किसानों की कब्रगाह बन रहा है पंजाब
जो खेत उगलते थे सोना अब छीन रहे जिंदगी हरित क्रांति ने भारतीय कृषि की तसवीर बदल दी. एक वक्त था, जब अनाज संकट से निबटने के लिए लाल बहादुर शास्त्री को लोगों से एक जून उपवास रखने की अपील करनी पड़ी थी, वहीं आज देश के गोदाम अनाजों से इतने भरे हैं कि रखने […]
जो खेत उगलते थे सोना अब छीन रहे जिंदगी
हरित क्रांति ने भारतीय कृषि की तसवीर बदल दी. एक वक्त था, जब अनाज संकट से निबटने के लिए लाल बहादुर शास्त्री को लोगों से एक जून उपवास रखने की अपील करनी पड़ी थी, वहीं आज देश के गोदाम अनाजों से इतने भरे हैं कि रखने की जगह कम पड़ जाती है.
लेकिन, यह बदलाव लानेवाले किसानों का क्या हुआ? आज किसान किस संकट से जूझ रहे हैं, इसे समझने के लिए चलते हैं उस राज्य में, जो हरित क्रांति का बुलंद निशान है. पंजाब में किसानों और किसानी के हाल पर पढ़िए, यह विशेष श्रृंखला ‘हरित क्रांति का दर्द’.
पंजाब में खेती-बाड़ी से आयी समृद्धि किसी दंतकथा से कम नहीं है. यह कथा शुरू हुई हरित क्रांति के साथ. भाखड़ा-नांगल बांध से निकली नहरों के जाल ने खेतों तक पानी पहुंचाया. खेती के लिए बारिश पर निर्भरता खत्म होने से क्रांतिकारी बदलाव आये. दीन-हीन किसान सबल और सक्षम बनने लगे. भारत में रासायनिक खादों, कीटनाशकों, हाइब्रिड बीजों, ट्रैक्टर-हारवेस्टर जैसी खेती की मशीनों का इस्तेमाल बड़े पैमाने पर सबसे पहले यहीं के किसानों ने शुरू किया. देखते-देखते, पंजाब की छवि एक हरे-भरे और समृद्ध राज्य के रूप में सबके मन में बस गयी. लेकिन यह छवि अब बहुत तेजी से धुंधली पड़ रही है.
महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा के सूखा प्रभावित इलाकों में किसानों की आत्महत्या की चर्चा अक्सर होती है, लेकिन पंजाब के किसानों के बारे में उतनी बात नहीं होती. शायद वहां के खेतों की हरियाली इस पर परदा डाल देती है. जबकि, राज्य के सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 2000 से 2010 के बीच लगभग 6,926 किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
राज्य सरकार पहले किसानों की खुदकुशी की बात झुठलाने में लगी रही. लेकिन दबाव पड़ने के बाद, उसने एक -एक कर तीन सर्वेक्षण कराये. ये सर्वेक्षण पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना द्वारा किये गये, जिसमें पंजाबी विवि, पटियाला और गुरु नानक देव विवि, अमृतसर ने मदद की. पहले सर्वेक्षण में उन तीन जिलों (संगरूर, मनसा, बठिंडा) को शामिल किया गया, जहां से किसानों की खुदकुशी की सबसे ज्यादा खबरें आ रही थीं.
इसमें पता चला कि सन 2000 से 2008 के बीच 1,757 किसानों ने अपनी जान दी. दूसरे सर्वेक्षण में उपरोक्त तीन जिलों के अलावा मोगा, लुधियाना और बरनाला को भी शामिल किया गया. इसमें पता चला कि सन 2000 से 2010 के बीच 6,000 किसानों ने खुदकुशी. इन दो सर्वेक्षणों के बाद एहसास हुआ कि तीसरे सर्वेक्षण का दायरा और बढ़ाने की जरूरत है. इसमें उपरोक्त जिलों समेत, पंजाब के कुल 22 में से 19 जिलों को शामिल किया गया. इस सर्वेक्षण में 2011 से अप्रैल, 2014 के आंकड़े इकट्ठे किये जा रहे हैं.
तीनों सर्वेक्षणों के संयुक्त आंकड़ों में लगभग 7,000 आत्महत्या की बात सामने आयी है. लेकिन, किसान संगठनों का दावा है कि यह संख्या इससे कहीं अधिक है. भारतीय किसान यूनियन एकता के महासचिव सुखदेवी सिंह कोरी कलां कहते हैं, ‘हमारे नमूना-सर्वेक्षण के मुताबिक, यह संख्या 40 हजार से 50 हजार के बीच है. चूंकि सरकारी सर्वेक्षण विश्वविद्यालयों ने किया है और वे साधनों के अभाव से जूझते रहे, इसलिए घर-घर जाकर आंकड़े इकट्ठे करने का काम ठीक से नहीं हो पाया है. ज्यादातर आंकड़े तालुका दफ्तरों और गांव के मुखिया से लिये गये हैं.’
लाशों की नहर
संगरूर जिले के खनौरी में अक्सर ही मजमा-सा लगा रहता है. यह मजमा होता है, उन लोगों का, जो अपने परिजनों की लाश की खोज में यहां आये होते हैं. खनौरी में भाखड़ा नहर मनसा, पटियाला और संगरूर जिलों से बहती हुई आती है.
पानी का तेज बहाव यहां धीमा रहता है, क्योंकि आगे हरियाणा पानी भेजने के लिए यहां से 800 मीटर दूर नहर में फाटक लगा है. उपरोक्त तीनों जिलों से लाशें बहते हुए यहां आती हैं. इसके लिए यहां नहर के पानी में आधुनिक कैमरे भी लगाये गये हैं. खनौरी थाने में एक अलग से रजिस्टर बनाया गया है, जिसमें गेट से पहले मिलनेवाली लाशों का ब्योरा रखा जाता है.
अधिकतर लाशें मर्दो की होती हैं, जिनकी उम्र 20 से 50 साल के बीच होती है. पहले सर्वेक्षण में यह तथ्य सामने आया था कि आत्महत्या करनेवाले किसानों में से 34.3 फीसदी नहर में कूद कर जान देते हैं. खनौरी में हर महीने औसतन 35 से 40 लाशें बरामद होती हैं. यहां एक मंदिर है, जिसकी दीवारें गुमशुदा लोगों के पोस्टरों से भरी रहती हैं. लाश ढूंढ़ने आनेवालों के लिए यहां सरकार और एक खैराती संस्था ने गेस्ट हाउस बनाया हुआ है. एक पूर्व सांसद ने दो एंबुलेंस दी थीं, जिनका इस्तेमाल लाशें ले जाने के लिए किया जाता है. लाश खोजने के लिए यहां पेशेवर गोताखोर रहते हैं, जो मोटी रकम वसूलते हैं.
कई जिलों में किसी के घर से कोई लापता होता है, तो आसपास ढूंढ़ने के बाद लोग खनौरी के लिए चल पड़ते हैं. और हफ्ते-हफ्ते भर यहां रुक कर लाश का इंतजार करते हैं. पीड़ित परिवारों की परेशानी कुछ कम हो सके, इसके लिए खनौरी के लोग चाहते हैं कि यहां मुर्दाघर, पानी के अंदर रोशनी और सरकारी गोताखोरों का इंतजाम हो.यह किस्सा एक नहर का है, पंजाब में और भी नहरें हैं और वहां भी यही हो रहा है.
(इनपुट : द वीक)