मानव कोशिकाओं के इंसुलिन से होगा डायबिटीज का इलाज
ब्रह्मनंद मिश्र हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हाल में डायबिटीज के इलाज की एक नयी तकनीक का इजाद किया है. इस तकनीक से उपचार के बाद डायबिटीज के मरीजों को इंसुलिन का इंजेक्शन नहीं लेना होगा, क्योंकि उनकी कोशिकाओं से ही उन्हें इंसुलिन की आपूर्ति होगी. यदि यह तकनीक कामयाब होती है तो यह मेडिकल […]
ब्रह्मनंद मिश्र
हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने हाल में डायबिटीज के इलाज की एक नयी तकनीक का इजाद किया है. इस तकनीक से उपचार के बाद डायबिटीज के मरीजों को इंसुलिन का इंजेक्शन नहीं लेना होगा, क्योंकि उनकी कोशिकाओं से ही उन्हें इंसुलिन की आपूर्ति होगी.
यदि यह तकनीक कामयाब होती है तो यह मेडिकल साइंस रिसर्च के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है. चिकित्सा विशेषज्ञ इसे इंसुलिन की खोज से भी ज्यादा महत्वपूर्ण मान रहे हैं. किस तरह की है यह तकनीक, इससे कैसे होगा डायबिटीज का उपचार आदि की जानकारी देने के साथ-साथ डायबिटीज से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्यों पर नजर डाल रहा है आज का नॉलेज.
नयी दिल्ली : बदलते परिवेश में इंसान की रोजमर्रा की भागदौड़ भी बढ़ती जा रही है. खानपान बदलने के साथ जिंदगी में लगातार बढ़ती जद्दोजहद ने जिन समस्याओं या कहें कि बीमारियों को जन्म दिया है, उनमें सबसे बड़ी मानी जाती है डायबिटीज. डायबिटीज यानी मधुमेह की समस्या इंसान में समय के साथ-साथ लगातार बढ़ती जाती है.
इस समस्या की भयावहता का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वर्ष 1985 में दुनियाभर में मधुमेह प्रभावित लोगों की संख्या तीन करोड़ थी. अगले 10 वर्षो में यानी 1995 तक 13.5 करोड़ लोग इस बीमारी की चपेट में आ चुके थे. बीती शताब्दी के अंतिम वर्ष यानी वर्ष 2000 में दुनियाभर में डायबिटीज रोगियों की संख्या 17.7 करोड़ तक पहुंच चुकी थी.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) का मानना है कि यदि हम कोई कारगर हल नहीं निकाल पाये तो वर्ष 2025 में दुनियाभर में 35 करोड़ से ज्यादा लोग डायबिटीज के शिकार हो चुके होंगे.
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट के अनुसार, प्रत्येक वर्ष होने वाली असामयिक मौतों में नौ प्रतिशत कॉर्डियोवैस्कुलर की समस्याओं से होती है. हाल के समय तक इंसुलिन का इंजेक्शन ही इस समस्या का अहम समाधान था. लेकिन, हार्वर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों द्वारा इजाद की गयी नयी तकनीक से दुनियाभर में इस मुसीबत से छुटकारा पाने की उम्मीदें जगी हैं.
हार्वर्ड के वैज्ञानिकों ने ऐसे निष्कर्ष पर पहुंचने में कामयाबी पायी है, जिसके द्वारा मानव की एम्ब्रॉयनिक स्टेम सेल को ऐसी सेल में परिवर्तित किया जा सकता है, जो स्वत: इंसुलिन को पैदा करने और मुक्त करने में सक्षम होगी. इस तकनीक में स्टेम सेल द्वारा बीटा सेल बनाया जा सकेगा. बीटा सेल (बीटा कोशिकाएं) इंसान के पैन्क्रियाज (अग्नाशय) में होती हैं, जो सतत रूप से इंसुलिन का स्नव करती हैं.
नयी तकनीक से बड़ा बदलाव
अभी दुनियाभर में 34.7 करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप से डायबिटीज से प्रभावित हैं. ऐसे में यदि उम्मीद की कोई किरण दिखाई पड़ती है, तो निश्चित रूप से यह मेडिकल साइंस रिसर्च के क्षेत्र में बहुत बड़ी उपलब्धि हो सकती है. कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिकों का तो यहां तक मानना है कि यह तकनीक एंटीबायोटिक की खोज के बाद मेडिकल साइंस रिसर्च के क्षेत्र में सबसे बड़ी खोज साबित हो सकती है.
