Loading election data...

जिन्हें आजादी जान से प्यारी थी

कैप्टन अब्बास अली: समाजवाद के कप्तान अनुराग चतुर्वेदी वरिष्ठ पत्रकार अन्याय के खिलाफ आवाज उठानेवाले अपने सिद्धांतों और मूल्यों पर जीवन जीनेवाले कैप्टन साहब सक्रिय और सोद्देश्य कामों से जुड़े थे. वे निराशा के खिलाफ थे, वे कहते थे, ‘मायूसी कुफ्र है. उठो तो सही.’ सच्चई और ईमानदारी उनकी रग-रग में बसी थी. अन्याय के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | October 18, 2014 5:54 AM
कैप्टन अब्बास अली: समाजवाद के कप्तान
अनुराग चतुर्वेदी
वरिष्ठ पत्रकार
अन्याय के खिलाफ आवाज उठानेवाले अपने सिद्धांतों और मूल्यों पर जीवन जीनेवाले कैप्टन साहब सक्रिय और सोद्देश्य कामों से जुड़े थे. वे निराशा के खिलाफ थे, वे कहते थे, ‘मायूसी कुफ्र है.
उठो तो सही.’ सच्चई और ईमानदारी उनकी रग-रग में बसी थी. अन्याय के खिलाफ वे आजाद हिंदुस्तान में 50 से भी अधिक दफा जेल गये और आपातकाल में 19 महीने जेल में रहे. सिद्धांतों पर अडिग रहनेवाले कैप्टन अली ने कभी स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन नहीं ली.
खुर्जा, बुलंदशहर और अलीगढ़ की धरती के जाने-माने सपूत कप्तान अब्बास अली का जीवन एक साहसी संवेदनशील और सदैव निराशा से लड़नेवाले कप्तान के रूप में याद रखा जायेगा. ऐसे बहुत कम राजनीतिज्ञ होते हैं, जिनका जीवन इतने अलग-अलग अनुभव से होकर गुजरा होता है और जो भारत की आजादी की जंग में इतना सक्रिय रहा हो कि फांसी की सजा जैसा जुमला केवल सुना ही नहीं, बल्कि उस सजा को अनुभव भी किया.
यदि भारत आजाद नहीं हुआ होता तो यह आजादी का दीवाना, जिसकी बाद में एक समतावादी समाजवादी के रूप में ख्याति हुई, अपने देश के लिए मर मिटता. कैप्टन साहब की पहचान एक अच्छे हिंदुस्तानी के रूप में थी, जिसने पाकिस्तान की मुखालफत की और आधे परिवार के पाकिस्तान चले जाने के बावजूद भी हिंदुस्तान में रहना ही पसंद किया है.
कैप्टन अब्बास अली के जीवन में 23 मार्च तारीख का बहुत महत्व रहा. 1931 में भगत सिंह को फांसी देने का दिन 23 मार्च तय हुआ था. कप्तान साहब तब पांचवी जमात में पढ़ते थे. 26 मार्च को जब भगत सिंह की फांसी के खिलाफ खुर्जा में जुलूस निकला, तो अब्बास अली बुलंद आवाज में अपने साथियों के साथ यह तराना गाते हुए निकल पड़े- भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा, हुकूमत को जलवा दिखाना पड़ेगा, ऐ दरिया-ए-गंगा तू खामोश हो जा, ऐ-दरिया-ए सतलज तू स्याहपोश हो जा, भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा.
इस घटना का जिक्र अब्बास अली जी ने अपनी पुस्तक ‘न रहूं किसी का दस्तनिगर’ (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली) में किया है. 23 मार्च, कप्तान साहब के सबसे प्रिय नेता डॉ राम मनोहर लोहिया का जन्मदिन भी है, जिन्होंने कप्तान साहब को जीवन मंत्र दिया था और कहा था ‘कप्तान, आनेवाली नस्लों के लिए खाद बनो और कप्तान साहब ने लोहिया के ‘वोट, फावड़ा और जेल’ के मंत्र को अपने जीवन में उतार दिया.
अन्याय के खिलाफ वे आजाद हिंदुस्तान में 50 से भी अधिक दफा जेल गये और आपात्काल में 19 महीने जेल में रहे. सिद्धांतों पर अडिग रहनेवाले कैप्टन अली ने कभी स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन नहीं ली, क्योंकि वे मानते थे कि आजादी की जंग में हिस्सा लेना उनकी राष्ट्रीय जिम्मेदारी थी और उन्होंने उसे सिर्फ निभाया.
