क्या कश्मीर की सियासत बदल रही है?
शकील अख़्तर बीबीसी उर्दू संवाददाता, दिल्ली भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच एक लंबे अंतराल के बाद फिर से बातचीत शुरू होने वाली थी. बातचीत की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, वार्ता के लिए माहौल भी बेहद अनुकूल था और एक लंबे समय के बाद संबंधों में सुधार के आसार नज़र रहे […]
भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों के बीच एक लंबे अंतराल के बाद फिर से बातचीत शुरू होने वाली थी.
बातचीत की सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थीं, वार्ता के लिए माहौल भी बेहद अनुकूल था और एक लंबे समय के बाद संबंधों में सुधार के आसार नज़र रहे थे लेकिन जैसे ही पाकिस्तान के उच्चायुक्त ने कश्मीर के अलगाववादी नेताओं से बातचीत शुरू की, भारत ने वार्ता रद्द करने का एलान कर दिया.
यह कोई पहला मौक़ा नहीं था जब पाकिस्तान के राजनयिकों या नेताओं ने भारत से बातचीत से पहले कश्मीरी अलगाववादियों से मुलाक़ात की हो और इस तरह की बैठकें पिछले दो दशकों में होती रही थीं.
लेकिन इस बार भारत सरकार ने बेहद सख़्ती से इसका विरोध किया और विदेश सचिवों की मुलाक़ात रद्द कर दी.
यह कश्मीर के बारे में मोदी सरकार की नई नीति का पहला साफ़ इशारा है.
बीबीसी उर्दू के शकील अख़्तर का विश्लेषण पढ़ें.
भारत की शर्त
भारत के टीवी चैनलों पर दिखने वाले सैन्य रणनीतिकारों और दक्षिणपंथी बुद्धिजीवियों ने सरकार के इस क़दम का समर्थन किया है लेकिन राष्ट्रीय अख़बारों के अधिकांश लेख और संपादकीयों में सरकार के इस फ़ैसले पर अफ़सोस जताया गया है.
इन संपादकीयों में बताया गया है कि बातचीत रद्द करके सरकार ने कश्मीर के बारे में अपनी नीति को सीमित कर लिया है और ख़ुद अपने लिए स्थिति जटिल बना ली है.
पाकिस्तान से बातचीत रद्द करने का फ़ैसला सीधे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दफ़्तर से लिया गया था. इसका साफ़ मक़सद पाकिस्तान को स्पष्ट तौर पर यह बताना है कि कश्मीर एक द्विपक्षीय मसला है और पाकिस्तान से वह इस बारे में अपनी शर्तों पर ही बातचीत करेंगे.
मोदी सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कश्मीर के मामले में कश्मीरी अलगाववादियों के मौजूदा नेतृत्व से वह तभी कोई बातचीत करेगी जब वो भारत की शर्तों के तहत वार्ता के लिए तैयार हों.
बदली हुई रणनीति
कश्मीर के संबंध में मोदी सरकार का यह रुख़ अतीत की नीतियों से बिल्कुल अलग और लचीलेपन के बग़ैर है.
मोदी सरकार पाकिस्तान से अपने संबंध बेहतर करने की दिशा में बेहद गंभीर है लेकिन इस प्रक्रिया में तवज्जो कश्मीर पर नहीं बल्कि आपसी रिश्तों पर होगी और कश्मीर पर ध्यान आंतरिक रूप से ही रहेगा.
मोदी सरकार पूरी तरह से एक नई रणनीति पर काम कर रही है. हालांकि बदली हुई रणनीति का ब्यौरा अभी सामने नहीं आया है.
अनुच्छेद 370
पिछले दिनों कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता ने सवाल उठाया था कि अगर भारत का प्रधानमंत्री सिख और राष्ट्रपति एक मुस्लिम हो सकता है तो मुस्लिम बहुल कश्मीर का मुख्यमंत्री एक हिंदू क्यों नहीं हो सकता.
इससे पहले जम्मू कश्मीर से संबंध रखने वाले एक केंद्रीय मंत्री ने अनुच्छेद 370 को समाप्त करने के बारे में चर्चा शुरू करने की बात की थी जिसके तहत ग़ैर कश्मीरियों को कश्मीर में ज़मीन ख़रीदने और वहाँ बसने का अधिकार नहीं है.
मोदी सरकार की कश्मीर नीति में अलगाववादियों से बातचीत की जगह नहीं होगी.
यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आने वाले कुछ महीनों में कश्मीर को लेकर मोदी की रणनीति स्पष्ट हो सकेगी.
लेकिन जो बात अभी से तय नज़र आती है, वह यह है कि पाकिस्तान के संदर्भ में नई सरकार की नीति सख़्त और बिना किसी लचीलेपन के होगी और कश्मीर की राजनीति में बहुत से किरदार इस बदली हुई रणनीति में अपनी अहमियत खो देंगे.
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