जेएनयू: फ़ीस विवाद पर छात्र पीछे हटने को तैयार क्यों नहीं?

<figure> <img alt="जेएनयू" src="https://c.files.bbci.co.uk/0CCB/production/_109757230_whatsappimage2019-11-20at4.07.02pm.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के जिन नारों को नई दिल्ली की सड़कों पर दबाने की कोशिश की गई वो अब यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के दफ़्तर की सफ़ेद दीवारों पर लाल, नीले और काले रंग से पुते हुए हैं.</p><p>यूनिवर्सिटी में ‘फ़्रीडम स्क्वायर’ नाम से चर्चित […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | November 20, 2019 10:43 PM

<figure> <img alt="जेएनयू" src="https://c.files.bbci.co.uk/0CCB/production/_109757230_whatsappimage2019-11-20at4.07.02pm.jpg" height="549" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों के जिन नारों को नई दिल्ली की सड़कों पर दबाने की कोशिश की गई वो अब यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर के दफ़्तर की सफ़ेद दीवारों पर लाल, नीले और काले रंग से पुते हुए हैं.</p><p>यूनिवर्सिटी में ‘फ़्रीडम स्क्वायर’ नाम से चर्चित चबूतरे के पास बने इस दफ़्तर के गलियारों में बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा है:</p> <ul> <li>है हक़ हमारा जेएनयू</li> <li>सस्ती शिक्षा, सबका अधिकार</li> <li>निजीकरण मुर्दाबाद</li> <li>हम लड़ते रहेंगे</li> <li>कुलपति इस्तीफ़ा दो</li> </ul><p>दो मंज़िला इस इमारत में लगभग सभी सीसीटीवी कैमरे तोड़ दिए गए हैं और काँच के कुछ दरवाज़े भी गिरा दिए गए हैं.</p><figure> <img alt="बीबीसी" src="https://c.files.bbci.co.uk/5AEB/production/_109757232_gettyimages-1183566988.jpg" height="649" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><p>’यार! ये तो गुंडागर्दी है.’ वीसी ऑफ़िस के इस नज़ारे को अपने कैमरे में क़ैद कर रहीं एक पूर्व जेएनयू छात्रा ने धीरे से कहा.</p><p>टीवी पर अपनी यूनिवर्सिटी से संबंधित ख़बरों को देखकर वहाँ हाल-चाल लेने पहुंचे उनके बैच के तीन अन्य सहयोगियों ने भी उनकी बात पर सहमति में सिर हिलाया.</p><p>लेकिन वीसी ऑफ़िस के बाहर डटे हुए जेएनयू के छात्रों के मुताबिक़ विश्वविद्यालय के कुलपति एम जगदीश कुमार ही इस परिस्थिति के लिए ज़िम्मेदार हैं क्योंकि तीन हफ़्तों से मिलने की गुज़ारिश कर रहे छात्रों की बात उन्होंने नहीं सुनी. इस वजह से छात्रों में आक्रोश है और बढ़ी हुई फ़ीस को लेकर बेचैनी भी.</p><p>सोशल मीडिया पर चल रहे कुछ भ्रामक संदेश और मीडिया के एक तबक़े से आ रहीं कथित तौर पर छात्र विरोधी रिपोर्टें जेएनयू स्टूडेंट्स की बेचैनी को और बढ़ा रहे हैं.</p><p>जेएनयू प्रशासन ने जहाँ छात्रों से अपील की है कि वो अपनी कक्षाओं में लौटें और परिक्षाओं की तैयारी करें. वहीं छात्रों में इस बात की ज़्यादा चिंता है कि दिसंबर मध्य में ख़त्म हो रहे इस सेमेस्टर के बाद उनका क्या होगा.</p><p>यूनिवर्सिटी में सैकड़ों ऐसे छात्र हैं जिन्हें लगता है कि अगर ‘नया हॉस्टल मैनुअल’ लागू हो गया तो उनके पास पढ़ाई बीच में ही छोड़ने के सिवाय कोई विकल्प नहीं बचेगा.