कैप्टन अब्बास अली भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस के रास्ते चल गांधी-लोहिया-जयप्रकाश की परंपरा के हिस्सा बन गये. वे जिस भी परंपरा के हिस्सा बने, शिद्दत से रहे. वे राजनीति में हिस्सा-मुनाफे से दूर मूल्यों की राजनीति से सरोकार रखते थे, उन्होंने 1956 में समाजवादी पार्टी के जिला मंत्री का ओहदा बखूबी संभाला, तो बाद में उत्तरप्रदेश जनता पार्टी के अध्यक्ष भी बने. वे विधायक भी बने. कई चुनाव लड़े. कई हारे, पर विधायकों को पैसा देकर विधान परिषद में जाने से उन्होंने इनकार कर दिया. हिंदुस्तान का बड़े से बड़ा समाजवादी नेता कैप्टन साहब की इज्जत करता था और उनकी बात ध्यान से सुनता था.
कैप्टन साहब ने बेनी माधव जी और ईश्वरी सिंह जैसे साथियों के साथ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में समाजवाद की आवाज बुलंद की. वे जड़ों से जुड़े हुए ऐसे नेता थे, जिन्हें शिखर तक अपनी बात पहुंचाना आता था.
अन्याय के खिलाफ आवाज उठानेवाले अपने सिद्धांतों और मूल्यों पर जीवन जीनेवाले कैप्टन साहब सक्रिय और सोद्देश्य कामों से जुड़े थे. वे निराशा के खिलाफ थे, वे कहते थे, ‘मायूसी कुफ्र है.
उठो तो सही.’ सच्चई और ईमानदारी उनकी रग-रग में बसी थे. वे समाजवादी विरासत थे, उनके न रहने से एक ऐसा इनसान नहीं रहा, जो अपने देश से मोहब्बत करता था और उसे न्यायप्रिय और शोषणरहित बनाने के लिए पूरी जिंदगी लड़ता रहा.
कप्तान अब्बास अली ने एक महत्वपूर्ण पत्र में देश के युवाओं को लिखा, ‘बचपन से ही अपने इस अजीम मुल्क को आजाद और खुशहाल देखने की तमन्ना थी, जिसमें जात-बिरादरी, मजहब और जवान या रंग के नाम पर किसी तरह का इस्तेहाल न हो. जहां हर हिंदुस्तानी सर ऊंचा करके चल सके, जहां अमीर-गरीब के नाम पर कोई भेदभाव न हो. हमारा पांच हजार साल का इतिहास जाति और मजहब के नाम पर शोषण का इतिहास रहा है.
अपनी जिंदगी में अपनी आंखों के सामने अपने इस अजीम मुल्क को आजाद होते हुए देखने की ख्वाहिश तो पूरी हो गयी, लेकिन अभी भी समाज में गैरबराबरी, भ्रष्टाचार, जुल्म-ज्यादती और फिरकापरस्ती का जो नासूर फैला हुआ है, उसे देख कर बेहद तकलीफ होती है.’ कैप्टन साहब ने सच्चई और ईमानदारी की मशाल युवकों को सौंपी और कहा इस मशाल को कभी बुझने मत देना.
कैप्टन अब्बास अली को कुछ वर्ष पूर्व मुंबई में ऐतिहासिक 9 अगस्त के दिन देखा और सुना था. क्रांति दिवस के दिन समाजवादी विचारों से प्रेरित हो देश बनाने की अपील उन्होंने की. वे आजादी के दिनों के संघर्ष को भूले नहीं थे. कैप्टन साहब ने अंगरेजों के राज में 1943 में जापानियों द्वारा मलाया में युद्ध बंदी के रूप में जनरल मोहन सिंह द्वारा बनायी गयी आजाद हिंद फौज में शामिल होने का निर्णय किया था. 1945 में उन्हें ब्रिटिश सेना ने गिरफ्तार कर 1946 में मुल्तान के किले में रखा.
और कोर्ट मार्शल कर सजा-ए-मौत सुनाई गयी, एक साल बाद भारत आजाद हो गया और कैप्टन अब्बास अली भी. कैप्टन अब्बास गैर बराबरी मिटाने के लिए भी उसी जोश से समाजवादियों के साथ मिल कर लड़े, जैसे नेताजी के साथ होकर अंगरेजों के खिलाफ लड़े.
कैप्टन अब्बास अली भारत के स्वतंत्रचेता समाज की आवाज और आत्मा थे. उनके चले जाने से भारत ने न केवल एक स्वतंत्रता सेनानी खोया है, बल्कि समाजवाद का कैप्टन भी खो दिया.

Next Article

Exit mobile version