हाइ-स्पीड और बुलेट ट्रेनों की तकनीक

कन्हैया झा सरकार ने भारत में हाइ-स्पीड और बुलेट ट्रेनें चलाने की योजना बनायी है. हाइ-स्पीड ट्रेन चलाने से पहले दिल्ली से आगरा के बीच सेमी हाइ-स्पीड ट्रेन का आज दूसरी बार परीक्षण किया जा रहा है. क्या है हाइ-स्पीड ट्रेन, कैसा है इसका डिजाइन, क्या खास है इसकी तकनीक में, विभिन्न देशों में चलायी […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | September 11, 2014 6:14 AM
कन्हैया झा
सरकार ने भारत में हाइ-स्पीड और बुलेट ट्रेनें चलाने की योजना बनायी है. हाइ-स्पीड ट्रेन चलाने से पहले दिल्ली से आगरा के बीच सेमी हाइ-स्पीड ट्रेन का आज दूसरी बार परीक्षण किया जा रहा है. क्या है हाइ-स्पीड ट्रेन, कैसा है इसका डिजाइन, क्या खास है इसकी तकनीक में, विभिन्न देशों में चलायी जा रही ऐसी ट्रेनों में किन तकनीकों का होता है इस्तेमाल और अलग-अलग देशों में चल रही बुलेट ट्रेनों की तकनीक में अंतर पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज..
नयी दिल्ली : ए क शहर से दूसरे शहर तक जाने के लिए देश में यातायात का प्रमुख माध्यम है सामान्य ट्रेन, जो अब एक कदम आगे सेमी हाइ-स्पीड और हाइ-स्पीड ट्रेन की ओर बढ़ रहा है. इतना ही नहीं, हम बुलेट ट्रेन पर चढ़ने की तैयारी में भी जुटे हुए हैं. चीन, जापान, फ्रांस जैसे अनेक देशों में ऐसी ट्रेनें पहले से ही चल रही हैं, फिर हम क्यों पीछे रहें. आज अनेक देश अपने यहां हाइ-स्पीड ट्रेन चला रहे हैं या चलाने के प्रयासों में जुटे हैं.
वर्ष 1938 में पहली बार यूरोप में मिलान से फ्लोरेंस के बीच हाइ-स्पीड ट्रेन की शुरुआत की गयी थी, जिसकी अधिकतम रफ्तार करीब 200 किमी प्रति घंटा थी. द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होते ही ‘इटीआर 200’ आधारित इस तकनीक का विकास रोक दिया गया.
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद कई देशों ने इस तकनीक के विकास पर जोर दिया और जापान ने 1957 में ‘रोमांसेकर 3000 एसएसइ’ नाम से इसकी उन्नत विधा को लॉन्च किया था. हालांकि, यह नैरो गेज (छोटी लाइन) आधारित ट्रेन थी. इसके कुछ ही समय बाद जापान ने दुनिया की पहली हाइ-स्पीड ट्रेन की शुरुआत की, जो स्टैंडर्ड गेज (बड़ी लाइन) आधारित ट्रेन थी. इसे आधिकारिक रूप से 1964 में ‘शिनकानसेन’ के नाम से शुरू किया गया.
क्या है हाइ-स्पीड ट्रेन
इंटरनेशनल यूनियन ऑफ रेलवेज (यूआइसी) के मुताबिक, 250 किमी प्रति घंटे या उससे ज्यादा स्पीड से दौड़ने वाली ट्रेन को हाइ-स्पीड ट्रेन कहा जाता है. कई अर्थो में यह पारंपरिक ट्रेनों से अलग है. इस ट्रेन की पूरी रैक सामान्य ट्रेनों से अलग होती है और इसमें आधुनिक इंजन लगाये जाते हैं.
इसके इंजन का आकार एयरोडायनिक टाइप का होता है, जो हवा को चीरते हुए तेजी से आगे बढ़ता है. यह ट्रेन खास तौर से बनायी गयी हाइ-स्पीड लाइन पर चलायी जाती है या कम से कम इसकी यात्र का अधिकतर हिस्सा इस तरह के रेलमार्ग से होकर गुजरता है. बेहतर पावर सप्लाइ और गुणवत्तायुक्त ट्रैक के साथ इस रेलमार्ग के घुमावदार स्थानों को खास तरीके से डिजाइन किया जाता है. साथ ही इसमें उन्नत सिगनल सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है.