</p><p>’यही वजह है कि इस लड़ाई को हमने अपने अस्तित्व की लड़ाई बना लिया है.’ छात्रसंघ दफ़्तर के बाहर लिहाफ़ ओढ़कर बैठे झारखंड के एक रिसर्चर ने चाय की चुसकी लेते हुए यह बात कही.</p><p>लद्दाख़, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के दूरदराज़ गाँवों-क़स्बों से आये अपने साथियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि छात्रों का भविष्य अधर में लटका हुआ है. ये छात्र अगर इस संघर्ष में हार गए तो इन्हें वैसे भी घर लौटना ही पड़ेगा. इसलिए छात्रों के पास लड़ने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं बचा है.</p><figure> <img alt="बीबीसी" src="https://c.files.bbci.co.uk/D01B/production/_109757235_gettyimages-1183566992.jpg" height="649" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><h3>पढ़ाई में 10-12 वर्ष कैसे लग जाते हैं?</h3><p>इन छात्रों ने बताया कि वर्ष 2017-18 में हर सेमेस्टर से पहले जमा की जाने वाली ‘हॉस्टल रजिस्ट्रेशन फ़ीस’ को प्रशासन ने 600 रुपये से बढ़ाकर 1200 रुपये कर दिया था. छात्रों ने इसे स्वीकार कर लिया क्योंकि जेएनयू में पढ़ने के लिए हॉस्टल बहुत ज़रूरी समझा जाता है.</p><p>यहाँ के टीचर कहते हैं कि जेएनयू मूल रूप से एक रिसर्च संस्थान है. यहाँ तीन साल के बीए कोर्स और दो साल के एमए कोर्स तो हैं ही. लेकिन जेएनयू में दाख़िला लेने वाले कुल छात्रों में से क़रीब 60 प्रतिशत शोध कार्यों में लगे हैं. यानी एमफ़िल या पीएचडी की पढ़ाई कर रहे हैं.</p><p>छात्र कहते हैं कि शोध स्तर की पढ़ाई करने के लिए लाइब्रेरी सबसे ज़रूरी चीज़ है. पिछले साल जब रात में लाइब्रेरी बंद रखने की बात सामने आई थी तो छात्रों ने उसे चुनौती दी थी.</p><p>छात्रों की दलील थी कि रात में लाइब्रेरी खुली रहती है तो वहाँ बैठकर पढ़ने की सहूलियत मिलती है. लेकिन जेएनयू के ख़िलाफ़ प्रचार करने वालों ने चर्चा फैलाई कि ‘ये कौनसी पढ़ाई है जो रात में ही होती है!'</p><p>इसी तरह तीन साल का बीए, दो साल का एमए, एक साल में एमफ़िल और फिर पीएचडी करने में पाँच साल तक लग जाते हैं. यानी जो छात्र ये पढ़ाई चुनते हैं, उन्हें इसे पूरा करने में 10 से 12 वर्ष तक लगते हैं. यानी 17 वर्ष की उम्र में जो छात्र 12वीं करके स्कूल छोड़ता है, 28-30 वर्ष की आयु में उसकी पढ़ाई पूरी होती है.</p><figure> <img alt="बीबीसी" src="https://c.files.bbci.co.uk/12A57/production/_109757367_whatsappimage2019-11-20at4.18.30pm.jpg" height="649" width="976" /> <footer>BBC</footer> </figure><p>जेएनयू में बहुत से छात्रों ने बड़ी ईमानदारी से बीबीसी को ये बताया कि ‘देश में रोज़गार की स्थिति बहुत ख़राब है, बीए और एमए की पढ़ाई के बाद कोई सम्मानित नौकरी नहीं मिलती, इसलिए बच्चे अपनी प्रतिभा के दम पर स्कॉलरशिप या फ़ेलोशिप हासिल करते हैं और जेएनयू में एमफ़िल या पीएचडी में दाख़िला ले लेते हैं. जेब ख़र्च के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं, फ़्रीलांस ट्रांसलेशन करते हैं. फिर यूनिवर्सिटी में खाना-रहना सस्ती दर पर उपलब्ध है, यूनिवर्सिटी की लाइब्रेरी बहुत अच्छी है, इससे भविष्य निर्माण में मदद मिलती है’.