दोषी सिर्फ रंजीत या रकीबुल है?

।। दर्शक ।। रंजीत उर्फ रकीबुल प्रकरण, सड़-गल चुकी व्यवस्था की एक मामूली झलक है. ध्यान दीजिए, इसमें न्यायपालिका से जुड़े लोग हैं. पुलिस के अफसर हैं. मंत्री हैं ….. अगर सही जांच हुई और पर्दा उठा, तो आप देखेंगे कि किस-किस पृष्ठभूमि के कैसे-कैसे लोग इस कारोबार में डूबे या उलझे हैं? यह घटना […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | August 31, 2014 8:00 AM

।। दर्शक ।।

रंजीत उर्फ रकीबुल प्रकरण, सड़-गल चुकी व्यवस्था की एक मामूली झलक है. ध्यान दीजिए, इसमें न्यायपालिका से जुड़े लोग हैं. पुलिस के अफसर हैं. मंत्री हैं ….. अगर सही जांच हुई और पर्दा उठा, तो आप देखेंगे कि किस-किस पृष्ठभूमि के कैसे-कैसे लोग इस कारोबार में डूबे या उलझे हैं? यह घटना स्पष्ट करती है कि कानून महज कागजों तक सिमटा है. संविधान सिर्फ चर्चा तक है. समाज के शासकवर्ग ने लोकलाज को पी डाला है. अब तक जो-जो तथ्य आये हैं, उनमें से कुछेक पर गौर करिए.
रंजीत का कोई कारोबार नहीं था. न घोषित धंधा या व्यवसाय था. न उसके कथित एनजीओ की कोई ख्याति थी. न पुश्तैनी संपदा थी, न पुराना रईस अतीत था, न कोई ओहदा था कि लालबत्ती लगाये मंत्री या लोग (पुलिस अफसर या न्यायपालिका से जुड़े) उसके पास पहुंचते? उसकी चुंबकीय पूंजी या ताकत का राज क्या है? या असल हकीकत क्या है? जो तथ्य सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि वह फिक्सर था. गरीबी से उठा. चालू भाषा में दलाल. हालांकि फिक्सर और दलाल में भी एक फर्क है. पर इसे छोडि़ए. आखिर कैसे, किस स्रोत से अचानक रंजीत एक गरीब इंसान से संपन्न बन गया? उसके खाते में किस स्रोत से और कहां से पैसे आते थे? अगर तारा शाहदेव ने साहस नहीं किया होता, तो क्या यह पता चलता? ऐसे कितने रंजीत या रकीबुल इस व्यवस्था में हैं, यह आज किसे पता है?
जिन पर (कानूनी संस्थाएं) रंजीतों के न पनपने का काम देखने का दायित्व है, वे चौकीदार-प्रहरी या ऐसी गैर कानूनी चीजें पर नजर रखनेवाले ही साझीदार बन जायें, तो क्या होगा? यही स्थिति है. दरअसल, यह व्यवस्था अक्षम हो गयी है. सड़ गयी है. क्योंकि सिर्फ नेता ही नहीं, अफसर ही नहीं, सामान्य समाज भी अनैतिक बन गया है. इस समाज को अनैतिक बनाया है, शासकवर्ग ने.
महाभारत की पुरानी मान्यता है, महाजनों येन गता: सो पंथा. यानी समाज के अगुवा जिस रास्ते चलते हैं, समाज भी उसी रास्ते चलता है. पिछले 30-40 वर्षों से, भारतीय सामाजिक जीवन में, समाज के अगुवा (नेता, सरकार या अफसर वगैरह) भ्रष्ट मूल्यों के प्रहरी और संरक्षक हो गये, तो अब समाज भी उसी रास्ते है. किसी ने पूछा या नजर रखी कि 75 लाख रुपये, एक दिन में बिना कारोबार, व्यवसाय या धंधा के रंजीत उर्फ रकीबुल के खाते में कैसे आये? किस धंधे से आये? और ऐसे 75 लाख कितनी बार और कहां से रकीबुल के पास पहुंचे, यह तो अभी पता ही नहीं है.
