घुमक्कड़ी : पुलों की महिमा भी खूब है
ऐश्वर्या ठाकुर आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर उफनती नदियों और अथाह खाइयों के खिलाफ इंसान की बगावत का जीता-जागता सबूत होते हैं पुल, जो दो सिरों को जोड़नेवाली एक मजबूत कड़ी का काम करते हैं. किसी सुदूर पहाड़ी गांव में झूलती पुलिया हो या वास्तुकला की बेजोड़ कहानी कहता स्टील का कोई विशालकाय सेतु, सभ्यता के विकास […]
ऐश्वर्या ठाकुर
आर्किटेक्ट एवं ब्लॉगर
उफनती नदियों और अथाह खाइयों के खिलाफ इंसान की बगावत का जीता-जागता सबूत होते हैं पुल, जो दो सिरों को जोड़नेवाली एक मजबूत कड़ी का काम करते हैं.
किसी सुदूर पहाड़ी गांव में झूलती पुलिया हो या वास्तुकला की बेजोड़ कहानी कहता स्टील का कोई विशालकाय सेतु, सभ्यता के विकास को पुल से बेहतर शायद ही कोई ईजाद बयान कर सकती हो. मिथकों में पुलों का जिक्र तब मिलता है, जब हनुमान की वानर सेना पत्थरों से रामसेतु का निर्माण कर देती है, जिससे राम सागर पार कर लंका कूच करते हैं. विकास की कड़ी में खासी-जैंतिया जनजातियों द्वारा निर्मित मेघालय का जीवंत जड़-मूल पुल अलग जगह रखता है, जो आपस में गुत्थमगुत्था जड़ों से बनाया गया, ताकि गुस्सैल नदियों को पार किया जा सके.
इसी क्रम में आता है हावड़ा ब्रिज का जिक्र, जिसे हुगली नदी पर बनाकर कलकत्ता और हावड़ा नगरों को आपस में जोड़ा गया. सुफेद गंगा नदी पर ऋषिकेश नगरी में डोलता हुआ लक्ष्मण-झूला पुल तकरीबन 90 बरस साइकिल-स्कूटरों और पैदल यात्रियों की चहलकदमी का गवाह बना खड़ा रहा. इसी तरह हर बार कुंभ मेले में तैयार होनेवाले अस्थाई पीपा (पांटून) पुल हजारों श्रद्धालुओं का स्वागत करते दिखाई देते हैं. समय के साथ शहरों, देशों और सभ्यताओं की पहचानें भी पुलों से जुड़ गयी हैं, जैसे गोल्डन गेट ब्रिज नुमाइंदगी करता है सानफ्रांसिस्को शहर की, ब्रुकलिन ब्रिज आपस में जोड़ता है न्यूयॉर्क के मैनहैट्टन और ब्रुकलिन उप-शहरों को.
कहते हैं कि कश्मीर में झेलम नदी पर कुल 13 कदल (पुल) हुआ करते थे, जिनमें से सात तो अकेले श्रीनगर में ही थे, जिसके चलते श्रीनगर को ‘सात पुलों वाला शहर’ भी कहा जाता था. काठ के बने ये कदल कश्मीरी वास्तुकला का अद्भुत नमूना हैं, जो लकड़ी के घरों के परिदृश्य के साथ मिल कर शहर को एक फनकाराना शक्ल देते हैं.
इन पुलों की अहमियत कश्मीर में इस कदर है कि कश्मीरी शादियों में कदल-ए-तार नामक एक रस्म भी होती है, जिसमें रुख्सती के बाद दूल्हे की बारात को उसके दोस्त ही कदल पर रोक कर नजराना मांगते हैं और फिर कदल पार करने दिया जाता है. मानते हैं कि रुख्सती की उदासी को कम करने के लिए इस रस्म को अपनाया गया था. जिक्र कश्मीर का हो और यहां के पुलों का हो, तो तारीख में दर्ज गौ-कदल का खूनी किस्सा भी निकल आता है, जब नब्बे के दशक में निहत्थे प्रदर्शनकारियों को इसी पुल पर सरकारी गोलियों से भून दिया गया था और नीचे बहता दरिया-ए-झेलम तक सुर्ख हो गया था.
त्रासदियों के साथ-साथ मोहब्बत के अफसानों और रस्मों में भी पुलों का अपना महत्व दिखता है. बीते जमाने की गायिका नूरजहाँ एक गीत में अपने माशूक से शिकायत करती हुई कहती हैं कि उसे नहर वाले पुल पर बुला कर वह खुद न जाने कहां रह गया. मान्यता है कि यूरोप के एम्स्टर्डम में बने स्किनी ब्रिज पर एक-दुसरे को चूमनेवाले जोड़े हमेशा प्रेम में रहते हैं. वहीं पेरिस के एक पुल ‘पॉन डेज आर’ ब्रिज पर प्रेमी जोड़े अपनी शाश्वत निष्ठा के प्रतीक के रूप में ताले छोड़ जाते हैं.
शहरों की दी हुई मुफलिसी से छुपते-छुपाते कितने ही बेघर आज इन पुलों के नीचे बसर करते हैं. हताश जिंदगियों को भी अक्सर पुलों के किनारे पसोपेश में खड़ा देखा जाता है, जो पुल पार करने की बजाय पुल से कूदकर सफर खत्म करने की फिराक में रहती हैं. शायरों और साहित्यकारों ने भी अक्षरों की खप्पच्चियां जोड़-जोड़ कर अदबी पुल गढ़ दिये हैं.
अज्ञेय अपनी कविता में पुल निर्माताओं के इतिहास में गुमनाम रह जाने की बात करते हैं, तो दुष्यंत कुमार रूमानियत का एक अनोखा बिंब गढ़ते हुए माशूका को रेल-सा गुजरता हुआ बताते हैं और खुद को पुल-सा थरथराता हुआ. महशर बदायुंनी पुल को ही अपने अपनों से मिलने की आखिरी उम्मीद के तौर पर देखते हुए कहते हैं, ‘करे दरिया न पुल मिस्मार मेरे, अभी कुछ लोग हैं उस पार मेरे’, वहीं नरेश सक्सेना अपनी कविता में कहते हैं, ‘… पुल पार करने से पुल पार होता है, नदी पार नहीं होती. नदी पार नहीं होती नदी में धंसे बिना…
उम्मीद का प्रतीक है पुल, जो जोड़ता है अलग थलग पड़े हुए भू-खंड; जो विद्रोह करता है फासलों, रिक्त स्थानों और मौजी दरियाओं के खिलाफ. स्कूल जाते बच्चों, भेड़ों के रेवड़ों और रसद ढोती गाड़ियों के आर-पार जाने का सहारा होते हैं पुल. काश! अगर चनाब पर भी तब किसी ने पुल बना दिया होता, तो माहीवाल से मिलने जा रही सोहनी को डूबना न पड़ता…