</p><p>यह पूरी बात अपने शब्दों में बतलाते हुए जेएनयू के एक दृष्टिबाधित छात्र रो पड़ते हैं.</p><p>वो कहते हैं, &quot;हम ग़रीब हैं. आप इस बात का मज़ाक़ उड़ा सकते हैं. लेकिन जेएनयू से मिलने वाली सुविधाओं की क़ीमत हमारे जीवन में कितनी ज़्यादा है और जो सपने हम देखते हैं, उन्हें पूरा करने में इसकी क्या भूमिका है, मैं उसे शब्दों में बयां नहीं कर सकता.&quot;</p><p>बिहार के एक छात्र ने जेएनयू अकादमिक काउंसिल की ताज़ा रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि यूनिवर्सिटी में क़रीब 40 प्रतिशत छात्र ऐसे परिवारों से आ रहे हैं जिनकी पारिवारिक मासिक आय 12 हज़ार से कम है. मध्यम वर्ग के लोगों को तो हम छोड़ ही दें, ग़रीब तबक़े के भी कम ही लोगों में इनके प्रति सहानुभूति बची है. लोग दुष्प्रचार में फंस चुके हैं और सरकार से सवाल करने की बजाय हमसे पूछने लगे हैं कि हम हॉस्टल के लिए 300-600 रुपये भी नहीं दे सकते.</p><figure> <img alt="बीबीसी" src="https://c.files.bbci.co.uk/17877/production/_109757369_gettyimages-1183454918.jpg" height="649" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> <figcaption>जेएनयू छात्रसंघ ने मंगलवार को प्रेस कॉन्फ़्रेंस करके दिल्ली पुलिस पर छात्रों के साथ बर्बरता करने का आरोप लगाया</figcaption> </figure><h3>फ़ीस बढ़ने से कितना फ़र्क़?</h3><p>सोशल मीडिया पर इन दिनों जेएनयू स्टूडेंट्स की फ़ीस से जुड़ी जो चीज़ें सर्कुलेट की जा रही हैं उन्हें देखकर ये लगता है कि यूनिवर्सिटी ने सिर्फ़ 1700 रुपये मासिक सर्विस चार्ज जोड़ा है और हॉस्टल का मासिक रेंट 10-20 रुपये से बढ़ाकर 300-600 रुपये कर दिया है.</p><p>बहुत से लोगों को ये रक़म बहुत कम लगती है, लेकिन यूनिवर्सिटी में ऐसे छात्रों की संख्या अच्छी ख़ासी है जिन्हें इन रियायती क़ीमतों पर छात्रावास लेने के लिए भी क़र्ज़ लेना पड़ा है.</p><p>छात्र कहते हैं कि बाहर के लोगों को हॉस्टल की जो फ़ीस 10-20 रुपये लग रही है, वो एक भ्रम है.</p><p>तो असलियत क्या है? ये समझने के लिए हमने कुछ छात्रों से बात की.</p><p>हमें बताया गया कि मौजूदा स्थिति में एक छात्र सेमेस्टर की शुरुआत में 1200 रुपये रजिस्ट्रेशन फ़ीस और 1100 रुपये बिल्डिंग चार्ज देना होता है.</p><p>इसके साथ ही मेस की सिक्योरिटी जमा करनी होती है 5500 रुपये जो बाद में वापस ली जा सकती है.</p><p>हर महीने खाने का बिल आता है क़रीब 3000 रुपये. बर्तनों और न्यूज़पेपर के 300 रुपये सालाना जमा होते हैं.</p><p>यानी जब एक छात्र हॉस्टल लेता है तो उसे कम से कम 12000 रुपये की ज़रूरत होती है. लेकिन जिसके परिवार की सामूहिक आमदनी ही 12 हज़ार है, उसके लिए ये फ़ीस भी ज़्यादा होती होगी.</p><p>छात्र बताते हैं कि यूनिवर्सिटी में ग़रीब घरों से आये बच्चे अगर पढ़ाई के साथ कुछ फ़्रीलांस काम ना करें तो वो व्यवहारिक जीवन के अपने ख़र्च नहीं निकाल सकते, इसलिए यूनिवर्सिटी में ये कल्चर है कि बच्चे पढ़ाई के साथ-साथ कुछ काम ढूंढते हैं.</p><p>नए हॉस्टल मैनुअल के लागू होने से छात्रों पर खाने-रहने का जो ख़र्च अब 4-5 हज़ार प्रति माह आता है, वो बढ़कर 8-9 हज़ार रुपये प्रतिमाह हो जाएगा.