बीबीसी हिंदी के साथ प्राण का आख़िरी इंटरव्यू
स्वाति बक्शी बीबीसी संवाददाता ‘चाचा चौधरी का दिमाग़ कंप्यूटर से भी तेज़ चलता है’ और ‘साबू को ग़ुस्सा आता है तो ज्वालामुखी फटता है.’ मासूम बचपन में ये बातें ना तो कभी नामुमकिन लगीं, ना ग़लत बल्कि उस शख़्स से मिलने की ख़्वाहिश ज़रूर हमेशा रही जिसने इन क़िरदारों को ज़िंदगी दी. 1960 के दशक […]
‘चाचा चौधरी का दिमाग़ कंप्यूटर से भी तेज़ चलता है’ और ‘साबू को ग़ुस्सा आता है तो ज्वालामुखी फटता है.’
मासूम बचपन में ये बातें ना तो कभी नामुमकिन लगीं, ना ग़लत बल्कि उस शख़्स से मिलने की ख़्वाहिश ज़रूर हमेशा रही जिसने इन क़िरदारों को ज़िंदगी दी.
1960 के दशक में कार्टूनिस्ट प्राण ने जब कॉमिक स्ट्रिप बनाना शुरू किया वो वक्त भारत में इस लिहाज से बिल्कुल नया था कि कोई देसी क़िरदार मौजूद नहीं थे.
दिल्ली में उनके घर पर मुलाक़ात हुई तो बातचीत की शुरुआत इसी बात से हुई.
राजनीति विज्ञान के स्नातक और फ़ाइन आर्ट्स के छात्र ने कार्टूनिस्ट बनने का फ़ैसला क्यों किया मेरे इस सवाल के जवाब में प्राण कहते हैं, "ऐसा नहीं है कि कार्टूनिस्ट नहीं थे. मुझसे बेहतर थे मेरे सीनियर जैसे शंकर, कुट्टी और अहमद लेकिन वे सब राजनीतिक कार्टून बनाते थे. मुझे लगा कि राजनीति तो वक्त के साथ पुरानी पड़ जाएगी क्यों न ऐसे सामाजिक क़िरदार बनाऊं जो हम जैसे हों. मेरी समझ से कार्टून पत्रकारिता की एक शाखा है."
प्राण बताते हैं, "उस वक्त जितनी भी कॉमिक्स बाज़ार में मौजूद थीं उन सब में विदेशी चरित्र थे जैसे मेंड्रेक, ब्लॉंडी वगैरह. हालांकि जब मैंने माता-पिता को बताया तो सबने कहा कि क्या मिलेगा तुम्हें, कोई लड़की तुमसे शादी नहीं करेगी. लेकिन मैंने कहा कि मैं तय कर चुका हूं. अब तो यही करना है."
कार्टून की भाषा
राजनीतिक भाषा से परहेज़ रखने पर प्राण कहते हैं, "सामाजिक क़िरदारों की उम्र कभी ख़त्म नहीं होती. मैंने उस वक्त जो कहानी कही वो आज भी पुरानी नहीं लगेगी."
चाचा चौधरी, साबू, पिंकी, बिल्लू, रमन जैसे बेहद सफल क़िरदार क्या उनके आस-पास के लोगों पर आधारित थे. ये पूछने पर प्राण कहते हैं, "चाचा चौधरी की जहां तक बात है तो मेरी प्रेरणा थे भारतीय इतिहास के प्रचलित व्यक्तित्व चाणक्य. मैं चाहता था कि मेरा हीरो उनके जैसा अक्ल वाला हो."
प्राण आगे कहते हैं, "मेरी अवधारणा पश्चिम से बिल्कुल भिन्न थी. वहां हीरो का शारीरिक तौर पर शक्तिशाली होना- लंबा चौड़ा, ख़ूबसूरत, बांका जवान होना ज़रूरी है लेकिन देखिए मेरा हीरो तो गंजा, बुड्ढा है. गंजा मतलब बदसूरत लेकिन उसकी ताक़त है उसका दिमाग़ तो मेरे चरित्र सिर्फ़ बाहरी ख़ूबसूरती के मोहताज नहीं है."
