<p>’वैष्णव जन तो तेरे कहिए जी, पीर पराई जाने रे…'</p><p>दूसरे की पीर की ख़ातिर ज़िंदगी भर लड़ने वाले महात्मा गांधी ने कहा था, ‘आज़ादी की लड़ाई तब तक पूरी नहीं, जब तक उसमें संगीत न हो.’ तेज़ चलते हुए गांधी की पसलियां अक्सर दिखती थीं. इसी छरहरे शरीर वाले गांधी ने एक बार छड़ी को जोड़ीदार बनाकर डांस भी किया था.</p><p>जीतने के दौरान और लड़ते हुए भी लड़ाइयों को इंजॉय करने का ये अहिंसा के पुजारी का स्टाइल था. </p><p>’जोकर’ आर्थर फ्लेक (वाकिन फिनिक्स) भी इस मामले में गांधी का अनुयायी लगता है. लेकिन ‘आई हैव ए कंडीशन’ जिसमें जोकर की न रुकने वाली हँसी और हिंसा लागू है.</p><p>गांधी के साथ ‘हे राम’ जुड़ा है और आर्थर के साथ बच्चों का यौन उत्पीड़न करने वाले रॉक स्टार गैरी ग्लिटर का गाना Hey. अपनी लड़ाइयों को लड़ता हुआ जोकर आर्थर बैकग्राउंड में बजते गानों में अपनी पसलियां दिखाता नज़र आता है. ये जश्न ज़िंदगी की त्रासदियों के कॉमेडी में बदलने का है. </p><h1>जोकर: हीथ लेजर की विरासत</h1><p>2005 में ‘बैटमेन बिगिंस’ के आख़िरी सीन में जोकर कार्ड दिखा था. ये जोकर तीन साल बाद 2009 में ताश के पत्ते से बाहर निकलकर ‘द डार्क नाइट’ में पूछता है- why so serious?</p><p>चाक़ू की नोक पर मुस्कान की क्रूर फ़रमाइश करने वाले ‘जोकर’ एक्टर हीथ लेजर ने जब दुनिया को अलविदा कहा, तब ये समझा गया कि अब पर्दे पर कोई दूसरा जोकर नहीं होगा. </p><p>साल बदले, हाल बदले. लेकिन नहीं बदली तो जोकर की वो फ़र्ज़ी मुस्कान, जो दूसरे को हँसाने के लिए गालों पर कभी रंग और कभी ख़ून के साथ खींच दी गई.</p><p>यहीं से जोकर का नाम लेते ही अक्सर दिमाग़ में हीथ लेजर की आने वाली छवि ग़ायब होती है और एंट्री होती है डायरेक्टर टॉड फिलिप्स की फ़िल्म जोकर के मुख्य किरदार आर्थर फ्लेक यानी वाकिन फिनिक्स की.</p><p>आर्थर गोथम सिटी का बाशिंदा है. कामयाब स्टैंडअप कॉमेडियन बनने की तमन्ना लिए एक जोकर, जिसकी मजबूरी उसकी मज़बूती बन जाती है. </p><p>लेकिन मजबूरियों से मज़बूत होने तक की जो एक कहानी होती है, आर्थर इसी कहानी का नाम है. एक मसख़रा कैसे दूसरों हँसाने की चाहत में अपनी मुस्कान को खोता जाता है. </p><h1>हिंसा या अहिंसा: कौन सा रास्ता आसान?</h1><p>क्रूरताएं लंबे वक़्त तक याद रखी जाती हैं. आर्थर असल दुनिया के इस सबक़ को ज़िंदगी में उतारता है. </p><p>’मैं सोचता था कि मेरी ज़िंदगी एक ट्रैजेडी है. लेकिन अब मैंने ये महसूस किया कि ये एक कॉमेडी है.'</p><p>कॉमेडियन से जोकर बनने तक आर्थर का ये ट्रांसफॉर्म पर्दे पर इतना शानदार है कि हिंसा और अहिंसा का गहरा फ़र्क़ भी बारीक लगने लगता है. </p><p>ये फ़र्क़ तब ज़्यादा महसूस होता है, जब पर्दे पर क्रूरता के साथ की गई हत्या देखने के कुछ सेकेंड बाद आप ख़ुद हँसने लगते हैं. आपकी यही हँसी देखने की तमन्ना कॉमेडियन आर्थर को थी. लेकिन इस तमन्ना में अहिंसा थी इसलिए किसी को फ़र्क़ ही नहीं पड़ा.</p><p>मगर जब इसी तमन्ना की बंजर ज़मीन पर हिंसा उग आई, तब क्रूरता में सबने अपना नेता देखा. कॉमेडियन आर्थर कहीं पीछे छूट गया और जोकर सामने आ गया.