अभी बेल्जियम, फ्रांस, जर्मनी, इटली, नीदरलैंड, स्पेन, इंगलैंड, चीन, जापान, कोरिया और ताइवान में हाइ-स्पीड लाइनों पर ट्रेनें चल रही हैं. साथ ही ब्राजील, भारत, मोरक्को, रूस, सऊदी अरब समेत अमेरिका में हाइ-स्पीड लाइनों के निर्माण या विकास पर काम चल रहा है. हाइ-स्पीड लाइनों के विकास और उसकी तकनीक मुहैया कराने वाली प्रमुख कंपनियों में शामिल एबीबी के मुताबिक 2020 तक दुनिया में हाइ-स्पीड लाइनों का नेटवर्क 42,000 किमी तक पहुंच जायेगा.
हाइ-स्पीड ट्रेन का डिजाइन
दुनिया में हाइ-स्पीड ट्रेनों का संचालन विकास के दौर में है और इसके परिचालन में अलग-अलग देशों में अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल किया जाता है. हालांकि, इसकी सबसे पुख्ता तकनीक मैग्नेटिक लेविटेशन है, लेकिन इसके लिए पूरा का पूरा ढांचा अलग से तैयार करना होता है. इस कारण ज्यादातर देशों में मौजूदा ढांचे को विकसित करते हुए उसी ट्रैक पर हाइ-स्पीड ट्रेनें चलायी जा रही हैं.
अधिकतर हाइ-स्पीड ट्रेनें स्टील के बने ट्रैक और स्टील के ही बने हुए पहियों पर चलती हैं, जिनकी स्पीड 200 किमी प्रति घंटे से ज्यादा है. इन गाड़ियों का ठहराव कम होने के साथ इन्हें सुरक्षित सिगनल सिस्टम से चलाया जाता है.
हाइ-स्पीड की संचालन तकनीक
पारंपरिक ट्रेनों का संचालन ट्रैक्शन मोटर्स द्वारा होता है, जो लोकोमोटिव (इंजन) से जुड़ा होता है और इसमें सभी बोगियां एकदूसरे से जुड़ी होती हैं. हाइ-स्पीड ट्रेनसेट्स में लोकोमोटिव नहीं होते. सामान्य ट्रेन के संचालन के समय ट्रांसफॉर्मर्स और रेक्टिफायर्स की तरह वे सभी उपकरण, जो लोकोमोटिव में लगे होते हैं, इसमें वे विभिन्न बोगियों में ही लगे होते हैं.
चूंकि इसमें ट्रैक्शन मोटर्स को ज्यादा से ज्यादा बोगियों के पहियों से जोड़ दिया जाता है, इसलिए यह उनमें तेजी लाता है, जिससे ट्रेन तेजी से स्पीड पकड़ लेती है. दूसरे शब्दों में, सिंगल लोकोमोटिव यानी इंजन में किसी ट्रेन को खींचने की जितनी क्षमता होती है, उतनी क्षमता इस ट्रेन की बोगियों के भीतर लगे उपकरणों में होती है. इसलिए इनकी बोगियों को अलग नहीं किया जा सकता और न ही किसी अन्य ट्रेन में इसे आसानी से जोड़ा जा सकता है, जैसा कि सामान्य ट्रेनों में होता है. इसमें चालक के केबिन के तुरंत बाद यात्रियों के कंपार्टमेंट शुरू होते हैं. इसमें ट्रेन संचालन व नेटवर्क से जुड़ी सभी चीजें कंप्यूटर से नियंत्रित होती है और ट्रेन व ट्रैक पर बहुत से सेंसर लगे होते हैं. इन सेंसरों के माध्यम से कंप्यूटर पहाड़ सदृश आंकड़े पैदा करते हैं, जिनसे यह सुनिश्चित किया जाता है कि ट्रेन ऊर्जा का पर्याप्त रूप से इस्तेमाल कर रही है और पूरी तरह से नियंत्रित है.
टिल्टिंग : इस ट्रेन की सबसे हाइ-टेक खासियत है कि इसके ट्रेनसेट्स पूरी तरह ‘टिल्टिंग’ क्षमता वाले होते हैं. टिल्टिंग उस तकनीक को कहा जाता है, जिसके तहत तेज स्पीड से ट्रैक पर दौड़ते हुए घुमावदार स्थानों पर वह झुक जाती है और अपना संतुलन बरकरार रखती है. इससे घुमावदार ट्रैक पर बिना स्पीड कम किये हुए ट्रेन लगातार चलती रहती है. दूसरी ओर यात्रियों को भी घुमाव से पैदा हुए गुरुत्वाकर्षण बल का प्रभाव महसूस नहीं होता है, ठीक उसी तरह से जब आप बाइक चलाते समय तेजी से उसे मोड़ते हैं.
