बेग़म अख़्तर ग़ज़ल गायकी के क्षेत्र में वो नाम है जहां से ग़ज़ल गायकी को एक नई पहचान मिलती है. 7 अक्टूबर, 1914 को जन्मीं बेग़म अख़्तर का यह जन्म शताब्दी साल है.
उनका संगीत का सफ़र कैसा था और आने वाली पीढ़ियां किस तरह उनकी गायकी को देखेंगी, इसको लेकर तमाम तरह के आकलन हुए हैं. हालांकि उनकी गायिका का जादू कुछ ऐसा है जो थमने का नाम नहीं लेता.
उनकी गायकी के बहाने उस समय के अवध-प्रान्त, पुराने लखनऊ और फ़ैज़ाबाद शहरों के साथ ही आज बिल्कुल बेनूर हो चली उस पारम्परिक महफ़िलों की मौसिकी (संगीत) को याद कर रहे हैं साहित्यकार और लेखक यतींद्र मिश्र.
यतीन्द्र मिश्र का विश्लेषण
अख़्तरीबाई फ़ैज़ाबादी के बारे में, उनके मिजाज और बेहतरीन गायकी के बारे में कुछ भी जिक्र करने से ज़्यादा पेचीदा बात उनकी गायी हुई संपूर्ण थाती में से कुछ बेहतरीन चीज़ों के चयन को लेकर है.
बेग़म अख़्तर को सराहने वाला रसिक श्रोता हर बार अपने तरीकों से बेग़म अख़्तर की गायकी को विश्लेषित करता है और अपनी अनूठी स्थापना पर अपने तर्कों के साथ कायम रहता है.
सांगीतिक यात्रा
उनकी शास्त्रीय संगीत की परंपरा पटियाला घराने के उस्ताद अता मोहम्मद ख़ान और किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल वाहिद ख़ान से संबद्ध रही है.
वे जहां पटियाला घराने की गंभीर गायकी में अपने उस्ताद से ग़ज़ल, ठुमरी और दादरा सीखने में व्यस्त रहीं, ठीक उसी समय उन्हें किराना घराने के ख्याल की बारिकियों को सीखने का अवसर मिला.
बेग़म अख़्तर की पूरी सांगीतिक यात्रा, इन्हीं दो घरानों के बीच किसी नाजुक बिन्दु पर संतुलित मिलती है, जिसमें बड़े उत्साह से उनकी आवाज़ ख्याल, ठुमरी, दादरा, चैती, कजरी और ग़ज़ल से होती हुई अद्भुत पुकार-तान व आकार लेने की असमाप्त मींड-मुरकियों-पलटों के साथ खनकती हुई चलकर हमारे पास आती है.
एक और बात उनकी गायकी में देखने की है कि तवायफ़ों की परम्परा से उठकर आने वाली उनकी मौसिकी का मामला हैदराबाद, भोपाल, रामपुर, गया और अयोध्या के राज दरबारों से होकर भी गुजरा है.
क्रांतिकारी गायिका
अधिकतर महफ़िलों में जहां वे ठुमरी, दादरा और ग़ज़लें गाती हुईं दिखाई पड़ती हैं, ठीक दूसरी ओर दरबार गायकी में उतनी ही शाइस्तगी से होली, सादरा, मुबारकबादियां और ख्याल अंग की ठुमरी गाने में विन्यस्त नज़र आती हैं.
बेग़म अख़्तर को करीने से सुनने पर यह बात भी समझ में आती है कि उनके लिए संगीत सिरजना सिर्फ़ राग, ताल और धुनों पर ही आधारित काम नहीं था, बल्कि वे गीत के शब्दों और बोलों की सटीक अर्थ-व्याप्ति के लिए भावों को बहुत गौर से बरतने में तल्लीन दिखाई पड़ती हैं.
शायद इसीलिए उनकी ग़ज़लों, ठुमरियों और कजरियों के एलपी रेकॉर्डस या सीडी सुनते हुए यह बात सहज ही उभरती है कि कैसे उनकी अदायगी में गीत के मिसरों के अंतरसंगीत में संगतियों का समूह अपने-अपने वाद्यों को अत्यन्त मिनिमलाइज करते हुए ‘अंडर प्ले’ करता था.