इससे न केवल मधुमेह का उपचार आसान हो जायेगा, बल्कि इंसुलिन इंजेक्शन के युग का भी अंत हो सकता है. इससे डायबिटीज की वजह से होनेवाले स्ट्रोक, हार्ट अटैक, दृष्टिहीनता और किडनी फेल हो जाने जैसी समस्याओं के हल निकाले जाने की संभावनाओं की तलाश की जा सकेगी.
वर्तमान में डायबिटीज रोगियों को ब्लड शुगर का स्तर नियंत्रित करने के लिए इंसुलिन का इंजेक्शन लेना होता है. साथ ही कुछ सतर्कता और देखभाल बेहद जरूरी होती है. ब्लड शुगर का स्तर लगातार बढ़ने पर आंखों की रोशनी चले जाने या हार्ट अटैक का खतरा बना रहता है. यदि स्टेम सेल द्वारा बीटा सेल बनाने की यह तकनीक इंसान के लिए सफल साबित होती है, तो ब्लड शुगर चेक-अप जैसी परेशानी से मुक्ति मिल सकती है.
मौजूदा शोधों में चूहों में प्रत्यारोपित की गयी स्टेम कोशिकाएं इंसुलिन के स्तर को व्यवस्थित करने में सफल साबित हो रही हैं, जिससे सकारात्मक परिणाम की उम्मीदें जगी हैं. यदि इंसुलिन प्रोडय़ूसिंग सेल्स तकनीक का मानव परीक्षण भी सफल हो गया तो दुनियाभर के लाखों-करोड़ों लोगों की जिंदगी को पटरी पर लाने में कामयाबी मिल सकती है.
लाखों लोगों को होगा फायदा
‘आरटी डॉट कॉम’ की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूनिवर्सिटी ऑफ इलनॉइज के बायो इंजीनियरिंग विभाग के प्रोफेसर जोस ऑल्बरहॉल्जर का यह दावा है कि यह रिसर्च मेडिकल साइंस की तकनीक में मील का पत्थर है. उन्होंने तो इसे इंसुलिन की खोज से भी बड़ा होने का दावा किया है.
इंसुलिन की खोज की वजह से ही डायबिटीज पीड़ित लाखों लोगों की जिंदगी को बचाना संभव हो सका है, लेकिन इंसुलिन प्रोडय़ूसिंग सेल्स की तकनीक से न केवल इंसान की जिंदगी को बचाया जा सकता है, बल्कि इंसान सामान्य रूप से जिंदगी जी सकता है. डॉउग मेल्टान द्वारा विकसित की गयी इस तकनीक को ‘फंक्शनल क्योर’ (क्रियात्मक उपचार) की दिशा में उठाया गया ठोस कदम बताया जा रहा है.
इसका मतलब यह है कि इंसुलिन प्रोडय़ूसिंग सेल्स के प्रत्यारोपित होने के बाद रोगियों में डायबिटीज प्रभावित होने का एहसास भी नहीं होगा.
कैसे काम करेगी नयी तकनीक
नयी तकनीक को इस मुकाम तक पहुंचने में करीब डेढ़ दशक का लंबा वक्त लग गया. शोध का नेतृत्व कर रहे हार्वर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉउग मेल्टन ने इंसुलिन प्रोडय़ूसिंग सेल्स की तकनीक को विकसित करने में कामयाबी हासिल की.
कुछ मामलों में मानव भ्रूण से प्राप्त स्टेम सेल को बीटा सेल बनाने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है. विकल्प के तौर पर स्किन सेल को भी प्रयोग में लाया जा सकता है. मेडिकल साइंस जर्नल ‘सेल’ में प्रकाशित एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लैब में विकसित सेल को डायबिटीज से ग्रसित चूहों में प्रत्यारोपित किया गया, जो इंसुलिन बनाने में सक्षम है.
