क्यों बेचारे हो गये बंजारे?

ऐश्वर्या ठाकुर आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर न पांव में सामाजिक रिवायतों की बेड़ियां और न सिर पर स्थायित्व की गठरी, बस एक लंबा रास्ता और साथ चलता कारवां; यही है बंजारों के स्वच्छंद जीवन का परिचय. गांवों, कस्बों, जिलों और सूबों की सरहदों को नजरअंदाज करते हुए बंजारे धूप-छांव और बारिश-तूफानों में अपने लाव-लश्कर और मवेशी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 18, 2019 6:10 AM
ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर
न पांव में सामाजिक रिवायतों की बेड़ियां और न सिर पर स्थायित्व की गठरी, बस एक लंबा रास्ता और साथ चलता कारवां; यही है बंजारों के स्वच्छंद जीवन का परिचय. गांवों, कस्बों, जिलों और सूबों की सरहदों को नजरअंदाज करते हुए बंजारे धूप-छांव और बारिश-तूफानों में अपने लाव-लश्कर और मवेशी लिये बढ़े जाते हैं और जहां भी मन हो, तंबू गाड़ कर डेरा डाल लेते हैं.
अक्सर बंजारे गांवों के बाहर पेड़ों की छांव में कम से कम एक पखवाड़े के लिए रुका करते हैं और दोपहर और रात के सन्नाटे को अपने लोकगीतों और खड़ताल की खनक से बींध दिया करते हैं. खानाबदोशी का आलम यह कि न इनका कोई पता-ठिकना नहीं होता.
सन् 1857 के विद्रोह में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने के कारण अंग्रेजों ने इन सभी घुमंतू जनजातियों को ‘विमुक्त जाति’ या ‘आपराधिक जनजाति’ का तमगा थमा दिया था. इसी के चलते बंजारों की छवि ‘पैदाइशी अपराधी’ की बना दी गयी. इसी कारणवश, आज भी लोग बंजारों को अपने गांव-कस्बों में नहीं बसने देते हैं, जिसकी टीस इन्हें अब तक चुभती है.
लेकिन, इन कानूनी निशानियों के इतर भी बंजारों की एक पहचान है, जो बतौर गाड़िया-लोहार, कलंदर, बाजीगर या मांगणियार सालों से लोगों में खूब मकबूल है. बंजारों के कानों में झूलती मुरकियां और बंजारनों के चांदी से बने कड़े-बालियां इनकी आसानी से शिनाख्त करवा जाते हैं. बंजारनों का नृत्य, संगीत, कांचली-घाघरा और चादरों पर कशीदाकारी का काम, गोदना और चित्रकारी देश ही नहीं, विदेशों में भी खूब मशहूर हैं.
सिनेमा से लेकर साहित्य तक बंजारों का रूमानी जिक्र खूब मिलता है, मगर यायावरी की जमीनी मुश्किलों का कोई सजीव चित्रण नहीं कर पाता. एंथ्रोपोलॉजी विभाग और कल्चर मिनिस्ट्री के शोधपत्र बंजारों के इर्द-गिर्द तो घूमते हैं, मगर इनके हालात दुरुस्त करने के कोई ठोस हल नहीं निकाल पाते.
इनके ‘क्राफ्ट’ पर ‘ब्रैंड’ का स्टीकर लगाकर बड़ी-बड़ी प्रदर्शनियों में बेचा जाता है, पर बंजारों की पहचानें हर बार जैसे दरियों के नीचे छुपा दी जाती हैं. ऊंटों को अपने बच्चों की तरह पालनेवाले बंजारों को आज माहली मजबूरियों के चलते ऊंटनियों का दूध भी बेचना पड़ रहा है.
ये बंजारे ‘पिछड़ी जाति’ का दर्जा पाने के लिए सियासतदानों के दरबारों में धक्के खाते रहते हैं, मगर इनकी आवाज ऊंचे तख्तों तक कभी नहीं पहुंच पाती. इनके नाम पर गठित हुए बोर्ड और संस्थाएं फलती-फूलती रहती हैं, पर बंजारों तक किसी स्कीम या फंड की एक पाइ भी नहीं पहुंच पाती.
मुश्किल और लंबे रास्तों पर मुसलसल चलते रहने के आदी ये बंजारे मुफलिसी और अनदेखी का बोझ भी अपने इतिहास, संस्कृति, त्योहारों, भाषा, और पोशाक की गठड़ी में बांधकर निकल जाते हैं सभ्यता की निरीह बस्तियों से बहुत आगे और उफक पर तैरती रह जाती हैं इनकी परछाइयां और हवा में छोड़ जाते हैं ये अपने ऊंटों की घंटियों की आवाजें, एक रोज फिर लौटने तक के लिए.

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