क्या यह कभी पता चलेगा? क्योंकि जांच करनेवाली संस्थाएं कौन-सी हैं? इसी शासकवर्ग के लोग इन संस्थाओं में हैं. अपवाद या योग्य अफसर-नेता हर जगह हैं, पर अब उनकी चलती नहीं. आये दिन खबरें आती हैं कि फलां बड़ी जांच से अमुक ईमानदार अफसर हट गया या हटाया गया. याद रखिए, शायद ही यह मामला भी अंजाम तक पहुंचे. यह सिर्फ रकीबुल या रंजीत का प्रसंग नहीं है. न धर्म से जुड़ा प्रसंग है. रंजीत या रकीबुल की नस्ल, हर धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र में पैदा हो गयी है.
ये वही लोग हैं, जो श्रम नहीं करते, जिनका पसीना नहीं बहता, जो 10-20 घंटे कहीं नौकरी नहीं करते, किसी भी तरह की उत्पादन प्रक्रिया में जिनका योगदान शून्य है. पर यही लोग या वर्ग रातोंरात अपार संपदा के मालिक बन रहे हैं. कैसे? क्या कोई जादू है? कुबेर का खजाना मिलता है? कानूनसम्मत वह कौन सी आर्थिक प्रणाली या व्यवस्था है, जिसमें बिना काम किये, बिना श्रम किये या बगैर उत्पादन एक युवा बड़ी संपदा का मालिक बन जाता है. यह गंभीर रूप से बीमार व भ्रष्ट समाज का एक लक्षण है. धन्यवाद दीजिए तारा शाहदेव को कि वह युवती साहस के साथ कह रही है, जिससे पता चल रहा है कि झारखंड किस हाल में और कहां है? समाज का यह सड़ांध और दुर्गंध, एक युवती के साहस से उजागर हुआ.
फिक्सरों के पास कहां से पैसे आते हैं? यह मत भूलिए कि झारखंड बनने के बाद फिक्सरों की तादाद सबसे अधिक फली-फूली और बढ़ी है. तारा शाहदेव ने जो-जो आरोप रकीबुल पर लगाये, उन्हें पहले रंजीत या रकीबुल ने खारिज किया, पर अब एक-एक आरोप सही साबित हो रहे हैं. मसलन, शादी के बाद निकाह का आरोप सही साबित हुआ. मंत्रियों और अफसरों के वहां जाने की बात सही साबित हुई.
पुलिस की पूछताछ में रंजीत ने माना है कि वह लड़की सप्लाई का धंधा करता था. यह भी खबर आयी कि जब वह भागकर दिल्ली जा रहा था, तो किसी सब जज से उसे सहायता मिली. एक जिले के जज से बात करने की बात उसने कही है. यानी तारा शाहदेव ने जो-जो आरोप लगाये हैं, उन्हें अब रंजीत मान कर रहा है. तारा ने यह भी कहा है कि उसके घर सरकारी विभाग या न्यायालयों की फाइलें आती थीं, जिनके जेरॉक्स किये जाते थे. संबंधित मामलों को मैनेज करने का काम रंजीत करता था. वह लड़की सप्लाई करता था.
शहर में कई घर किराये पर ले रखा था. अशोक नगर, अशोक विहार के नाम भी इस प्रसंग में सामने आये हैं (ये दोनों मोहल्ले रांची के श्रेष्ठ और संभ्रांतों के मोहल्ले हैं). इन जगहों पर वह धंधा चलाता था, जहां बड़े-बड़े अधिकारी रहते हैं, तो आप समझ सकते हैं कि क्या रसूख और असर था, इस फिक्सर रंजीत का? रंजीत खुद ब्लेयर बिल्डिंग में रहता था. यह भी आभिजात्यों के रहने की जगह है. ब्लेयर में रहना, अशोक बिहार, अशोक नगर में अपना साम्राज्य फैला रखा था. यानी समाज के उच्चत्तर तबके में यह कारोबार? फिक्सिंग के जरिए यह धंधा चला रहा था. पर खुलासा तब हुआ, जब तारा शाहदेव से झंझट हुआ.