उन्होंने किसी गीत या बंदिश या ग़ज़ल पर अतिरिक्त बोझ वाली गलतराशी कभी नहीं की.
एक यारबाश महिला, उन्मुक्त फ़नकार, अपनी ग़ज़ल गायकी को लेकर अतिरिक्त सजग और ठुमरी और दादरा की अदायगी के समय बेहद जज्बाती और नाजुक ढंग से शास्त्रीयता का दमन थामने वाली कलाकार- सभी रुपों में बेग़म अख़्तर अपने समय से आगे निकल जाने वाली एक ऐसी क्रांतिकारी गायिका भी हैं, जिन्होंने इनोवेशन के लिए तमाम सारे रास्ते खोले.
महान कलाकार
‘निहुरे-निहुरे बुहारें’ जैसा गीत उनकी प्रतिभा को बहुत हौले-हौले बहारते हुए रसिक श्रोता तक सीधे ही ले आकर जोड़ देता है.
मैं उनकी गायी हुई ढेरों चीज़ों में से अपने पसंद की दस ऐसी ग़ज़लों को यहां इस मौके की ऐतिहासिकता का ध्यान रखते हुए उन्हें श्रद्धांजलि रूप में प्रस्तावित कर रहा हूं, जो मेरे लिहाज़ से उनके गाए हुए तमाम सारी सुंदर सौगातों में से चुनिंदा कही जा सकती हैं.
हालांकि ये दावा कतई नहीं है, कि जो कुछ भी यहां दे रहा हूं, वे ही उनके सर्वोत्तम का मुज़ाहिरा हैं.
योगदान
जिन कुछ बेहतरीन चीज़ों के लिए बेग़म अख़्तर हमेशा-हमेशा के लिए याद की जाएंगी, उनमें ‘कैसी ये धूम मचाई’ (होली ठुमरी, राग काफ़ी), ‘कोयलिया मत कर पुकार जियरवा लागे कटार’ (दादरा), हमरी अटारिया पे आओ संवरिया’ (दादरा), ‘जरा धीरे से बोलो कोई सुन लेगा’ (दादरा), ‘ओ बेदर्दी सपने में आ जा कुछ तो बिपतियां कम हुई जाए’ (दादरा) एंव ‘चला हो परदेसिया नैना लगाए’ (दादरा) प्रमुखता से मौजूद रही हैं.
बेग़म अख़्तर की गायी हुई दस अमर ग़ज़लों के स्मरण से उनके विशाल सांगीतिक योगदान को नमन कर सकते हैं-
1. ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया : ग़ज़ल, (शकील बदायुंनी) (सुनने के लिए क्लिक करें)
2. उल्टी हो गयी सब तदबीरें : ग़ज़ल, (मीर तकी मीर) (सुनने के लिए क्लिक करें)
3. जिक्र उस परीवश का : ग़ज़ल, (मिर्ज़ा ग़ालिब) (सुनने के लिए क्लिक करें)
4. कुछ तो दुनिया की इनायात ने दिल तोड़ दिया : ग़ज़ल (सुदर्शन फ़ाकिर) (सुनने के लिए क्लिक करें)
5. अहले उल्फ़त के हवालों पे हँसी आती है : ग़ज़ल (सुदर्शन फ़ाकिर) (सुनने के लिए क्लिक करें)
6. वो जो हम में तुम में करार था : ग़ज़ल (मोमिन) (सुनने के लिए क्लिक करें)
7. शाम-ए-फ़िराक अब न पूछ : ग़ज़ल (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़) (सुनने के लिए क्लिक करें)
8. इतना तो ज़िंदगी में किसी की खलल पड़े : ग़ज़ल (कैफ़ी आज़मी) (सुनने के लिए क्लिक करें)
9. ज़िंदगी का दर्द लेकर इंकलाब आया तो क्या : ग़ज़ल (शकील बदायुंनी) (सुनने के लिए क्लिक करें)
10. दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे : ग़ज़ल (बेहजाद लखनवी) (सुनने के लिए क्लिक करें)
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