‘बम का गोला उछला और मेरे पीछे आने लगा…’
रियाज़ मसरूर बीबीसी संवाददाता, जम्मू जम्मू-कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सीमा पर हुई गोलाबारी में दोनों पक्षों के 20 से ज़्यादा लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए. दोनों पक्षों के बीच हुई गोलाबारी में भारत के सीमावर्ती इलाक़ों के 30 हज़ार से ज़्यादा लोगों को अपने घर छोड़कर अस्थाई कैम्पों में शरण लेनी […]
जम्मू-कश्मीर में भारत और पाकिस्तान की सीमा पर हुई गोलाबारी में दोनों पक्षों के 20 से ज़्यादा लोग मारे गए और दर्जनों घायल हुए.
दोनों पक्षों के बीच हुई गोलाबारी में भारत के सीमावर्ती इलाक़ों के 30 हज़ार से ज़्यादा लोगों को अपने घर छोड़कर अस्थाई कैम्पों में शरण लेनी पड़ी है.
इस संघर्ष के सबसे बुरे शिकार वहाँ के बच्चे हुए हैं. बच्चों में अवसाद के लक्षण साफ़ देखे जा सकते हैं.
अभी तक प्रशासन ने इन बच्चों के लिए किसी तरह के चिकित्सकीय मदद की व्यवस्था नहीं की है.
पढ़ें, रियाज़ मसरूर की रिपोर्ट
"बम का गोला तेज़ी से आसमान में उछला और फिर मेरे पीछे आने लगा. मैं अपनी जान बचाने के लिए भागी तो एक कुएँ में गिर गई. मेरी आँख एक कंपकंपी से खुली."
तक़रीबन दस लाख आबादी वाले सांबा सेक्टर के अस्थायी कैम्प में मौजूद 15 वर्षीय राखी ने हाल ही में यह सपना देखा.
राखी सांबा सेक्टर स्थित भारत-पाकिस्तान सीमा से महज तीस मीटर दूरी पर रहती हैं. राखी को यह बात जानकर हैरत हुई कि कैम्प में रहने वाले कई दूसरे बच्चों को भी ऐसे सपने आए हैं.
भारत और पाकिस्तान के बीच हुई गोलाबारी से सबसे ज़्यादा प्रभावित होने वाले अरनिया सेक्टर के एक गाँव में रहने वाले पूजा की कॉलेज की पढ़ाई अधूरी छूट गई.
पूजा बच्चों को कविता गाकर बहलानों की कोशिश कर रही हैं. वो कहती हैं, "बच्चे अवसादग्रस्त हैं. वो रोते और सिसकते हैं. यह रोज़ की बात है. सरकार को बच्चों के मानसिक हालत की चिंता नहीं है." पूजा बच्चों की ऐसी हालात से बहुत व्यथित हैं.
स्कूलों में शरण
सरकारी अधिकारियों के अनुसार भारत और पाकिस्तान के बीच हुई नियमित गोलाबरी से लगभग 30 हज़ार लोग अपना घर छोड़कर तक़रीबन 40 स्कूलों और सरकारी इमारतों में शरण लिए हुए हैं.
जम्मू-कश्मीर के दक्षिण हिस्से में भारत और पाकिस्तान के बीच 120 मील लंबी सीमा रेखा है.
भारतीय सीमा सुरक्षा बल और पाकिस्तान रेंजरों के बीच हुए हालिया संघर्ष में दोनों पक्षों के 20 से ज़्यादा लोग मारे गए.
भारतीय क्षेत्र में गोलाबारी में मारे जाने के डर ने बच्चों के ज़हन पर बुरा असर डाला है.
अरनिया में दवा की दुकान चलाने वाले एक स्थानीय नागरिक कहते हैं, "स्कूल पहले ही बंद हो चुके हैं. बच्चे अस्थायी ठिकानों में रह रहे हैं." बच्चे बेघर और अकेला महसूस कर रहे हैं. इससे निश्चय ही उनमें अवसाद बढ़ेगा.
निराशा
कॉलेज में पढ़ाई करने वाली राधा टीचर बनना चाहती हैं. वो सीमावर्ती इलाकों के बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं.
वो कहती हैं, "बच्चे इसलिए बेचैन हैं क्योंकि उनके ठिकानों पर उनके लिए कोई सृजनात्मक साधन मौजूद नहीं है. हम पढ़ना चाहते हैं लेकिन हमारी किताबें घर पर छूट गई हैं. हम घर वापस जाना चाहते हैं लेकिन सुरक्षाधिकारी हमें वापस नहीं जाने देते. यह निराशजनक है."
अरनिया सेक्टर के कुलदीप राज बताते हैं कि यहाँ शायद ही कोई ग्रामीण दसवीं से आगे की पढ़ाई कर पाता है.
वो कहते हैं, "इस बार यह मुद्दा बड़ी ख़बर बना है लेकिन हम लोग चुपचाप पिसते रहते हैं. साल 2003 में हुए संघर्ष विराम से थोड़ी राहत तो मिली लेकिन उसके बाद फिर से हालात बिगड़ गए."
प्रशासनिक अमला सदमाग्रस्त बच्चों के लिए चिकित्सकीय सुविधा उपलब्ध कराने की योजना बना रहा है.
आरएस पुरा के स्थानीय प्रशासक मनोज कुमार कहते हैं, "हमने इस विषय पर चर्चा की है. जहाँ-जहाँ बच्चे रह रहे हैं वहाँ हम विशेष कक्षाएँ आयोजित करने की योजना बना रहे हैं."
व्यथा
स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता परवीन सिंह कट्टाल बच्चों में दिखाई देने वाले तनाव से व्यथित हैं.
वो कहते हैं, "मोदी कहते हैं हम माकूल जवाब देंगे. नवाज़ शरीफ़ कहते हैं हम सख्त उत्तर देंगे. उन्हें ये समझना चाहिए कि वो एक-दूसरे को नहीं बल्कि हमें और हमारे बच्चों को निशाना बना रहे हैं."
वो आगे कहते हैं, "मैं चाहता हूँ कि यह गोलाबारी तत्काल रुके. अगर उन दोनों को युद्ध करना है तो एक दूसरे के महलों पर गोले बरसाएं, न कि हमारे सीने पर."
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