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भारतीय राजनीति: वंशवाद से मोहभंग?

सौतिक बिस्वास बीबीसी संवाददाता, नई दिल्ली क्या भारतीय राजनीति में वंशवाद के शिकंजे से कभी आज़ाद होगी? तमाम सर्वे और अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि पिछली संसद के मुक़ाबले नई संसद में ऐसे सांसदों की संख्या में कमी आई है जिनका ताल्लुक राजनीतिक घरानों से है. भारत में वंशवादी राजनीति पर किए गए […]

क्या भारतीय राजनीति में वंशवाद के शिकंजे से कभी आज़ाद होगी? तमाम सर्वे और अध्ययन इस ओर इशारा करते हैं कि पिछली संसद के मुक़ाबले नई संसद में ऐसे सांसदों की संख्या में कमी आई है जिनका ताल्लुक राजनीतिक घरानों से है.

भारत में वंशवादी राजनीति पर किए गए एक सर्वे से पता चलता है कि वर्तमान संसद में ऐसे सांसदों की संख्या में दो प्रतिशत और सरकार में ऐसे मंत्रियों की संख्या में 12 प्रतिशत की कमी आई है.

वंशवादी राजनीति को पीछे धकेलने में सोशल मीडिया और पिछले आम चुनावों में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत की भूमिका भी रही है.

बगैर राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले नई पीढ़ी के राजनीतिज्ञ सामने आ रहे हैं. क्या यह राजनीति के पुराने ढर्रे में बदलाव का संकेत है.

पढ़ें सौतिक बिस्वास का विश्लेषण

भारतीय राजनीति में वंश और परिवार की पकड़ को लेकर कुछ नए आंकड़े देते हुए इतिहासकार पैट्रिक फ्रेंच ने 2012 में भारत के बारे में अपनी एक किताब में लिखा हैः यदि यही ढर्रा चलता रहा तो भारत की दशा उन दिनों जैसी हो जाएगी जब यहां राजा महाराजाओं का शासन हुआ करता था.

उन्होंने यह भी चिंता जताई थी कि आगामी लोक सभा ‘राजनीतिक घरानों की संसद’ हो जाएगी. देश के इस उच्च सदन में 545 सांसद सीधे चुने जाते हैं.

लेकिन, न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की राजनीति वैज्ञानिक कंचन चंद्रा ने नए शोध पाया कि नई संसद में राजनीतिक घरानों से आने वाले सांसदों की संख्या में कमी दिखाई गई है.

प्रोफ़ेसर चंद्रा ने पाया कि आम चुनावों के बाद मई में अस्तित्व में आई संसद में महज 21 प्रतिशत सांसदों की पृष्ठभूमि राजनीतिक घरानों से थी. जबकि पिछली संसद में यह संख्या 29 प्रतिशत थी. (हालांकि अंग्रेजी अख़बार ‘द हिंदू’ ने वर्तमान संसद में राजनीतिक घरानों से आने वाले सांसदों की संख्या एक चौथाई (130) पाई है.)

इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में गठित नए मंत्रिमंडल में राजनीतिक घरानों से ताल्लुक़ रखने वाले मंत्रियों की संख्या 24 प्रतिशत है, जबकि पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार में यह संख्या 36 प्रतिशत थी.

राजनीतिक घरानों के सांसदों की संख्या में आई गिरावट का संबंध भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की भारी जीत से भी हो सकता है क्योंकि माना जाता है कि बीजेपी कांग्रेस की तुलना कम वंशवादी है.

(गठबंधन सरकार के 336 सांसदों में अकेले भाजपा के 280 सांसद हैं.)

बीजू जनता दल के सांसद बैजयंत जय पांडा ने मुझसे कहा था, ”राजनीतिक घरानों से ताल्लुक रखने वाले सांसदों की संख्या में कमी आना मेरे लिए महत्वपूर्ण है. मुझे लगता है कि आगे भी हम इस संख्या में गिरावट देखेंगे.”

हालांकि प्रोफ़ेसर चंद्रा इससे सहमत नहीं है.

वंशवाद के लिए अनुकूल

वो कहती हैं कि सत्तारूढ़ भाजपा समेत अधिकांश दल वंशवादी राजनीतिज्ञों के लिए अनुकूल हैं. अभी संसद में 36 राजनीतिक दलों के पास कम से कम एक सीट है, जबकि 13 दलों के नेता (क़रीब 36 प्रतिशत) राजनीतिक घरानों से थे. प्रोफ़ेसर चंद्रा के अनुसार, ”युवा और नई आकांक्षाएं पालने वाले मतदाता वंशवादी राजनीति का हल नहीं होते.”

