हिमाचल प्रदेश में खेतों में क्यों खड़ी हो रही हैं सैकड़ों कारें
हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला की ओर जाते हुए रास्ते में पड़ने वाली छोटी-छोटी पहाड़ियों पर नज़र डालें तो आपको कई नई-नवेली कारें खड़ी हुई दिखाई देंगी. पहली नज़र में देखें तो ऐसा लगता है कि ये कारें किसानों की समृद्धि की गवाह बनकर खड़ी हुई हैं. लेकिन ये एक भ्रम है जो इन गांवों […]
हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला की ओर जाते हुए रास्ते में पड़ने वाली छोटी-छोटी पहाड़ियों पर नज़र डालें तो आपको कई नई-नवेली कारें खड़ी हुई दिखाई देंगी.
पहली नज़र में देखें तो ऐसा लगता है कि ये कारें किसानों की समृद्धि की गवाह बनकर खड़ी हुई हैं.
लेकिन ये एक भ्रम है जो इन गांवों में पहुंचते ही दूर होने लगता है. क्योंकि इन गांवों के खेतों में कभी हरी-हरी फसलें लहलहाया करती थीं लेकिन अब यहां सैकड़ों गाड़ियां खड़ी नज़र आती हैं.
ऐसे में सवाल उठता है कि आख़िर वो क्या वजह थी जिसके चलते किसान अपनी ज़मीनों पर फसल उगाने की जगह कारें खड़ी करने को तैयार हुए.
ये जगह हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से मात्र 25 किलोमीटर दूर है.
लेकिन इसके बाद भी अब तक अधिकारियों की नज़र इस समस्या की ओर नहीं पड़ी है.
जबकि इस प्रदेश की सभी लोकसभा सीटों पर बीजेपी ने जीत हासिल की है.
खेती छोड़ने को क्यों मजबूर हुए किसान
शिमला परवानू राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित कस्बे शोगी में कई किसानों ने अपनी ज़मीनों पर खेती करना बंद कर दिया है.
ये किसान लंबे समय से जंगली सुअरों, बंदरों और नील गायों के आतंक से परेशान थे.
क्योंकि दिन में इनकी फसलों को बंदर नुकसान पहुंचाते हैं. वहीं, रात के समय जंगली सुअर और नील गाय इनकी फसल चट कर जाते हैं.
ऐसे में इन किसानों की जमीनों पर एक कार शोरूम की गाड़ियां खड़ी होना शुरू हो गई हैं जो कि कुछ दिन तक यहां खड़ी रहने के बाद शोरूम में चली जाती हैं.
स्थानीय किसानों के मुताबिक़, ये घाटे का सौदा नहीं है क्योंकि उन्हें उनकी ज़मीन पर खेती किए बगैर पर प्रति कार 100 रुपये प्रतिमाह मिल जाता है.
यहां के एक गांव जलेल की स्थानीय नागरिक कांता देवी बताती हैं, "दिन में बंदरों से फसल की रखवाली करना मुमकिन है. लेकिन रात में समस्या विकट हो जाती है जब नीलगाय और जंगली सुअर फसलों को नष्ट कर देते हैं. कड़ी मेहनत और इतना पैसा लगाने के बाद भी हमें कुछ नहीं मिलता है. ऐसे में कार कंपनी का हमारी ज़मीन किराए पर लेना भगवान की कृपा जैसा ही है. कम से कम हमें खाली ज़मीन से कुछ पैसा मिल जाता है क्योंकि खेती करना तो अब नामुमकिन सा हो गया है."
कांता बताती हैं कि किसानों को लगता है कि खाली ज़मीन के बदले में अगर हर महीने आठ से दस हज़ार रुपये मिल जाते हैं तो ये बेहतर विकल्प है.
यहां के लगभग पांच-छह गांवों में एक हज़ार से ज़्यादा गाड़ियां खड़ी हैं. इसकी शुरुआत लगभग तीन साल पहले हुई थी जब बस एक गांव में ये शुरुआत की गई थी.
एक अन्य किसान मीना कुमारी ने लगभग आठ से नौ महीने पहले ही 100 कारों को खड़ा करने के लिए अपनी ज़मीन दी थी.
उनका परिवार दालें, टमाटर, शिमला मिर्च, गोभी, मूली और मक्का उगाती थी.
लेकिन बंदरों के हमलों की वजह से उन्होंने चार साल पहले मक्का उगाना बंद कर दिया था.
इसके बाद बंदरों ने सब्जी के खेतों पर भी हमला बोलना शुरू कर दिया. जंगली सुअरों और नील गाय ने भी खेती करना लगभग नामुमकिन बना दिया.
मीना कहती हैं, "मानसिक रूप से हम हमारी ज़मीन पर गाड़ियां खड़ी करवाने के लिए तैयार नहीं हैं. लेकिन परिवार में कुछ लोग इसके लिए तैयार हुए. अब हम लोगों को अपनी ज़मीन पर बिना कुछ खर्च किए कुछ मिलना शुरू हो गया है."
हालांकि, मारुति सुजुकी के डीलर गोयल मोटर्स के अधिकारियों ने इस मामले पर कुछ भी कहने से इनकार कर दिया है.
