पाकिस्तानः इसमें ‘हैदर’ का क्या कसूर?
वुसतुल्लाह ख़ान बीबीसी संवाददाता, पाकिस्तान मुझे शेक्सपियर प्रेमी फ़िल्म डायरेक्टर विशाल भारद्वाज पसंद हैं. ‘ओथेले’ और ‘मैकबेथ’ पढ़ने वाले ‘मक़बूल’ और ‘ओंकारा’ को कैसे भूल सकते हैं. इसलिए हम सब शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर आधारित विशाल की ‘हैदर’ का बेचैनी से इंतज़ार करते रहे. दो अक्तूबर को सिनेमा हॉल पहुंचकर मालूम पड़ा कि ‘हैदर’ पाकिस्तान […]
मुझे शेक्सपियर प्रेमी फ़िल्म डायरेक्टर विशाल भारद्वाज पसंद हैं.
‘ओथेले’ और ‘मैकबेथ’ पढ़ने वाले ‘मक़बूल’ और ‘ओंकारा’ को कैसे भूल सकते हैं.
इसलिए हम सब शेक्सपियर के ‘हैमलेट’ पर आधारित विशाल की ‘हैदर’ का बेचैनी से इंतज़ार करते रहे.
दो अक्तूबर को सिनेमा हॉल पहुंचकर मालूम पड़ा कि ‘हैदर’ पाकिस्तान में रिलीज़ नहीं हो रही है क्योंकि सेंसर बोर्ड को इसकी कहानी के कुछ हिस्सों और कश्मीर के लोकेशन पर एतराज़ है.
वुसतुल्लाह ख़ान का बेबाक ब्लॉग
अब सेंसर बोर्ड में बैठने वाले ‘यस सर’ टाइप बाबुओं से कौन उलझे, जिनकी अपनी नौकर की मजबूरियां हैं और जहां मजबूरियां हों, वहां मेरिट का क्या काम.
जिन्ना की तकरीर
जिस देश के जन्म के चार दिन पहले पहली लेजिसलेटिव असेम्बली में गवर्नर जनरल मोहम्मद अली जिन्ना की पहली तकरीर को अगले दिन छपने से पहले सेंसर करने की कोशिश की गई, वहां तू और मैं क्या बचते हैं.
वो तो अल्लाह भला करे डॉन अखबार के एडिटर अल्ताफ हुसैन मरहूम का कि उन्होंने जिन्ना साहब से भी ज्यादा देशभक्त एक कर्मचारी की सेंसर एडवाइस पर कहा कि मैं जिन्ना साहब को बताने जा रहा हूं कि आपके भाषण के साथ क्या होने जा रहा है.
तब कहीं जाकर 12 अगस्त के अखबारों में जिन्ना साहब की पूरी तकरीर छपी.
तराना-ए-हिंदी
1965 के युद्ध से पहले भारतीय फ़िल्में पाकिस्तान में बिना रोकटोक आती थीं तब तक पाकिस्तान और नज़रिया-ए-पाकिस्तान को कोई खतरा नहीं था.
लेकिन जंग के बाद सब सिलसिला थम गया और देशभक्ति ऐसी हड़बड़ा कर जागी कि ‘रेडियो पाकिस्तान’ से फिराक गोरखपुरी, कैफ़ी आज़मी और अली सरदार ज़ाफरी की नज़्मों, मजरूह सुल्तानपुरी के गीतों और भारतीय फिल्मी क़व्वालियों को तो जो देशनिकाला मिला सो मिला खुद इक़बाल के तराना-ए-हिंदी ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ पर रोक लग गई.
इक़बाल पाकिस्तान बनने से पहले ही स्वर्गवासी हो गए थे इसलिए शायद सेंसर बोर्ड ने पाकिस्तान का सपना देखने के बावजूद उन्हें हिंदुस्तानी समझ लिया.
जनरल ज़िया
अजीब बात है कि सेक्युलर माइंडेड अयूब ख़ान सरकार ने तो भारतीय फ़िल्मों और वहां की आवाज़ों को देशभक्ति की चादर ओढ़ा दी मगर इस प्रतिबंध को इस्लाम की सेवा के शौकीन जनरल ज़िया-उल-हक की सरकार ने 17 साल बाद उठा लिया.
और 1982 में हिंदुस्तानी फ़िल्म ‘मुमताज महल’ किसी पाकिस्तानी सिनेमा हॉल में लगी.
आज ये हाल है कि अक्सर हिंदी फिल्में भारत और पाकिस्तान में एक साथ रिलीज़ होती हैं. हर एफएम स्टेशन से बॉलीवुड के लेटेस्ट गीत बजते हैं.
सेंसर बोर्ड
गुलाम अली हों कि राहत फतह अली कि शफकत अमानत अली कि आतिफ असलम कि वीना मलिक. पता ही नहीं चलता कि कौन कौन है और कहां पर है.
ऐसे में अगर कोई भी सेंसर बोर्ड मेरिट के सिवा किसी और वजह से किसी फिल्म को रद्द कर दे तो फिर इस सेंसर बोर्ड और उन विश्व हिंदू परिषदियों में क्या फर्क रह जाता है जिन्होंने पिछले साल अहमदाबाद की एक आर्ट गैलरी में पाकिस्तानी आर्टिस्टों की पेंटिंग बिना देखे फाड़ डाली थी.
या फिर वो शिवसेनाई जिन्होंने भारत पाकिस्तान का क्रिकेट मैच रुकवाने के लिए मुंबई की पिच खोद डाली थी.
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