लैब में विकसित की गयी कोशिकाएं इंसानों में प्रयोग किये जाने जैसे परीक्षण कार्य से बस कुछ ही कदम दूर है. मेल्टन के मुताबिक, एक साथ ऐसी क रोड़ों कोशिकाओं को विकासित किया जा सकता है, जो ब्लड में शुगर के लेवल को परखने और इंसुलिन स्नव में सफल साबित हो सकती हैं. इतना ही नहीं, यह प्रकिया सेल ट्रांसप्लांटेशन (कोशिका प्रत्यारोपण) थेरेपी में भी महत्वपूर्ण कड़ी बन सकती है.
‘द बोस्टन ग्लोब’ के मुताबिक, चूहों में सफल परीक्षण के बाद वैज्ञानिकों ने शिकागो में वनमानुषों पर इस तकनीक का परीक्षण शुरू कर दिया है. इस तकनीक के बावजूद टाइप-1 डायबिटीज रोगियों के लिए अभी हल निकाला जाना बाकी है.
टाइप-1 डायबिटीज में मानव का प्रतिरक्षी तंत्र (ह्यूमन इम्यून सिस्टम) सबसे ज्यादा प्रभावित होता है. टाइप-1 डायबिटीज पैन्क्रियाज में बनने वाली बीटा सेल (इंसुलिन पैदा करनेवाली कोशिकाएं) को नष्ट कर देता है. मेल्टन के अनुसार, उनकी टीम ऐसी कोशिकाओं को सुरक्षित खोली में प्रत्यारोपित करने की दिशा में काम करेगी, जिससे इंसुलिन को संतुलित किया जा सके.
टाइप-1 डायबिटीज के लिए जरूरी है बीटा सेल्स
हार्मोन इंसुलिन मुक्त करनेवाली बीटा सेल्स मानव पैन्क्रियाज (अग्नाशय) में पायी जाती है. टाइप-1 डायबिटीज की स्थिति में बीटा सेल्स नष्ट होने लगते हैं. मानव भ्रूण से प्राप्त की गयी सेल्स के माध्यम से इन बीटा सेल्स को बनाया जायेगा, ताकि संतुलन के लिए पर्याप्त इंसुलिन प्राप्त किया जा सके. वैज्ञानिक इस शोधकार्य में जुटे हैं.
पैन्क्रियाज की बीटा सेल से कम से कम पांच प्रकार की आइलिट सेल्स (जो सीधे तौर पर रक्त में हार्मोन्स का स्नव करती हैं) इंसुलिन को संतुलित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं.
पाचन क्रिया के दौरान रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ने पर पैन्क्रियाज की बीटा सेल इंसुलिन अवमुक्त करती हैं और हार्मोन का स्नव बढ़ जाता है. टाइप-1 डायबिटीज की बीमारी में ये कोशिकाएं इम्यून सिस्टम द्वारा ही नष्ट कर दी जाती हैं. दुनियाभर की कई प्रयोगशालाओं में बीटा सेल्स को संरक्षित किये जाने की दिशा में शोध की प्रक्रिया जारी है.
चूहों में इन कोशिकाओं द्वारा इंसुलिन प्राप्त करने के लिए लैब में निर्मित कोशिकाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है. चूहों में लगातार सफल परीक्षणों के बाद भविष्य में इंसानों में भी इस तकनीक का इस्तेमाल किया जायेगा.
इलाज की अब तक प्रगति
तमाम उम्मीदों के बावजूद टाइप-1 व टाइप-2 यानी दोनों ही प्रकार के डायबिटीज का संतोषजनक हल निकाल पाना मेडिकल साइंस के लिए अब तक चुनौती बना हुआ है. हालांकि, टाइप-2 डायबिटीज को नियंत्रित करने के लिए कई विधाओं का इस्तेमाल किया जा रहा है.
इसके परिणाम भी अच्छे आ रहे हैं, लेकिन टाइप-1 के लिए ह्यूमन स्टेम सेल द्वारा इंसुलिन प्राप्त करने की तकनीक ही एक मात्र उम्मीद की किरण दिख रही है. मेडिकल विशेषज्ञों का मानना है कि टाइप-2 डायबिटीज के लिए जीवनशैली में परिवर्तन लाकर भी ब्लड शुगर को नियंत्रित किया जा सकता है.
ब्लड शुगर नियंत्रण जरूरी
सभी प्रकार की डायबिटीज की समस्याओं से निपटने के लिए खान-पान और रहन-सहन में बदलाव लाना जरूरी होता है. डायबिटीज होने की दशा में हमेशा सावधानी बरतने की जरूरत होती है. ब्लड शुगर को नियंत्रित करने के लिए नियमित व्यायाम, पैदल चलना और वजन को नियंत्रित करना जरूरी होता है.
