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सब कुछ संभाल लेंगे नीतीश

* भाजपा का आगे बढ़ना नीतीश पसंद कर सकते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी का नहीं।। लार्ड मेघनाद देसाई ।।(वरिष्ठ आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषक)मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अभी इतना जल्दी में निर्णय लेने की जरूरत नहीं थी. जदयू ने पहले कहा था कि दिसंबर तक देखेंगे कि भाजपा प्रधानमंत्री का उम्मीदवार किसे घोषित करती है. भाजपा […]

* भाजपा का आगे बढ़ना नीतीश पसंद कर सकते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी का नहीं
।। लार्ड मेघनाद देसाई ।।
(वरिष्ठ आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषक)
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अभी इतना जल्दी में निर्णय लेने की जरूरत नहीं थी. जदयू ने पहले कहा था कि दिसंबर तक देखेंगे कि भाजपा प्रधानमंत्री का उम्मीदवार किसे घोषित करती है. भाजपा की ओर से पीएम पद के उम्मीदवार की अभी घोषणा नहीं हुई थी. लेकिन जब लाल कृष्ण आडवाणी ने इस्तीफा दिया और भाजपा ने उनके इस्तीफे को तरजीह नहीं दी, तो नीतीश कुमार को यह लगा कि अब नरेंद्र मोदी को भाजपा आगे करेगी. स्वाभाविक तौर पर उन्हें यह लगा कि जब आडवाणी की बात को भाजपा के नेता नहीं सुन रहे हैं, तो उनकी बात को कैसे सुनेंगे.

क्योंकि इस तरह की बात जदयू की ओर से भी आडवाणी के इस्तीफा प्रकरण के बाद कही जा रही थी. चुनाव प्रचार अभियान समिति का अध्यक्ष बना कर नरेंद्र मोदी को भाजपा की ओर से एक तरह से ताजपोशी कर दी गयी. इस घटना का जदूय के ऊपर प्रभाव पड़ना लाजिमी था. पहले जदयू में नरेंद्र मोदी को लेकर जो एक धुंधलापन था, वह मोदी को प्रचार अभियान समिति के अध्यक्ष बनाने के बाद साफ हो गया. फिर भी मुझे लगता है कि छह महीने रुक कर ही जदयू को यह निर्णय करना चाहिए था. क्योंकि 2014 के विषय में अभी किसी को कुछ पता नहीं है.

नीतीश कुमार एनडीए से जुड़े जरूर थे, लेकिन वह बिहार की विषम स्थिति को देख कर जुड़े थे. वह राजद को हराने के लिए भाजपा के साथ जुड़े थे.

राष्ट्रीय स्तर पर वह भाजपा का आगे बढ़ना पसंद कर सकते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी को नहीं. यह एक ढंग के विचारधारा की भी बात है. क्योंकि मोदी आडवाणी से ज्यादा सशक्त हिंदुत्ववादी हैं. पहले आडवाणी जी भी थे, लेकिन अब आडवाणी जी मॉडरेट हो गये हैं.
जब दोनों दलों का गंठबंधन टूट ही गया है, तो नीतीश जी को फेडरल फ्रंट के लिए काम करना चाहिए. यदि नीतीश को प्रधानमंत्री बनना है, तो फेडरल फ्रंट में उनकी स्वीकार्यता सबसे ज्यादा होगी. वहां वह नेता बन सकते हैं. यह सही है कि कांग्रेस नीतीश को अपनी ओर मिलाने का या उन्हें साधने का काम जरूर करेगी.

कांग्रेस जदयू को यूपीए-3 में शामिल होने का प्रस्ताव भी दे सकती है. लेकिन अब नीतीश को सोचना होगा कि वह कांग्रेस के साथ जायेंगे या फिर फेडरल फ्रंट के साथ. यह बात कुछ हद तक सही भी हो सकती है कि कांग्रेस के साथ जाने में उन्हें फायदा मिले. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर राजद जिस तरह से कांग्रेस के साथ हर मोरचे पर खड़ी है, उस परिस्थिति में नीतीश कितना खरे उतर पायेंगे, इसमें विरोधाभास है. यह भी सही है कि कांग्रेस को नीतीश बहुत पसंद हैं. यदि नीतीश यह कह दें कि वह कांग्रेस का सहयोग करेंगे, तो एक ओर जहां कांग्रेस खुश होगी, वहीं दूसरी ओर राजद, जदयू का बहुत ज्यादा विरोध नहीं कर पायेगी. तब बिहार में पूरी तरह से यूपीए बनाम भाजपा की लड़ाई हो जायेगी.

गंठबंधन के टूटने का असर बिहार की राजनीति पर ज्यादा नहीं पड़ेगा. लेकिन भाजपा मुख्य विपक्ष की भूमिका निभायेगी, इसलिए भाजपा की ओर से उन्हें परेशान करने का काम भी अब शुरू हो जायेगा. सुशील कुमार मोदी अच्छे वित्त मंत्री साबित हुए हैं और बिहार के विकास को पटरी पर लाने में इनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है. इस तरह से राज्य की राजनीति में नीतीश को थोड़ी परेशानी होगी, लेकिन वह सब कुछ संभाल लेंगे. लेकिन इसके साथ ही केंद्र की राजनीति को ध्यान में रखते हुए खासकर 2014 में क्या होगा, इस पर नीतीश कुमार को यह निर्णय लेना होगा कि वह कांग्रेस के साथ जायेंगे कि फेडरल फ्रंट के साथ.

जहां तक भाजपा का सवाल है, तो भाजपा ने यह तय किया है कि 2014 के आम चुनाव में एक हिंदुत्व वाला चेहरा लोकसभा में उतारा जाये, जो मॉडर्न भी हो, हिंदुत्व की बात भी करता हो और जिसके पास विकास का एजेंडा भी हो. भाजपा का निर्णय विकास और हिंदुत्व का जोड़ है. यह नीतीश को पसंद नहीं है. वह विकास को स्वीकार कर सकते हैं, लेकिन हिंदुत्व को नहीं. अटल बिहारी वाजपेयी जब थे तो वह बहुत ही मॉडरेट थे. लेकिन मोदी के आने के बाद हिंदुत्व को लेकर जो संकेत देश भर में जा रहा है वह नीतीश कुमार को पसंद नहीं है. इसलिए जदयू को यह परेशानी हो रही थी.

नीतीश कुमार जब एनडीए में थे, तो अटल जी प्रधानमंत्री थे और अटल जी मॉडरेट हिंदुत्ववादी थे. तब आडवाणी स्ट्रांग हिंदुत्व वाले थे. आज नरेंद्र मोदी को भाजपा आगे कर रही है जो मॉडरेट हिंदुत्ववादी नहीं, बल्कि स्ट्रांग हिंदुत्ववादी हैं. इसलिए नीतीश एनडीए से अलग हुए हैं. वहीं दूसरी ओर भाजपा का यह मानना कि नरेंद्र मोदी के आने से उत्तर भारत में जो ब्राह्मण, अगड़ी जातियां और शहरी वोट है, वह भाजपा की झोली में आयेगा. लेकिन अभी इसे भाजपा का जुआ ही कहा जा सकता है.

भाजपा को लगता है कि वह 200 से ज्यादा सीट ले लेगी. लेकिन इस पर अभी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी. क्योंकि यदि भाजपा 150 के आसपास रह जाती है, तो फेडरल फ्रंट या नया मोरचा, जिसकी बनने की संभावना जतायी जा रही है, आगे आ जायेगा.
(अंजनी कुमार सिंह से बातचीत पर आधारित)

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