जल्लाद होना इनका खानदानी पेशा है और इनकी तीन पुश्तों ने यही काम किया है.
पहले दादा कालूराम जल्लाद और फिर पिता मामू सिंह ने कई बड़े मामलों के दोषियों को फांसी पर लटकाया था. कालूराम के ज़िम्मे तो रंगा-बिल्ला और इंदिरा गांधी के हत्यारों को फांसी पर लटकाना आया था.
मगर पवन जल्लाद उस दिन से तनाव में हैं जबसे उनको निठारी काण्ड के दोषी सुरेंद्र कोली को फांसी पर लटकाने की ज़िम्मेदारी दी गयी है.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद कोली की फांसी टाल दी गई है पर पवन को हमेशा तैयार रहने का आदेश दिया गया है.
कोली के जल्लाद पर सलमान रावी की रिपोर्ट:
मेरठ के कांशी राम नगर स्थित अपने मकान में बैठे पवन कहते हैं, "कभी कभी नींद नहीं आती है. मैं भी चाहता हूँ कि यह सबकुछ जल्दी हो जाए ताकि मैं जल्दी से तनावमुक्त हो जाऊं."
जबसे सजा के लिए सुरेंद्र कोली को मेरठ की जेल में स्थानांतरित किया गया है, तबसे पवन की दिनचर्या भी बदल गई है.
पूर्वाभ्यास
फांसी के तख्ते को ठीक-ठाक करना, फांसी वाली रस्सी की जांच से लेकर फंदा बनाने तक उन्हें हर चीज़ का पूर्वाभ्यास करना पड़ रहा है.
पवन का कहना है कि सुरेंद्र कोली का वज़न 70 किलो है और इसलिए इसी वजन की रेत की बोरी को लटकाकर वो अभ्यास कर रहे हैं.
मेरठ के चौधरी चरण सिंह कारागार के वरीय अधीक्षक एसएमएच रिज़वी बताते हैं कि इस जेल में 1975 के बाद किसी अपराधी को फांसी दी जा रही है इसलिए पूरे जेल प्रशासन में काफी तनाव है.
कई दौर में हो रहे अभ्यास में लीवर से लेकर रस्सी को लटकाने वाली फिरकी की भी मरम्मत की जा रही है ताकि फांसी देने के वक़्त सब कुछ ठीक ठाक काम करे.
जेल के सूत्रों का कहना है कि अदालत के अगले आदेश के बाद फांसी किसी भी रोज़ दी जा सकती है. इसलिए पवन को हमेशा तैयार रहने को कहा गया है.
परिवार का पेट
पवन का दावा है कि लगभग पांच ऐसे मौके आए जब उन्होंने अपने दादा का हाथ बंटाया था और अपराधियों को फांसी देने में उनकी मदद की थी.
लेकिन यह पहला मौक़ा है जब वो अकेले अपने बूते किसी को फांसी देंगे, "1988 में दादा को मैंने आगरा जेल में मदद की थी जब वो किसी अपराधी को फांसी दे रहे थे. उसके बाद दादा के ही साथ 1989 में इलाहाबाद और जयपुर और 1992 में पटियाला में फांसी देने का मौक़ा मिला."
पवन ने सिर्फ आठवीं तक पढ़ाई की है. जल्लाद की नौकरी उनकी पक्की नौकरी नहीं है और वो जेल प्रशासन के साथ सिर्फ एक अनुबंध पर हैं जिसके तहत उन्हें महीने में सिर्फ तीन हज़ार रुपये ही मिलते हैं.
बाक़ी के दिन वो कपड़े बेचकर अपने परिवार का पेट चलाते हैं. यही वजह है कि उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा देने की ठान ली. अब उनका एक बेटा दिल्ली में ग्रैजुएशन की पढ़ाई रहा है.
नींद नहीं आती
पूछे जाने पर वो कहते हैं कि अभी तक अपने बेटे को उन्होंने जल्लाद का प्रशिक्षण नहीं दिया है जबकि यह उनका पुश्तैनी काम है.
उनके बेटे ने इस बार उनके साथ जाने की इच्छा भी जताई मगर पवन ने उन्हें यह कहकर मन किया कि इससे उसके दिमाग पर खराब असर पड़ेगा.
"दिमाग पर असर तो पड़ता ही है. मैं नहीं चाहता कि उसकी पढ़ाई पर इसका असर पड़े. किसी को मरते हुए देखने का असर दिलो दिमाग पर हमेशा रहता है. क्या आप किसी को मरते हुए देख सकते हैं?"
"मेरी बात और है, मैंने तो इसका प्रशिक्षण अपने पिता और दादा से लिया है. लेकिन मेरे दिमाग पर भी पड़ता है. मुझे खाना नहीं खाया जाता उसके बाद. मुझे भी नींद नहीं आती."
सिलसिला
पवन के छोटे भाई भी हैं मगर न तो उन्होंने और न ही भतीजों ने कभी इच्छा जताई कि वो जल्लाद वाला अपना पुश्तैनी काम सीखना चाहते हैं.
पवन कहते हैं, "मैं सीखा सकता हूँ उन्हें. मगर किसी ने इच्छा ही नहीं ज़ाहिर की."
यह माना जा रहा है कि जल्लाद के काम का यह सिलसिला पवन तक ही सीमित रह जाएगा.
उत्तर प्रदेश में इनके अलावा कोई दूसरा जल्लाद नहीं है. कई बार तो आस पास के राज्यों से भी पवन को बुलाने की मांग आती है.
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक और ट्विटर पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)