फिर चाचा की कहानियों में साबू कैसे आया यह पूछने पर प्राण बताते हैं, "शुरुआत में चाचा चौधरी अकेला था क्योंकि उस वक्त थीम साधारण से थे जैसे चोरी, पॉकेटमारी वगैरह पर धीरे-धीरे समस्याएं बदलने लगीं. फिर मुझे लगा कि इस अक्ल को शारीरिक ताक़त देनी होगी और ऐसे साबू का जन्म हुआ."
लेकिन साबू का ग्रह ज्यूपिटर कैसे निर्धारित हुआ. इस पर प्राण कहते हैं, "सिर्फ़ सोच की बात है. मुझे ज्यूपिटर काफ़ी दिलचस्प नाम लगा. मंगल जैसे नाम उस वक्त इतनी दिलचस्पी पैदा नहीं कर रहे थे."
महिला क़िरदार
अब प्राण से मिलने का मौक़ा मिला था तो मैंने एक शिकायत दर्ज करा ही दी कि उनके महिला क़िरदार जैसे चाचा चौधरी की बीवी बिन्नी, चन्नी चाची, श्रीमती जी इतने परंपरागत क़िरदार क्यों हैं. उन्होंने लीक से हटकर थोड़ी बोल्ड महिलाएं क्यों नहीं गढ़ीं.
प्राण अपना बचाव करते हुए कहते हैं, "देखिए अगर आप हास्य पैदा नहीं करेंगे तो कौन ख़रीदेगा. अपनी बीवी से तो चाचा चौधरी भी डरता है जो किसी से नहीं डरती. क्या ये ताक़त नहीं है. कितनी बार बिन्नी चाचा चौधरी को बेलन फेंक कर मार चुकी है."
राजनीतिक कार्टून और कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी विवाद का ज़िक्र छिड़ा तो प्राण का कहना था, "कार्टून हास्य के साथ कटाक्ष करने की कला ज़रूर है लेकिन अभिव्यक्ति की आज़ादी का मतलब किसी की बेइज़्ज़ती कभी नहीं हो सकता. भारतीय संविधान ने ये आज़ादी दी है तो उसका सम्मान होना चाहिए."
प्राण कहते हैं, "असीम त्रिवेदी ने जो भी किया वो सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के इरादे से किया. ऐसा कोई भी कार्टून जो संविधान का सम्मान न करे अच्छा कार्टून नहीं हो सकता. मेरी समझ से असीम ने जो किया वो सस्ती लोकप्रियता हासिल करने का तरीक़ा था."
कार्टूनकला का वर्तमान
भारत में कार्टूनकला की वर्तमान स्थिति पर टिप्पणी करते हुए प्राण कहते हैं, "पहले की बात और थी आज तो भारत में जर्नलिज़्म का पूरा तरीक़ा ही बदल चुका है. पहले शंकर और कुट्टी इतने प्रख्यात थे कि पहले पन्ने पर उनके कार्टूनों का इंतज़ार होता था लेकिन आज तो अगर माधुरी दीक्षित और ऐश्वर्या राय की तस्वीर हो तो कार्टून को धकेल कर पिछले पन्ने पर भी भेजा जा सकता है"
प्राण कहते हैं, "दूसरी बात ये है कि आज कार्टूनिस्ट हैं भी बहुत कम. आप को ही पांच नाम गिनाने को कहूं तो याद नहीं आएंगे. ये ट्राइब ही दुनिया में विरली है. आज तो अगर कोई कार्टून बना भी दे तो तुरंत जुलूस निकलने लगते हैं. नेहरू ने ख़ुद शंकर से एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि शंकर मुझे भी मत छोड़ना. आज के नेताओं में है इतना दम."
प्राण 75 बरस के हो चुके हैं लेकिन आज भी बदस्तूर काम कर रहे हैं.
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