अगर विवाद नहीं होता, तो यह धंधा चलता रहता. याद रखिए, मामला सिर्फ एक व्यक्ति का ही नहीं है. ऐसे कितने रंजीत, झारखंड की व्यवस्था में पनप और फल-फूल रहे हैं? इस पर एक नजर डालिए, स्तब्ध रह जायेंगे. झारखंड बनने के 14 वर्ष पहले, राजनीति या कई अन्य क्षेत्रों में आये लोगों की क्या आर्थिक स्थिति या वजूद था और अब उनकी स्थिति क्या है? अपने आसपास देखिए और खुद आंकलन कर समझिए कि रंजीतों की फौज पैदा करने का काम कहां से हो रहा है? कौन कर रहा है? इनका उत्पादन तो झारखंड की सड़-गल चुकी व्यवस्था की फैक्टरी (कारखाना) में हो रहा है.
गौर करिए, ईमानदार पुलिस-प्रशासन या व्यवस्था होती, तो रंजीतों की फौज पनपती? लालबत्तियां अगर उसके घर नहीं पहुंचती या अगर इन लालबत्तियों की कार से सरकारी फाइलें ढोने का धंधा (जैसा आरोप तारा शाहदेव ने लगाया है) नहीं होता, तो कोई कैसे रातोंरात खाकपति से अकूत संपदा का मालिक बनता? किस हैसियत से वह सरकारी फाइलों की तिजारत करता? झारखंड के शासकवर्ग और समाज का आज दर्शन बन गया है, बिना श्रम कमाओ, सरकारी धन लूटो.
नीति-अनीति रह ही नहीं गयी है. न मर्यादा है, न आत्मसम्मान है. लज्जा और शर्म तो हम पानी में घोल बना कर पी चुके हैं. मंत्री और मंत्रियों के स्वजन की चर्चा देखिए. हर सरकारी काम में भ्रष्टाचार और दलाली. इसलिए झारखंड में पग-पग पर रंजीतों की फौज खड़ी हो रही है. एक चिंतक ने कहा था, जिस समाज की युवा पीढ़ी को बिना श्रम या उपार्जन के धर्नाजन की हवस हो जाये, उसका पतन कौन रोक सकता है? यह मूल्यविहीन समाज है, जो झारखंड में हमने गढ़ लिया है.
आज भी बिहार की राजनीति देखिए, ऐसा सेक्स रैकेट, यह पतन कम देखने को मिलेगा. हालांकि उदारीकरण के बाद अनैतिक मूल्यों का ग्रहण, देशव्यापी फिनामिना/घटना है. मूलत: इसकी जड़ में है, पैसा और सेक्स? भोग की इच्छा. धन, भौतिक संपदा और सेक्स. ऐसे काम करनेवालों को संरक्षण देनेवाले कौन हैं? मंत्री, अफसर, न्यायपालिका से जुड़े लोग. इन्हीं के नाम सामने आये हैं. इनके दायित्व क्या हैं? कानूनन समाज चले, इसकी देखरेख करना.
दरअसल सरकार और व्यवस्था की पूर्ण विफलता या सड़ांध का यह नमूना है. क्या हमारे सिस्टम में कोई तकनीक है, जिससे हम पता करें कि झारखंड में पिछले 14 वर्षों में बिना श्रम किये, रंजीतों की तरह धंधा करनेवाले या पैसावान बननेवालों की सूची कितनी लंबी है? सिस्टम में कोई ब्रेक नहीं रहा. मंत्री और संत्री ही अगर इस तरह के धंधा करनेवालों के संरक्षक, हमराज या हमराही बनें, तो यही होना तय है.
2000 वर्ष पहले तमिल का महान तिरूक्कुरल ग्रंथ आया. यह ग्रंथ क्या है? किसी भी धर्म के धर्मग्रंथ की बात करें, तो इस देश में सबसे पहले विवाद शुरू हो जायेगा. विवाद इस पर नहीं कि समाज अनैतिक क्यों बन रहा है? मूल्यविहीन क्यों बन रहा है? इसलिए तिरूक्कुरल की चर्चा. यह निर्विवाद महाग्रंथ समाज की नींव श्रेष्ठ रखने का नैतिक उपदेश है. यह समाज नैतिक होना ही भूल गया है. 2000 वर्ष पहले हमारे पुरखों ने बताया कि जीवन में शील और सदाचार का क्या महत्व है? इंद्रिय विजय का क्या तात्पर्य है? संत तिरूवल्‍लूवर ने इस पुस्तक में 2000 वर्ष पहले राजा, मंत्री, दूत, सैन्य वगैरह के नीति-विधान पर चर्चा की है. अगर राज्य व्यवस्था अनीति पर चले, अनैतिक हो जाये, तो उस राज्य का बनना मुश्किल है. यही हाल झारखंड का है.
