बदइंतजामी और अफवाह पर सवार होकर आयी मौत

।। अजय कुमार ।। पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में इस वर्ष दशानन के वध का उमंग कई परिवारों के लिए जिंदगी भर का दर्द दे गया. इस मैदान में रावण वध का कार्यक्रम सालों से होता रहा है, पर इस बार के कार्यक्रम के बाद जो कुछ हुआ, वह इसके पहले कभी नहीं हुआ […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 5, 2014 6:33 AM

।। अजय कुमार ।।

पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में इस वर्ष दशानन के वध का उमंग कई परिवारों के लिए जिंदगी भर का दर्द दे गया. इस मैदान में रावण वध का कार्यक्रम सालों से होता रहा है, पर इस बार के कार्यक्रम के बाद जो कुछ हुआ, वह इसके पहले कभी नहीं हुआ था. रावण वध के बाद मची भगदड़ में 33 लोगों की जान चली गयी. मरनेवालों में 27 महिलाएं व बच्चियां शामिल हैं.
दशहरा का उत्साह पल भर में ही चीख-पुकार, रुदन-क्रंदन में बदल गया. कई लोगों के परिजन सदा के लिए बिछुड़ चुके थे. फिर लोगों का गुस्सा, तोड़फोड़ और आगजनी की घटनाएं. इस दर्दनाक हादसे ने एकबार फिर साबित किया कि भीड़ के प्रबंधन के लिए प्रशासन को जिस तरह का इंतजाम करना चाहिए था, वह नहीं हो पाया.
इस हादसे पर नजर डालें, तो पहली बात यह सामने आती है कि मैदान में आयी भीड़ को नियंत्रित करने के लिए कोई ठोस योजना नहीं थी. यह सबको पता है कि रावण वध के कार्यक्रम में पटना के आसपास के ग्रामीण इलाकों से भी बड़ी तादाद में महिलाएं और बच्चे अपने परिजनों के साथ आते हैं. इसमें शहरी इलाके के अलावा आसपास के लोगों की भागीदारी होने से रावण वध देखनेवालों की संख्या काफी बड़ी हो जाती है.
इस हादसे के दौरान गांधी मैदान में अनुमानत: तीन से चार लाख लोगों के एकत्रित होने की बात कही जा रही है. जाहिर है कि इतनी बड़ी भीड़ को सिर्फ प्रशासन के जरिये नहीं संभाला जा सकता. इसके बावजूद प्रशासन की जिम्मेदारी को इस आधार पर कमतर भी नहीं किया जा सकता.
सवाल यह है कि रावण वध के कार्यक्रम के बाद गांधी मैदान से वापस जानेवाली भीड़ को सुरक्षित बाहर निकलने के क्या इंतजाम किये गये थे? अगर भीड़ को सलीके के साथ मैदान में जाने की व्यवस्था होती तो वह उसी रास्ते से होते हुए बाहर निकलती. लेकिन ऐसा इंतजाम नहीं किया गया था.
दूसरा सवाल यह है कि क्या कार्यक्रम के पहले प्रशासन ने चेक लिस्ट बनाया था? अगर वह था, तो हादसे के बाद ही सही, उसे सार्वजनिक किया जाना चाहिए. क्या जमा हुई भीड़ को यह बताया जा रहा था कि मैदान के सभी गेट खुले हुए हैं और किसी भी कोने से वे बाहर की ओर जा सकते हैं. चूंकि लोगों को ऐसा आभास हुआ कि सिर्फ मैदान के रामगुलाम चौक के पास का गेट ही खुला हुआ है. इसलिए उस गेट पर अप्रत्याशित भीड़ हो गयी.
ऐसा अफवाह की वजह से हुआ या भीड़ के मनोविज्ञान की वजह से? इसी बीच हाइवोल्टेज तार गिरने की उफवाह उड़ी और कुछ ही क्षणों में कई जिंदगियां हमसें जुदा हो गयीं. कहा जा रहा है कि मुख्यमंत्री का काफिला गुजरने के बाद मैदान की सारी व्यवस्था दरोगा-सिपाही के भरोसे छोड़ दी गयी थी. वरीय अधिकारी वहां थे ही नहीं. वे कहां चले गये थे? क्या ऐसे अधिकारियों की जिम्मेदारी नहीं बनती थी कि वे भीड़ के जाने के बाद अपने व्यक्तिगत कार्यक्रमों में शरीक होते? क्या ऐसे अफसरों की पहचान होगी?
तीसरा सवाल यह है कि अफवाहों से निबटने के लिए प्रशासनिक स्तर पर क्या उपाय किये गये थे. 2012 में छठ पूजा के दौरान अदालतगंज घाट पर हुए हादसे के वक्त भी अस्थायी पुल पर बिजली का तार गिरने की अफवाह उड़ी थी. उसके बाद भगदड़ मची और 18 से ज्यादा लोग बेमौत मारे गये थे. उस हादसे के बाद प्रशासनिक हलके ने क्या कोई सबक लिया? इस हादसे से यह स्पष्ट है कि छठ पूजा की घटना के बाद भविष्य में ऐसी घटनाओं को रोकने की दिशा में खुद प्रशासिनक इकाइयां बहुत तत्पर नहीं थीं.
