ़्लैट दिला दे लेकिन किसी ने कोई मदद नहीं की. बीते […]
ज़ोहरा से मेरे ज़ातीय ताल्लुक़ात थे. वह हिंदुस्तान में थिएटर की ग्रैंड मदर की तरह थीं.
दिल्ली में मंदाकिनी में जिस डीडीए फ़्लैट में वह तीसरी फ़्लोर पर रहती थीं, उसकी छत टूट रही थी.
हमने सरकार से आग्रह किया था कि उन्हें ग्राउंड फ़्लैट दिला दे लेकिन किसी ने कोई मदद नहीं की.
बीते साल फ़रवरी में लेफ़्टिनेंट गवर्नर को चिट्ठी भी लिखी थी लेकिन आज तक कोई जबाव नहीं आया.
ज़ोहरा आपा की माली हालत ख़राब नहीं थी लेकिन उन्हें चलने-फिरने में दिक़्क़त थी.
‘शर्म आती है’
मुझे शर्म आती है कि मेरा मुल्क इतना भी कंगाल नहीं है कि एक कलाकार की इतनी मदद भी नहीं कर सके.
ज़ोहरा आपा की आधुनिक हिंदुस्तानी थिएटर में अहम भूमिका रही है और उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाया है.
ज़ोहरा की एक ख़ासियत ये भी थी उनकी याददाश्त गज़ब की थी.
उनके निधन को मैं झटका तो नहीं कहूंगा क्योंकि हर इंसान को एक दिन तो जाना ही है.
लेकिन मुझे इस बात का अफ़सोस हमेशा रहेगा कि हम इतने बड़े कलाकार को रहने के लिए ग्राउंड फ़्लोर पर दो कमरे भी नहीं दे पाए.
(प्रख्यात रंगकर्मी एमके रैना से बीबीसी संवाददाता विनीत खरे की बातचीत पर आधारित)
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