फिर कोई रास्ता है? हां, है! अब सामान्य नागरिकों को, लोगों को जगना होगा. जाति, धर्म, क्षेत्र, बाहरी-भितरी के आवरण तोड़ कर. ब्रिटेन के एक मशहूर राजनयिक क्रेन रॉश ने एक किताब लिखी है, द लीडरलेस रिवोल्यूशन (नेताविहीन क्रांति). पुस्तक का मर्म है कि कैसे सामान्य लोग, सत्ता हाथ में लेकर 21 वीं सदी में व्यवस्था बदल देंगे. आज हालात क्या हैं? अंग्रेजी के महान कवि, डब्ल्यू. बी ईट्स ने 1921 में एक कविता लिखी थी, द सेकेंड कमिंग (दोबारा आगमन). इस अंग्रेजी कविता की अंतिम दो पंक्तियों का हिंदी भावार्थ है, जो सर्वश्रेष्ठ हैं (यानी अच्छे लोग), उनमें ढृढता नहीं, मनोबल नहीं! पर जो सबसे अधम हैं (समाज के खराब-तलछट के लोग), उनके अंदर उत्कट-वासनामय-तीव्र प्रगाढ़ता-प्रबलता या एकजुटता है.
घरों में दुबके अच्छे लोग, जो अच्छी व्यवस्था चाहते हैं, पादरर्शी व्यवस्था चाहते हैं, बेहतर झारखंड चाहते हैं, उन्हें अपने-अपने घरों से बाहर निकलना होगा. नेताओं-शासकों के प्रति नफरत पैदा करना होगा. दबाव बनाना होगा कि तत्काल इस प्रकरण की सीबीआई जांच शुरू हो (अन्यथा याद रखिए, प्रशासनिक शिथिलता में सीबीआई को जांच पत्र जाने में ही लंबा समय निकल जायेगा) और झारखंड हाईकोर्ट की निगरानी में समयबद्ध ढंग से यह जांच मुकाम तक पहुंचे. जितने अधिकारी, मंत्री या नीचे की न्यायपालिका के लोग इसमें शामिल हैं, उनकी सिर्फ नौकरी ही न जाये, वो सामाजिक बहिष्कार के पात्र बनें. उन्हें कठोर सजा हो.
झारखंड में विधानसभा चुनाव होने हैं. यह लोक दबाव इस कदर बढ़े कि हर दल प्रामाणिक, सही और चरित्रवान लोगों को टिकट देने के लिए विवश हो. रंजीत-तारा शाहदेव प्रकरण, समाज की सफाई का मुद्दा बने, तब तो झारखंड में फिर कोई ऐसी घटना नहीं होगी. अन्यथा रकीबुलों की फौज खड़ी होती रहेगी और ताराएं ठगी जाती रहेंगी. इसे धर्म और मजहब से मत जोडि़ए. यह व्यवस्था की बीमारी है. हर धर्म और मजहब के अच्छे लोग उठ खड़े हों, तब शायद फिर ऐसी घटनाएं न हों.
एक साधुमना मित्र ने हाल ही में कहा था, बालू से तेल निकालने की कोशिश व्यर्थ है. जिस समाज में मूल्य, संस्कार, सिद्धांत, आस्था, लोकलाज, विवेक न बचे, उसे कौन बचा या उबार सकता है? उन्होंने गांधी के यंग इंडिया की 1925 की एक अंक का मर्म सुनाया (हालांकि यह तथ्य खुद चेक नहीं किया है) और कहा कि गांधी ने सात सामाजिक अपराध गिनाये हैं –
1. सिद्धांतविहीन राजनीति 2. मूल्यविहीन शिक्षा 3. संवेदनाहीन विज्ञान 4. परिश्रमविहीन धनोपार्जन
5. वैराग्यरहित उपासना 6. विवेकहीन मनोरंजन 7. नीतिविहीन कारोबार या व्यापार
गांधी या पुरखों ने बरजा था कि इन सातों में से एक भी अपराध होता है, तो समाज सड़ने लगता है. समझ लीजिए कि ये सातों अपराध एक साथ, एक समय, अबाध तरीके से हम कर रहे हैं, फिर अंजाम तो यही होगा न!

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