जापान को हाइ-स्पीड रेलवे का जन्मदाता माना जाता है. यहां की शिनकानसेन यानी बुलेट ट्रेन का नेटवर्क 35 से ज्यादा वर्षो के विकास का नतीजा है. जापान के प्रमुख रेलमार्ग इसके दायरे में हैं. अक्तूबर, 1964 में टोक्यो से ओसाका के बीच इस तरह की पहली ट्रेन चलायी गयी थी.
हाइ-स्पीड ट्रेन के संचालन से ट्रैक पर ज्यादा तनाव पैदा होता है, इसलिए इसका बुनियादी ढांचा बेहद मजबूत बनाया जाता है. इन ट्रेनों के संचालन के लिए अलग से ट्रैक बनाये गये हैं. शिनकानसेन ट्रेनों का संचालन दो अलग गेजों पर होता था- 1,067 मिमी और 1,435 मिमी. हालांकि, अब छोटी गेज खत्म हो चुकी है और सभी ट्रेनें बड़ी गेज की हैं. इसके रूट पर सिगनल सिस्टम व्यापक रूप से फिक्स्ड ब्लॉक का है. इसमें संचार व्यवस्था आधुनिक किस्म की होती है, ताकि किसी भी आपात स्थिति में नजदीकी स्टेशन से त्वरित संपर्क कायम हो सके.
इस रूट पर तीन तरह की ट्रेनें चलायी जाती हैं. इनमें से नोजोमी सबसे तेज चलनेवाली और अत्याधुनिक रेलगाड़ी है. इसमें 15 मीटर लंबी अत्यधिक एयरोडायनेमिक प्रकार का पावर कार लगा हुआ है. पटरी के ऊपर समानांतर बिछाये गये बिजली के तारों से इंजन को बिजली मुहैया करानेवाला पेंटोग्राफ का डिजाइन नये तरीके से किया गया है, ताकि ट्रेन की रफ्तार अत्यधिक होने की दशा में हवा के प्रतिरोध को कम किया जा सके. इसे पूरी तरह साउंडप्रूफ बनाया गया है, जिससे ट्रेन के भीतर आपको इसकी रफ्तार को लेकर जरा सी भी उत्तेजना नहीं महसूस हो पायेगी.
सीआरएच 380ए का विकास चाइना साउथ लोकोमोटिव एंड रोलिंग स्टॉक
कॉरपोरेशन ने किया है. चीन के नवनिर्मित हाइ-स्पीड लाइनों के लिए इस कंपनी ने चार प्रकार की ट्रेनों को बनाया है, जो 380 किमी प्रति घंटे की स्पीड से चलती हैं. इसके डिजाइन कार्य को चार मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है: सेमेटिक ड्राइंग, टेक्नोलोजिकल प्लानिंग, स्ट्रक्चरिंग एंड बिल्डिंग और एक्सपेरिमेंटेशन.
इसका ढांचा पूरी तरह से एलुमिनियम मिश्रधातु से निर्मित है और आगे का हिस्सा मछली के मुख की तरह का है. इसमें घूर्णन गति का कुछ इस तरह से इस्तेमाल किया गया है, जिससे तेज दौड़ते समय ट्रेन द्वारा ऊर्जा पैदा (रिजेनरेटेड एनर्जी) करने की मात्र बढ़ जाती है. नये जेनरेशन की हाइ-स्पीड इलेक्ट्रिक मल्टिपल यूनिट में इलेक्ट्रोन्यूमेटिक कम्पाउंड ब्रेक मोड का इस्तेमाल होता है, जिससे ट्रेन रिजेनरेटेड एनर्जी का ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल कर पाती है.
इस ट्रेन का डिजाइन पूरी तरह से ‘वाइब्रेशन फ्री’ है, यानी इसमें यात्र के दौरान झटका नहीं महसूस होता है. ये 550 किमी प्रति घंटे की स्पीड तक दौड़ने में सक्षम है. इन ट्रेनों में एडवांस्ड नॉइज कंट्रोल टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया गया है, जो इसे पूरी तरह साउंडप्रूफ बनाते हैं.