इस बात की तस्दीक दिल्ली के सेंटर फ़ॉर स्टडी ऑफ़ डेवेलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) द्वारा युवा मतदाताओं पर किए गए एक सर्वे से भी होती है.

वर्ष 2011 में किए गए इस सर्वे के अनुसार, हालांकि 18 से 30 वर्ष की उम्र वाले युवा मतदाता सामान्यतया वंशवादी राजनीति की मुख़ालफत करते हैं लेकिन जब राजनीतिक घराने से युवा उम्मीदवार आता है तो वे उसे ही मत देने को वरीयता देते हैं.

दिलचस्प है कि मिलन वैष्णव, देवेश कपूर और नीलांजना सरकार द्वारा इस वर्ष की शुरुआत में किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि 46 प्रतिशत भारतीयों को वंशवादी राजनीति से कोई परहेज नहीं है.

वैष्णव कहते हैं, ”इस नतीजे से हम हैरत में रह गए. लगभग हर दो में से एक भारतीय का कहना है कि यदि विकल्प मिला तो वो ऐसे उम्मीदवार को चुनना पसंद करेगा जिसकी पारिवारिक पृष्ठभूमि होगी.”

स्थानीय वंशवाद

कांग्रेस अब अकेली वंशवादी राजनीतिक पार्टी नहीं रह गई है. भारतीय राजनीति में आए विखंडन ने प्रादेशिक राजनीतिक दलों को तेजी से उभरने में योगदान दिया है.

हालिया चुनाव में हाशिए पर धकेले जाने के बावजूद 15 राजघराने अभी भी राजनीतिक रूप से प्रभावशाली बने हुए हैं.

प्रोफ़ेसर चंद्रा भी इस ओर इशारा करती हैं और इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि वंशवादी राजनीति न केवल जीवित है बल्कि प्रदेशों में इसकी अच्छी पैठ है. 28 प्रतिशत राज्य सरकारों के मुख्यमंत्री राजनीतिक घरानों से के हैं.

भारत केवल राजनीति में ही वंशवाद को नहीं सह रहा है.

वंश परम्परा का भारत के व्यवसाय जगत, बॉलीवुड और अन्य क्षेत्रों में भी दबदबा है. राजनीति में यह रेडीमेड रिश्तेदारी का नेटवर्क मुहैया कराती है जो पार्टी संगठन के लिए एक स्थानापन्न होता है.

प्रोफ़ेसर चंद्रा का कहना है कि वंशवादी राजनीति का संबंध राज सत्ता से होने वाले फ़ायदे से भी है- यानी सरकारी अधिकारी हमेशा बने रहने वाले शक्तिशाली राज्य की शह पर बेलगाम अधिकार का उपयोग करना जारी रखते हैं.

बदलते हालात

लेकिन पांडा का कहना है कि चीजें बदल रही हैं.

वो मानते हैं कि पहले की अपेक्षा बिना घरानों की पृष्ठभूमि वाले, नई पढ़ी के राजनीतिज्ञों की संख्या बढ़ रही है. उनका आंकलन है कि स्थानीय शासक घरानों में फूट पड़ेगी और उनकी चमक फीकी पड़ती जाएगी.

पांडा कहते हैं, ”जब आप किसी राजनीतिक घराने के राजनेता होते हैं तो आप उस नेटवर्क को आसानी से विरासत में पा लेते हैं जो चुनाव जिताने में आपकी मदद करता है. लेकिन सोशल मीडिया का आगमन यह दिखाता है कि यह बढ़त अब टूट रही है और राजनीति बहुकोणीय क्षेत्र बनता जा रहा है.”

पांडा आम आदमी पार्टी (आप) का उदाहरण देते हैं जिसने इसी वर्ष हुए दिल्ली विधानसभा चुनावों में सोशल मीडिया का सफलता पूर्वक इस्तेमाल किया.

हालांकि पांडा कहते हैं, ”मैं यह नहीं कह रहा हूं कि वंशवाद रातों रात खत्म हो जाएगा. लेकिन जैसे जैसे भारतीय युवा दुनिया से जुड़ते जाएंगे, वैसे वैसे सामंतवाद के स्थापित आदर्श टूटते जाएंगे. और इससे वंशवादी राजनीति भी अछूती नहीं रहेगी.”

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