सहारनपुरः ‘अमन मुश्किल, खिंच गई लकीर’

नितिन श्रीवास्तव बीबीसी संवाददाता, सहारनपुर से सहारनपुर में बीते शनिवार हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद से सिख और मुसलमान ख़ौफ़ के साए में जी रहे हैं. घटना के पांच दिन बीत जाने पर भी दोनों समुदायों के बीच तनाव के निशान साफ़ देखा जा सकता है. इन दंगों में तीन लोगों की मौत हुई और […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 1, 2014 9:16 AM
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सहारनपुर में बीते शनिवार हुए सांप्रदायिक दंगों के बाद से सिख और मुसलमान ख़ौफ़ के साए में जी रहे हैं.

घटना के पांच दिन बीत जाने पर भी दोनों समुदायों के बीच तनाव के निशान साफ़ देखा जा सकता है.

इन दंगों में तीन लोगों की मौत हुई और कई घायल हुए, जिससे दोनों समुदायों में ख़ौफ़ महसूस किया जा सकता है.

विस्तार से पढ़िए सहारनपुर से नितिन श्रीवास्तव की रिपोर्ट

46 साल के संजय भारती पुराने सहारनपुर इलाके में अपनी दुकान के शटर का ताला चेक करने आए थे.

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प्रशासन ने कर्फ्यू में कुछ घंटे की ढील दी थी लेकिन संजय भारती के बड़े भाई की हिम्मत नहीं हुई कि ‘काज़मी कॉम्प्लेक्स’ में जल कर राख हो चुकी अपनी दुकान का जायज़ा लें.

इसी कॉम्प्लेक्स से ठीक 300 मीटर की दूरी पर सिखों का वह गुरुद्वारा है जिसके बगल में ज़मीन के एक टुकड़े को लेकर विवाद शुरू हुआ था.

शाम के पांच कर्फ़्यू में ढील मिलने पर सिख गुरूद्वारे में माथा टेकने पहुंचे हैं और छोटे-छोटे झुंड बनाकर खड़े हैं.

इनके चेहरे पर दहशत के साथ-साथ जिज्ञासा भी है – यह जानने की कि बिरादरी में किसका कितना नुकसान हुआ है.

अंबाला रोड पर 1978-79 से चल रही कई प्रतिष्ठित दुकानें दंगाइयों का निशाना बनी थीं. इनमें अधिकांश दुकानें सिखों की थीं.

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कृपाल सिंह को सुबह पता चला कि शनिवार देर रात हुई हिंसा में दुकानें जल चुकी हैं.

उन्होंने कहा, "कुछ रिश्तेदारों ने पंजाब से फ़ोन करके सुझाव दिया है कि वहीं चल कर बस जाएं. लेकिन पिछले 70 वर्षों से हज़ारों सिख परिवार यहीं पले-बढे, ऐसे कैसे चले जाएं."

कृपाल सिंह आगे कहते हैं, "हाँ, अब यहाँ पहले की तरह का अमन देख पाना मुश्किल रहेगा और एक लकीर तो खिंच ही गई है".

गंगा-जमुना के दोआब में स्थित सहारनपुर ज़िले की ज़मीन बेहद उपजाऊ है और यहां समृद्धि साफ़ दिखती है.

सिख समुदाय इस पूरे में इलाके में फैला हुआ है और बड़े फ़ार्महाउसों के अलावा उनका कारोबार विस्तृत है.

फीकी ईद, चरमराती दोस्ती

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ज़ाहिर है पूरे दो दशक बाद इस इलाके में हुए दंगों और उससे हुए नुक़सान से वे आहत हैं. शनिवार को हुए दंगों ने शहर में एक लकीर सी खींच दी है.

एक तरफ़ मुसलमान-बहुल इलाके हैं जहां ईद भी फीकी रही और रोज़गार चरमरा चुका है.

मुसलमानों की दर्जनों ऐसी दुकानें देखने को मिलीं जो दंगों में राख का ढेर बन कर रह गई हैं.

सहारनपुर शहर और इसके इर्द-गिर्द लकड़ी का बड़ा कारोबार है जिसमें सबसे ज़्यादा भागीदारी मुसलमानों की है.

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कुतुबशेर इलाके में मस्जिदें वीरान पड़ीं दिखीं और मुस्लिम मुसफ़िरख़ाने में एक भी मुसाफ़िर नज़र नहीं आया.

रहमत अली के पड़ोसी शनिवार की हिंसा में घायल होकर अस्पताल में भर्ती हैं. इनके परिवारों ने ईद बंद किवाड़ों के पीछे मनाई है और अपनी दुकानों का हश्र देखने की हिम्मत नहीं जुटा सके हैं.

रेलवे स्टेशन के निकट खड़े हुए अमीर अली ने कहा, "ज़्यादातर दंगाई, चाहे वो किसी भी मज़हब के हों, ऐसे मौकों पर शहर में घुस कर अफ़रा-तफ़री फैला देते हैं."

दंगे के बाद का दर्द

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अमीर अली आगे बताते हैं, "सिखों का भी नुकसान हुआ और मुस्लिमों का भी. मारने वालों का कोई धर्म नहीं होता, वे तो सिर्फ़ हिंसा फैलाना जानते हैं. दंगे के बाद का दर्द तो स्थानीय निवासी ही झेलेंगे".

स्थानीय प्रशासन की ओर से मिली जानकारी के अनुसार शनिवार के दंगों से संबंधित 22 रिपोर्टें दर्ज की गई हैं और 40 से अधिक कथित आरोपियों की गिरफ़्तारी हो चुकी है.

अधिकारियों के मुताबिक़ ‘कर्फ़्यू कब तक रहेगा, यह शहरवासियों के विवेक पर है’.

लेकिन सहारनपुर में जो हालात हैं उन्हें देखने से साफ़ पता चलता है कि कर्फ़्यू ख़त्म होने के बाद भी इन आकस्मिक दंगों के दाग़ धुलने में पीढ़ियां निकल जाएंगी.

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