यूरोप की पहली बुलेट ट्रेन फ्रांस में 1981 में शुरू हुई. टीजीवी के नाम से शुरू की गयी इस ट्रेन में बिजली से चालित उच्च क्षमतायुक्त ट्रेनसेट्स लगा है. पटरियों पर दौड़ने वाली ट्रेन के रूप में इस बुलेट ट्रेन ने अप्रैल, 2007 में 574.8 किमी प्रति घंटे की रफ्तार पकड़ते हुए रिकॉर्ड स्थापित किया था. फ्रांस में जिन रेलमार्गो पर ये गाड़ियां चलायी जाती हैं, दोनों तरफ से तारों से घेरा गया है.
साथ ही इसमें बेहद नाजुक सेंसर्स लगाये गये हैं, जो राह में आनेवाली किसी प्रकार की बाधा को इंगित करते हैं. इन ट्रेनों में ऑटोमेटिक ट्रेन प्रोटेक्शन सिस्टम लगा होता है, जिससे सिगनल के मुताबिक स्वत: ब्रेक लग जाते हैं. चूंकि इसकी स्पीड को देखते हुए रेलमार्ग के किनारे लगे हुए सिगनलों को कोई अर्थ नहीं, इसलिए इनमें कैब के भीतर ही ऐसी व्यवस्था की जाती है ताकि चालक स्पीड को सिगनल के आधार पर नियंत्रित कर सके और दो ट्रेनों के बीच निर्धारित दूरी और समयांतराल बरकरार रहे.
जापानी बुलेट तकनीक
जापान में बुलेट ट्रेन की तकनीक से जुड़ी अहम बातें इस प्रकार हैं:
– सुव्यवस्थित ढांचा : बेहद तेज रफ्तार से ट्रेनों को चलाने के लिए इसका ढांचा उसी अनुकूल सुव्यवस्थित बनाया जाता है. इसके लिए एयरोडायनेमिक ढांचा सर्वाधिक उपयुक्त है. इसलिए बुलेट ट्रेन का आगे का हिस्सा पूरी तरह से हवाई जहाज के आगे वाले हिस्से की तरह डिजाइन किया जाता है.
– कम वाइब्रेशन : ट्रेन जब ज्यादा रफ्तार में होती है, तो पहिये वाइब्रेट करते हैं. यदि ये वाइब्रेशन कंपार्टमेंट में बैठे हुए यात्रियों तक पहुंचता है, तो उन्हें झटका महसूस होता है. यात्रियों को झटकों से बचाने के लिए बोगियों को सपाट बनाया जाता है. साथ ही एयर स्पिंरग का इस्तेमाल किया जाता है, जो वायु के दाब से पहियों से पैदा हुए झटकों से बचाता है.
– आधुनिक ट्रैक : जापान में बुलेट ट्रेन के लिए अलग से पटरियां बिछायी गयी हैं. इस रेलमार्ग पर ज्यादा घुमावदार मोड़ नहीं बनाये गये हैं. साथ ही समान लेवल पर कोई दूसरी रेल लाइन इसे क्रॉस न करे, इसका भी ख्याल रखा गया है, ताकि न तो इन ट्रेनों को कहीं रुकना पड़े और न ही किसी अन्य ट्रेन को पास देने का इंतजार करना पड़े.
– ऑटोमेटिक ट्रेन कंट्रोल (एटीसी) : सामान्य ट्रेनों के संचालन के समय उसके चालक सिग्नल के मुताबिक ट्रैक पर ट्रेन को नियंत्रित रखता है. लेकिन बुलेट ट्रेन के चालक के लिए यह बेहद मुश्किल होता है कि वह 250 किमी प्रति घंटे से ज्यादा की स्पीड पर ट्रेन चलाते वक्त सिग्नल को समझ सके. इसलिए इन ट्रेनों में एक अलग तरह के स्पीड कंट्रोल सिस्टम का इस्तेमाल किया जाता है, जिसे एटीसी कहा जाता है. इस सिस्टम के तहत ट्रैक के माध्यम से स्पीड की सूचना लगातार चालक की सीट के पास जुड़े हुए सिग्नल तक भेजी जाती है. एटीसी स्वत:ट्रेन को निर्दिष्ट रफ्तार पर चलाता है. साथ ही यह सेंट्रलाइज्ड ट्रैफिक कंट्रोल पर भी निर्भर है, जो यह सुनिश्चित करता है कि दो ट्रेनों के बीच पर्याप्त दूरी और समयांतराल है, ताकि उच्च गति वाली इन ट्रेनों का संचालन सुरक्षित तरीके से हो.

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