</p><p>भीड़ ने अपने-अपने हाथों में बैनर उठा लिया- हम सब विदूषक हैं.</p> <ul> <li>यह भी पढ़ें:- <a href="https://www.bbc.com/hindi/entertainment/2014/04/140424_kangana_ranaut_revolver_vm?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">’ये सभी नेता एक नंबर के जोकर और कार्टून हैं'</a></li> </ul><h1>समीक्षकों से घिरा जोकर</h1><p>फ़िल्म में आर्थर के चारों ओर ऐसे लोग रहते हैं, जो बिना उसकी बात सुने या समझे फ़ैसले सुनाए जाते हैं.</p><p><em>’तुम फनी हो… तुम फनी नहीं हो.’ ‘तुम नौकरी से निकाले जाते हो.'</em> या फिर बच्चे को हँसाने की कोशिश करते हुए ये सुनना- <em>मेरे बच्चे को परेशान मत करो.</em></p><p>पर्दे और पर्दे से बाहर एक अच्छा समीक्षक कौन है? </p><p>वो जो अपने फ़िल्म रिव्यू के हर पांचवे पैराग्राफ में सिनेमाटोग्राफी, एडिटिंग, म्यूज़िक, एक्टिंग, प्लॉट पर बात करता है?</p><p>या वो जो अपने सब्जेक्ट को ध्यान से सुन या देख रहा होता है?</p><p>पर्दे पर आर्थर जब अपनी कॉमेडी और ट्रैजेडी के सही समीक्षकों के इंतज़ार में ग़लत समीक्षकों से टकरा रहा होता है, तब सिनेमाटोग्राफ़ी इतनी कमाल की होती है कि हर सीन दूसरे सीन को बाहों में लिए नज़र आता है.</p><p>पहले ही सीन में बिना डायलॉग के हँसाने की कोशिश करते मसख़रे का धराशायी होना. ‘एवरीथिंग मस्ट गो’ के बोर्ड का मुंह पर टूटना और कूड़े वाली गली में पड़े रहना. बुरे वक़्त के अच्छे में रिसाइकिल होने का इंतज़ार करते हुए.</p> <ul> <li>यह भी पढ़ें:- <a href="https://www.bbc.com/hindi/media-42370218?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">वो जो हंसाने के लिए बना जोकर, तमाशा</a></li> </ul><h1>जोकर: राइटर, म्यूज़िक</h1><p>लिखे हुए में झूठ की गुंजाइश कम होती है. अपना लिखा झूठ पढ़ना बेहद मुश्किल होता है. सच बेहद आसान…जैसे 12वीं क्लास में आकर दो का पहाड़ा पढ़ना हो.</p><p>आर्थर का किरदार भी लिखे हुए में गुंजाइश खोजता है.</p><p>’People expect you to behave as if u DONT.’ यानी लोग आपसे अच्छे बर्ताव की उम्मीद ऐसे रखते हैं कि जैसे आप उनके साथ कोई बदसलूकी कर रहे हों. </p><p>पूरी जोकर फ़िल्म पर ग़ौर करें तो जगह-जगह ऐसे निशान दिखते हैं जिनसे पता चलता है कि इसके लेखकों- टॉड फ़िलिप्स और स्कॉट सिल्वर को लिखकर अपनी बात कहने से कितना लगाव है. </p><p>फिर चाहे बूढ़ी मां नेनी (मूर्रे फ्रैंकलिन) के साथ अपार्टमेंट में मूर्रे फ्रैंकलिन (रॉबर्ट डि नीरो) का शो देखने के बाद टीवी पर आते क्रेडिट्स. आर्थर की डायरी और बैनर. </p><p>अस्पताल के वो रिकॉर्ड्स, जिसे पढ़कर आर्थर जान पाता है कि मां क्यों कहती थी कि हँसना ज़रूरी है. </p><p>’चर्नोबिल’ में म्यूज़िक देने वाली हिल्डर गुआंडोटिर की चौंकाने वाली आदत जोकर में भी नज़र आई है. एक इंटरव्यू में डिल्डर ने कहा था, ‘मुझे सबसे ज़्यादा तब मज़ा आता है, जब सही मौक़े पर बिल्कुल सही धुन हाथ आ जाए.'