अगर ऐसा नहीं था, तो हादसे के शिकार हुए लोेगों के परिजन यह बात नहीं कहते कि भीड़ को नियंत्रित करने के लिए सुरक्षा के कारगर इंतजाम नहीं थे. यह भी गौर करने लायक है कि जहां इतनी भीड़ एकत्र थी, वहां एंबुलेंस सहित अन्य आपातकालीन इंतजाम कितने और किस स्तर पर किये गये थे?
चौथा मसला बेहद गंभीर है. यह मसला अफवाह का है. आखिर वे कौन से तत्व हैं, जो हमारे प्रयोजनों में विघ्न डालने की फिराक में रहते हैं? भीड़ में शामिल प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार कार्यक्रम के बाद जब भीड़ निकलने लगी, तो कुछ लंपट तत्वों ने महिलाओं-बच्चियों के साथ छेड़छाड़ भी की. उनकी इस हरकत से महिलाएं तेज कदमों से निलकने लगीं. तभी बिजली का तार गिरने की अफवाह उड़ायी गयी. घटना के चश्मदीदों के ऐसे बयानों से इसके पीछे किसी षड्यंत्र को नकारना आसान नहीं लग रहा है.
अभी पिछले ही साल इसी गांधी मैदान में एक साजिश रची गयी थी. एक राजनीतिक दल की सभा में ब्लास्ट हुआ और कुछ लोग मारे गये. उस घटना की खास बात यह थी कि रावण वध की तरह अफरा-तफरी का माहौल नहीं था. वह घटना दिन के उजाले में हुई थी और यह शाम के धुंधलके में. तब महिलाओं और बच्चों की तादाद न के बराबर थी. फिर भी, छठ पूजा के दौरान भगदड़, ब्लास्ट की साजिश और इस घटना के बीच यदि कोई समानता है तो संबंधित एजेंसियों को ज्यादा सतर्क होकर काम करने की चुनौती है.
पांचवीं बात जो समझ में नहीं आती, वह यह है कि गांधी मैदान को बाड़ेबंदी की शक्ल क्यों दे दी गयी? पहले मैदान के चारों ओर दीवाल होती थी. बाद में उस दीवाल पर भालेनुमा लोहे से घेरेबंदी कर दी गयी. इससे वह और खतरनाक हो गया. आपातकालीन स्थितियों में लोग दीवाल फांद कर सड़क पर चले आते थे. उनकी जान बच जाती थी. अगर मुकम्मल सुरक्षा के नाम पर यह घेरेबंदी की गयी है, तो इस पर शासन-प्रशासन को पुनर्विचार करने की जरूरत है. आखिर यह कैसी सुरक्षा व्यवस्था, जो जान के लिए आफत बन जाये?
छठा सवाल, समाज से सरोकार रखनेवाला है. यह है हमारी बढ़ती आबादी. पटना जिले में जनसंख्या घनत्व, 2011 की जनगणना के आंकड़ों के अनुसार, प्रति वर्ग किलोमीटर 1823 का है. 2001 में यह घनत्व प्रति वर्ग किलोमीटर 1474 लोगों का था. जानकारों का कहना है कि आबादी घनत्व में इजाफा ज्यादातर शहरी इलाके में हुआ है. पटना के शहरी इलाके का अराजक तरीके से विस्तार इसकी बानगी है.
आबादी का दबाव आम दिनों में भी प्रकट होता है. किसी भी सार्वजनिक स्थान को देखिए, भीड़, अधैर्य, अफरा-तफरी का माहौल, एक किस्म के भागमभाग का नजारा आम है. सड़क से लेकर स्टेशन व बस अड्डे तक पर ऐसा दृश्य रोजमर्र की बात है. आखिर जब हम आम दिनों में खुद को संयमित और अनुशासित नहीं बनायेंगे, तो खास मौकों पर हमारा व्यवहार तो और संजीदा होने की मांग करता है. क्या हम ऐसा कर पाते हैं? शायद नहीं. राजनीति और सरकार से जरा अलग हटकर इन चीजों पर गौर करने की जरूरत है. प्रशासनिक बदइंतजामी और हमारा अधैर्य वाला रवैया किसी खुशनुमा माहौल को बदरंग बना देता है. गांधी मैदान में तीन अक्तूबर की शाम का हादसा इसी का नतीजा है.
सातवीं बात यह है कि अभी दो बड़े त्योहार बाकी हैं, दीपावली और छठ. यह तय करने का वक्त है कि आनेवाले त्योहार की खुशियों पर अफवाह व बदइंतजामी का साया नहीं पड़ने देंगे. लेकिन, क्या इसके लिए हम सब तैयार हैं? यह तैयारी दोनों ही स्तरों पर किये जाने की जरूरत है. प्रशासन अपनी योजना बनाये, पर सामाजिक स्तर पर नागरिकों को भी ज्यादा जागरूक और संवेदनशील होने की भी जरूरत है.

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