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ये सात महीने का बजट है

।। कमलेश सिंह ।। इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक सौ करोड़ राम को, सौ करोड़ श्याम को बजट के दिन जनता जान पाती है कि हमारी झोरी में भूंजी भांग है या वह भी नहीं है. जब से टेलीविजन घर की रौनक बना है, बजट की भी बन आयी है. एक माहौल खड़ा […]

।। कमलेश सिंह ।।

इंडिया टुडे ग्रुप डिजिटल के प्रबंध संपादक

सौ करोड़ राम को, सौ करोड़ श्याम को

बजट के दिन जनता जान पाती है कि हमारी झोरी में भूंजी भांग है या वह भी नहीं है. जब से टेलीविजन घर की रौनक बना है, बजट की भी बन आयी है. एक माहौल खड़ा हुआ है. लगभग हर आदमी बजट का इंतजार कर रहा हो मानो, जैसे हमारे दुखों का इलाज करेगा संसद में होनेवाला एक भाषण. आम बातचीत में लोग फिस्कल डेफिसिट ऐसे टपकाते हैं जैसे मौसम का हाल बता रहे हों.

जिनको आटे-दाल का भाव मालूम नहीं वह मुद्रा स्फीति पर बहस करते हैं. हमने बजट को माथे पर चढ़ा लिया है. और बजट ने हमको आकांक्षाओं की ताड़ पर. गिरे तो चकनाचूर और नहीं गिरे तो भी उतरने में कमर का समर. जब मोदी चुनावी समर में थे, तो सबको चने के पेड़ पर चढ़ाया. हम गिरे भी तो सस्ते में और अरमान साबुत बच गये. इन आकांक्षाओं का बोझ वित्त मंत्री अरुण जेटली की कमर ढो नहीं पायी. बीच भाषण उन्होंने सभापति महोदया से पांच मिनट की मोहलत मांगी. रीढ़ चनक गयी थी और इसकी भनक वहां बैठे उनके सहयोगियों को पहले ही लग गयी थी.

सब दौड़े, उनसे पानी पूछा. ऊपर से जेटली डायबिटिक हैं और बजट लंबा था. ख्वाहिशों की फेहरिस्त जैसी. बाकी भाषण उन्होंने बैठ कर ही पढ़ा. देश का बजट. सब के लिए कुछ ना कुछ. पहले जैसा. कई चिंतक और आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ इस बजट को बहुत अच्छा बता रहे हैं.

बड़े उद्योगपति तो हर बजट को अच्छा बताते हैं. अकेले में भले अथाह गरियाते हों पर सरकार की नीतियों को सार्वजनिक तौर पर सही बताने में सीइओ टाइप के लोग सबसे आगे पाये जाते हैं.

वे सत्ता के सरदारों के कोप से दूर ही रहते हैं. मीडिया बजट में हेडलाइन ढूंढ़ता है और स्टोरी को बढ़ा-चढ़ा कर बताता है. कहानी कमजोर हुई तो शीर्षक लुरलुरा जाता है और लुरलुरे शीर्षक से पाठक को मजा नहीं आता है. सबको कुछ उत्तेजक चाहिए. ऐसी कड़क जो नींद उड़ा दे या फिर अफीम जो सुला दे. हम दुनिया में मसालेदार खाने के लिए जाने जाते हैं. रूखा-सूखा खाकर पेट भर सकता है पर स्वाद तो मसालों से ही आता है. स्वादहीन बजट पर विचारों का छौंका लगा कर सुना रहे हैं. अच्छे दिन आ गये, ऐसा बता रहे हैं.

बाकी लोगों को इसमें लोक-विरोधी, उद्योग-विरोधी और यहां तक की विकास-विरोधी नीतियां दिख रहीं थीं. हकीकत ये है कि खाता-बही रूखा-सूखा ही हो तो अच्छा. क्लाइमेक्स और उत्तेजना तो कथा-कहानी, फिल्मी गानों में अच्छे लगते हैं. जो चुनाव के पहले वादों में होता है, वह होती हैं कहानियां. जो नारों में होता है, वह बाजारों में नहीं होता. बाजार के अपने उसूल हैं. क्र य-विक्र य का अपना लय है. पर जहां जेटली फेल हुए वह आंकड़ों में नहीं था. आंकड़े तो उन्होंने अच्छे सजाये. मूर्ति से लेकर मदरसे तक सबको सौ-सौ करोड़. किसानों को कर्ज से लेकर कृषि दर्शन के लिए टीवी चैनल तक. उच्च शिक्षा के उत्तम संस्थानों की लड़ी लगा दी.

लगभग चार हजार करोड़ गंगा मइया के लिए भी निकाला. कर, जो मजा किरकिरा कर देता था, उस में थोड़ी राहत भी दी. पर जिसकी उम्मीद थी वह नहीं किया. सबको खुश करने वाले किसी को खुश नहीं कर पाते. उन्होंने सबको खुश करने की कोशिश की है. लोगों ने मोदी को कुर्सी दी थी तो जनता ने कठोर निर्णय लिया था. मोदी लल्लो-चप्पो करने वालों में शुमार नहीं होते. जब विरोधियों ने जनता को मोदी की निरंकुशता से डराया, तो लोगों का जवाब था कि इस देश को एक मजबूत नेता चाहिए जो देश हित में कड़े फैसले कर सके. रेट्रोस्पेक्टिव टैक्स जैसी बेहूदगी हटायेंगे. इनकम टैक्स के भद्देपन से मुक्ति दिलायेंगे. कोई चार लाख लोग ही आयकर व्यवस्था की रीढ़ हैं. चार करोड़ लोग कागजी कार्रवाई पर मजबूर हैं. और करोड़ों लोगों को हर साल रिटर्न भरना पड़ता है.

एक पूरा विभाग है इनकम टैक्स वसूलने के लिए. जितना वसूलते हैं, उसका आधे से ज्यादा उनके वेतन पेंशन में चला जाता है. एक पूरा अमला सिर्फइसमें लगा रहता है कि टैक्स की चोरी ना हो. जो वेतनभोगी हैं वही इसका कष्ट भोगते हैं. भत्ताें आदि को छुपाने के चक्कर में झूठ का अपराध करते हैं. जो धनाढ्य हैं, उनको इनकम टैक्स का चक्कर नहीं रहता क्योंकि उनकी आमदनी के स्रोत अलग होते हैं. मैंने हटाने के पक्ष में और नहीं हटाने के पक्ष में कई बहसें सुनी हैं.

मेरा निष्कर्ष ये है कि इस पर सोचना जरूरी है. पर साहस चाहिए. चुनाव के पहले साल साहस नहीं जुटा पाये तो आगे का क्या भरोसा. उम्मीदें छप्पन इंच की और साहस बित्ता भर. उम्मीदें बहुत वजनी चीज हैं. जेटली की कमर ने जवाब दे दिया. मोदी को कमर कसनी पड़ेगी. ये सात महीने का बजट है. पहली बार भी था. अगली बार अगर लीक से नहीं हटे तो नया रास्ता नहीं मिलेगा. सरकार बदली है. इस रास्ते पर हम दशकों चले हैं. नये को कुछ नया तो करना ही चाहिए. और वही करना हो तो कम से कम नये तरीके से करना चाहिए. सौ करोड़ राम को, सौ करोड़ श्याम को. ये पहले भी हुआ है. हम देख चुके हैं.

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