</p><p>जिन सीढ़ियों पर अपनी उदासियों के साथ धीरे-धीरे आर्थर चढ़ता है, जोकर बनने पर इन्हीं सीढ़ियों से उतरने का उसका अंदाज़ पूरी तरह बदल चुका होता है. सीढ़ियों पर पड़े पानी पर कूदता-झूमता जोकर पीछे से आते पुलिसवालों की परवाह भी बंद कर देता है. </p> <ul> <li>यह भी पढ़ें:- <a href="https://www.bbc.com/hindi/india-38434688?xtor=AL-73-%5Bpartner%5D-%5Bprabhatkhabar.com%5D-%5Blink%5D-%5Bhindi%5D-%5Bbizdev%5D-%5Bisapi%5D">जोकर की ज़िंदगी: कहीं ख़ुशी कहीं ग़म</a></li> </ul><h1>पीर पराई…</h1><p>जोकर फ़िल्म 1970-80 के दौर की कहानी कहती है. फ़िल्म का ये दौर मार्टिन स्कॉर्सी की टैक्सी ड्राइवर और किंग ऑफ़ कॉमेडी जैसी कुछ फ़िल्मों के रेफ़रेंस से बना है.</p><p>कुछ मौक़ों पर टैक्सी ड्राइवर जैसे हालात आर्थर के लिए भी लगते हैं. लेकिन फिनिक्स की एक्टिंग आर्थर को आर्थर और जोकर को जोकर बनाए रखती है. </p><p>आर्थर और जोकर के किरदार को फ़िल्म में पकड़ते और छोड़ते वाकिन फिनिक्स ग्रीक माइथोलॉजी का वो फिनिक्स पंछी बन जाते हैं जो फ़ना के बाद अपनी ही राख से फिर ज़िंदा हो जाता है. </p><p>मेंटल हेल्थ, बच्चों का यौन उत्पीड़न, लड़कियों के साथ छेड़ख़ानी और ग़रीब बनाम अमीर. ये कुछ ऐसी चीज़ें हैं, जिनसे पर्दे पर जब जोकर होकर गुज़र रहा होता है तब फ़िल्म देख रहे लोग कनेक्ट कर पा रहे होते हैं.</p><p>ख़ासतौर पर तब जब आर्थर कहता है- <strong><em>मैं किसी चीज़ पर भरोसा नहीं करता.</em></strong></p><p>जोकर सिस्टम के बनाए नियमों पर भी सवाल करता है. ‘जब आप एक मेंटली डिस्टर्ब आदमी को बर्बाद हो चुके समाज में लाकर छोड़ते हैं तो आपको वही मिलता है जो आप डिज़र्व करते हैं.’ यही लाइफ़ है.</p><p>आस-पास या दूर दराज़ चेहरों पर चढ़े नक़ाब देखने वाले लोगों को जोकर ही अपना सच लगता है. तो क्या हुआ जो उसकी क्रूरता ग्लोरिफाई की हुई जान पड़ती है. </p><p><em>’….. हाहाहाहा. हाहाहाहा. हाहाहाहाहा.'</em></p><p><em>’किस बात पर हँसी आ रही है? </em></p><p><em>’एक जोक याद आया.'</em></p><p><em>’मुझे भी बताओ.'</em></p><p><em>’नहीं….क्योंकि तुम्हें समझ नहीं आएगा.'</em></p><p>कुछ समझाते हुए बैकग्राउंड म्यूज़िक पर अकेलेपन की जोड़ी के साथ जोकर नाचते हुए आंखों से ग़ायब होता है. हम सब पर ये इल्ज़ाम लगाते हुए कि चेहरे पर देखी हर मुस्कान को हम सच समझ बैठे….पीर पराई जानी नहीं.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम</a><strong> और </strong><a href="https://www.youtube.com/bbchindi/">यूट्यूब</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)</strong></p>
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JOKER FILM REVIEW: क्या जोकर सिर्फ़ वही, जो पीर पराई जाने है?
<p>’वैष्णव जन तो तेरे कहिए जी, पीर पराई जाने रे…'</p><p>दूसरे की पीर की ख़ातिर ज़िंदगी भर लड़ने वाले महात्मा गांधी ने कहा था, ‘आज़ादी की लड़ाई तब तक पूरी नहीं, जब तक उसमें संगीत न हो.’ तेज़ चलते हुए गांधी की पसलियां अक्सर दिखती थीं. इसी छरहरे शरीर वाले गांधी ने एक बार छड़ी को […]
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