कंपनी का दावा है कि गांव वालों ने अपनी मर्जी से अपनी ज़मीनें उन्हें दीं और उन्हें इसके बदले में ठीक-ठाक धन मिल रहा है. हालांकि, वो फसल के बदले में हासिल होने वाले आर्थिक लाभ के बराबर नहीं है.
कंपनी के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं, "हमने गांववालों के साथ कोई औपचारिक करार नहीं किया है. ये एक ज़रूरत के आधार पर बनी सहमति है जिससे दोनों पक्षों का फायदा हो रहा है. इस प्रक्रिया में सिर्फ उन ज़मीनों को किराए पर लिया गया है जिन पर किसानों ने खेती करना बंद कर दिया था."
गांव वाले अपने क्षेत्रों में दूसरी जगहों से पकड़कर लाए गए बंदरों को छोड़े जाने की शिकायत भी करते हैं.
वो कहते हैं कि सरकार की ओर से बंदरों को पकड़ने वाले बंदरों को पकड़कर उनकी नसबंदी करते हैं ताकि उनकी जनसंख्या वृद्धि को रोका जा सके.
लेकिन ऐसे बंदरों को उन जगहों पर नहीं छोड़ा जाता है जहां से उन्हें पकड़ा गया था.
कितना बड़ा संकट हैं बंदर
पर्यावरण और वन मंत्रालय ने हिमाचल प्रदेश की 91 तहसीलों और उप-तहसीलों में बंदरों को पीड़क जंतु करार दिया है.
इसके बाद किसान अपने खेतों में फसलों को बचाने के लिए बंदरों को जान से मार सकते हैं.
लेकिन धार्मिक मान्यताओं की वजह से किसान बंदरों को मारने के लिए तैयार नहीं है और वन विभाग से बंदरों की जनसंख्या कम करने के लिए कदम उठाने की मांग कर रहे हैं.
जलेल पंचायत के उप-प्रधान कपिल ठाकुर दावा करते हैं कि उनके पंचायत क्षेत्र में 95 फीसदी से ज़्यादा क्षेत्र बंदरों और जंगली जानवरों के आतंक से परेशान है.
शाकेल्क, कयालु, गनेडी और गनपेरी इस समस्या से बुरी तरह प्रभावित हैं. इस मुद्दे को कई जगहों पर उठाया जा चुका है लेकिन अब तक इस मामले का कोई हल नहीं निकला है.
कपिल बताते हैं, "जंगली जानवरों के अलावा महंगे बीज, कीटनाशक और खाद ऐसे मुद्दे हैं जिनकी वजह से किसान खेती छोड़ने के लिए मजबूर हो रहे हैं. फसलों को लगने वाला रोग भी एक ज्वलंत मुद्दा है. इसके बाद भी जब फसल बाज़ार पहुंचती है तो किसानों को कुछ हासिल नहीं होता है."
आधिकारिक आंकड़ों की मानें तो हर साल बंदरों और जंगली सुअरों के हमले की वजह से लगभग 650 करोड़ रुपये का नुकसान होता है.
वहीं, सरकार ने बंदरों की नसबंदी करने पर बीते दस सालों में 20 करोड़ रुपये खर्च किए हैं. इस प्रक्रिया में 1.41 लाख बंदरों की नसबंदी भी की जा चुकी है.
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क्या कहती है सरकार?
हिमाचल प्रदेश के कृषि मंत्री डॉ. राम लाल मरकंडा ने बीबीसी से बात करते हुए ये स्वीकार किया कि सरकार को अब तक बंदरों के आतंक से निपटने को कोई सार्थक तरीका नहीं मिला है.
वह कहते हैं, "किसानों की हालत बहुत खराब है. ये एक बेहद गंभीर मुद्दा है. हम बंदरों और जंगली सुअरों से नष्ट हुई फसल के मुआवज़े के लिए मुआवज़ा देते हैं लेकिन इस संकट का कोई समाधान नहीं निकला है."
देवेंद्र कुमार, दर्शन कुमार, वीरेंद्र रोहल और अशोक जैसे किसान मानते हैं कि कार पार्किंग के लिए ज़मीन देना उनके लिए भागते भूत की लंगोटी सही जैसा मामला है.
इस समस्या से प्रभावित कुछ किसानों ने अपनी ज़मीनें बेच कर टैक्सी व्यवसाय को अपना लिया है.
पंजाब से बी.टेक करके नौकरी की तलाश कर रहे प्रवीण कहते हैं, "किसानी हम लोगों के लिए जीविका का ज़रिया नहीं है. बच्चों की पढ़ाई, दवाई और जीवनयापन के खर्चे बहुत बढ़ गए हैं. खेती अब पहले की तरह जीविकोपार्जन का जरिया नहीं रहा है."
वहीं, कुछ परिवारों ने अपनी ज़मीन को नेपाल से आने वाले लोगों को सब्जियां उगाने के लिए किराए पर दे दी है.
लेकिन इस तरह ज़मीन लेने वाले नेपाली परिवार भी इस समस्या से अछूते नहीं हैं.
ऐसे ही एक 34 वर्षीय नेपाली नागरिक हेमेंद्र खत्री कहते हैं, "जंगली जानवरों की वजह से अब ये एक नुकसान का काम बन गया है."
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