</p><figure> <img alt="बीबीसी" src="https://c.files.bbci.co.uk/43DF/production/_109757371_gettyimages-1183458559.jpg" height="660" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><h3>ग़रीब का बच्चा पढ़ेगा कहाँ?</h3><p>जेएनयू के सेंटर फ़ॉर द रीजनल स्टडीज़ में अध्यापक सचिदानन्द सिन्हा का शोध का सारा काम शिक्षा पर है.</p><p>वो कहते हैं कि दूसरे विश्वविद्यालयों में शिक्षा इतनी महंगी क्यों है? सवाल ये होना चाहिए था. पर लोग सवाल ये उठा रहे हैं कि 10-20 रुपये की जगह 300 रुपये हॉस्टल फ़ीस देने में दिक़्क़त क्या है?</p><p>सिन्हा दावा करते हैं कि जेएनयू के टीचर्स ने एक छोटा सा आंकलन किया है जो ग़ौरतलब है. जेएनयू के जिन बच्चों को सरकारी फ़ेलोशिप मिलती है, उसका एक हिस्सा हाउस रेंट अलावेंस यानी एचआरए के तौर पर काट लिया जाता है. अगर इस यूनिवर्सिटी में काउंसिल ऑफ़ साइंटिफ़िक एंड इंडस्ट्रीयल रीसर्च और यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन से 2500 बच्चे फ़ेलोशिप ले रहे हैं तो उसमें उनके आवास के लिए जो भत्ता तय किया गया है जो विश्वविद्यालय को मिलता है, वो क़रीब 23 करोड़ रुपये सालाना है.</p><p>&quot;जबकि छात्रावासों को चलाने का सारा ख़र्च अगर जोड़ लें और ठेके पर काम कर रहे सभी कर्मचारियों का वेतन जोड़ लें, तो पूरा ख़र्च 19 करोड़ रुपये सालाना आता है. यानी यूनिवर्सिटी के पास चार करोड़ रुपये बच जाते हैं. तो कोई ये बताए कि क्या परियोजन है फ़ीस बढ़ाने का?&quot;</p><p>सिन्हा कहते हैं कि 70 साल इस देश को हमने चलाया और इस दौरान जो कुछ भी रिसते हुए समाज के सबसे निचले तबक़े तक पहुंचा, उससे जो महत्वकांक्षाएं लोगों की बढ़ी हैं, हर तबक़े में लगता है कि उसका बच्चा भी अच्छा करे, उसके लिए सरकारी पब्लिक फंडिड संस्थान ही एक मात्र ज़रिया हैं. यही वजह है कि अरुणाचल प्रदेश और लद्दाख़ का पहला पीएचडी स्टूडेंट इस विश्वविद्यालय ने दिया. अगर ऐसे संस्थान ख़त्म करने लगेंगे तो ग़रीब का बच्चा पढ़ेगा कहाँ?</p><p>बीबीसी ने जेएनयू के पाँच ऐसे छात्रों से बात की जिन्होंने सचिदानन्द सिन्हा की बात की तस्दीक़ की.</p><p>हमें बताया गया कि सीएसआईआर या यूजीसी से इन छात्रों को जो फ़ेलोशिप या स्कॉलरशिप मिल रही है, जिसकी रक़म 32-36 हज़ार के बीच है, उसमें से क़रीब 8500 रुपये एचआरए (आवास के लिए) के तौर पर काटे जाते हैं.</p><figure> <img alt="जेएनयू" src="https://c.files.bbci.co.uk/91FF/production/_109757373_gettyimages-1182158255.jpg" height="549" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> </figure><h3>सरकार और यूनिवर्सिटी की क्या ज़िम्मेदारी है?</h3><p>अपनी हरियाली और ख़ूबसूरती से भी छात्रों को आकर्षित करने वाले जेएनयू कैंपस में जगह-जगह ‘नए हॉस्टल मैनुअल’ पर चर्चा करते छात्र इन दिनों मिलते हैं.</p><p>राजनीतिक चेतना के लिए अपनी अलग पहचान रखने वाले इस कैंपस में यूं तो लेफ़्ट और दक्षिणपंथी विचारधारा के समर्थक छात्रों में तनातनी रहती है. लेकिन इस मुद्दे पर सभी छात्र राजनीतिक मतभेद भुलाकर एक स्वर में फ़ीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ बोल रहे हैं.