विशेषज्ञों का मानना है कि गैस्ट्रिक बाइपास सजर्री होने की दशा में टाइप-2 डायबिटीज की वापसी का खतरा बना रहता है. टाइप-1 डायबिटीज रोगियों को नियमित रूप से इंसुलिन इंजेक्शन से साथ-साथ स्पेशल डाइट और व्यायाम की आवश्यकता होती है. वहीं टाइप-2 डायबिटीज के इलाज के लिए जरूरी दवाएं देने के साथ-साथ खान-पान और जरूरी होने पर इंसुलिन का इंजेक्शन दिया जाता है.
डायबिटीज बढ़ने पर आंख संबंधी बीमारियां- जैसे ग्लूकोमा, मोतियाबंद होने की आशंका भी गहरा जाती है. इसके अलावा हार्ट अटैक, हाइपर टेंशन, इन्फेक्शन जैसी कई बीमारियां परेशानी का सबब बन सकती हैं.
डायबिटीज के उपचार के लिए कुछ उल्लेखनीय शोध
नैनो-टेक्नोलॉजी
नैनो-टेक्नोलॉजी निश्चित तौर पर भविष्य की बेमिसाल तकनीक साबित होगी. मेडिकल साइंस की तकनीकों में माइक्रोस्कोपिक, नैनो-टेक्नोलॉजिकल स्पेक्ट्रम की महत्वपूर्ण भूमिका होगी. खासकर ब्लड ग्लूकोज के स्तर को मापने के लिए नैनो-टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल संभावित है.
यही वजह है कि कई वैज्ञानिक डायबिटीज जैसी समस्याओं का हल निकालने के लिए नैनो-टेक्नोलॉजी का सहारा ले रहे हैं. ‘द गार्जियन’ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, वेस्टर्न न्यू इंगलैंड यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक नैनो-टेक्नोलॉजी आधारित ऐसी मॉनीटरिंग डिवाइस विकसित करने में लगे हैं, जिसके माध्यम से इंसान की सांस में एसीटोन का पता लगाया जा सकेगा. इसकी मदद से ब्लड ग्लूकोज के स्तर की भी जानकारी प्राप्त की जा सकेगी.
डायबिटीज से जुड़ी अहम जानकारियां
– डायबिटीज एक दीर्घकालिक बीमारी है, जिसके कारण ब्लड शुगर अनियंत्रित हो जाता है.
– एक रिपोर्ट के अनुसार, दुनियाभर में डायबिटीज रोगियों की संख्या तकरीबन 35 करोड़ है.
– टाइप-1 डायबिटीज में शरीर से पर्याप्त मात्र में इंसुलिन पैदा नहीं हो पाता. कुल प्रभावित लोगों में तकरीबन 10 फीसदी लोग टाइप-1 से पीड़ित हैं.
– टाइप-2 डायबिटीज में शरीर की सामान्य प्रक्रिया के लिए इंसुलिन की आपूर्ति नहीं हो पाती. डायबिटीज के कुल मामलों में 90 प्रतिशत लोग इससे प्रभावित हैं.
– जेस्टेशनल डायबिटीज (गर्भ से संबंधी मधुमेह) : यह महिलाओं में गर्भावस्था के दौरान होनेवाली बीमारी है.
– जल्दी-जल्दी पेशाब आना, प्यास और भूख लगना, शरीर का वजन बढ़ना, अचानक वजन में कमी आना, थकान होना, सुन्नपन महसूस होना, पुरुषों में यौन क्रियाओं का असामान्य हो जाना और हाथों व पैरों में सिहरन पैदा होना जैसे लक्षण डायबिटीज के शुरुआती लक्षण हैं.
– डायबिटीज रोगियों में कॉर्डियोवैस्कुलर से संबंधित बीमारियां होने की आशंका ज्यादा होती हैं. इसलिए ब्लड प्रेशर (रक्तदाब) और कोलेस्ट्रॉल की निगरानी बेहद जरूरी है.
– हाइपोग्लाइकेमिया (लो ब्लड शुगर) का भी रोगियों का दुष्प्रभाव पड़ सकता है.
(स्नेत : मेडिकल न्यूज टूडे)