</p><p>इन छात्रों के अनुसार कैंपस में सतलज, झेलम और साबरमती छात्रावास बेहद ख़राब रख-रखाव के लिए जाने जाते हैं. इनमें रहने वाले छात्रों का दावा है कि बीते कई सालों से यूनिवर्सिटी प्रशासन ने कमरों में एक कील लगाने पर भी पैसे ख़र्च नहीं किए हैं. छात्र ख़ुद ही इनका रख-रखाव करते हैं.</p><p>हॉस्टलों के रख-रखाव के काम से यूनिवर्सिटी प्रशासन का इस तरह हाथ झाड़ लेना जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन को भी अखर रहा है.</p><p>टीचर्स एसोसिएशन का कहना है कि प्रशासन यूनिवर्सिटी को सेल्फ़ फ़ाइनेंसिंग मॉडल पर लाने की कोशिश कर रहा है. यानी जो छात्र अब तक खाने और रहने का रियायती ख़र्च दे रहे थे. उनसे अब सर्विस चार्ज वसूलने की तैयारी है ताकि मेस में काम कर रहे और हॉस्टल में अन्य सेवाएं दे रहे कर्मचारियों का वेतन बच्चों से ही वसूला जाए.</p><figure> <img alt="जेएनयू" src="https://c.files.bbci.co.uk/E01F/production/_109757375_gettyimages-1183264359.jpg" height="649" width="976" /> <footer>Getty Images</footer> <figcaption>जेएनयू के छात्रों का कहना है कि उनके पास लड़ने के अलावा अब कोई विकल्प नहीं बचा है</figcaption> </figure><p>टीचर्स एसोसिएशन के अनुसार इसमें सैद्धांतिक झगड़ा इस बात पर है कि यूनिवर्सिटी अगर इसी ढर्रे पर चलने लगेगी कि छात्र सुविधाओं के लिए पैसा देंगे और वहाँ पढ़ेंगे तो फिर सरकार और यूनिवर्सिटी की क्या ज़िम्मेदारी है? कल को अगर छात्रों से टीचर्स के वेतन के लिए भी पैसे मांगे जाने लगे तो क्या ये बच्चे वो पैसा दे पाएंगे? इस बात पर विचार होना चाहिए.</p><p>जेएनयू टीचर्स एसोसिएशन के महासचिव सुरजित मजूमदार ने बीबीसी को बताया कि हॉस्टल मैनुअल में लिखा हुआ है कि जब उसमें बदलाव किया जाएगा तो छात्रसंघ के ज़रिये छात्रों के अनुभव और उनकी ज़रूरतें सुनी जाएंगी. लेकिन कुलपति छात्रसंघ को मानते ही नहीं.</p><p>सुरजित ने दावा किया कि बीते चार वर्षों में तय समय पर जो बैठकें होनी चाहिए थीं, ना वो छात्रों के साथ हुई हैं और ना ही अध्यापकों के साथ. पर छात्रावास को चलाने का आधार क्या होगा, उस पर जब उन्होंने बंद कमरे में फ़ैसला ले लिया तो हमें सूचित कर दिया गया. ये लिखित नियमों का उल्लंघन है, पर इसपर कोई बात करने को तैयार नहीं है.</p><p>यूनिवर्सिटी प्रशासन की तरफ़ से छात्रों और टीचर्स के इन दावों का जवाब देने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ. यूनिवर्सिटी के कुलपति से भी बीबीसी ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उनसे बात नहीं हो पाई.</p><p><strong>(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप </strong><a href="https://play.google.com/store/apps/details?id=uk.co.bbc.hindi">यहां क्लिक</a><strong> कर सकते हैं. आप हमें </strong><a href="https://www.facebook.com/bbchindi">फ़ेसबुक</a><strong>, </strong><a href="https://twitter.com/BBCHindi">ट्विटर</a><strong>, </strong><a href="https://www.instagram.com/bbchindi/">इंस्टाग्राम</a><strong> और </strong><a href="https://www.youtube.com/bbchindi/">यूट्यूब</a><strong> पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)</strong></p>

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