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किसी दल के पास नहीं है विकास का रोडमैप

डॉ आशुतोष कोलकाता विश्वविद्यालय राज्य के गठन से स्थानीय राजनीतिक दलों की सत्ता की महत्वाकांक्षाएं भले ही पूरी हो गयी हों, लेकिन जनता का मिशन पूरा नहीं हुआ है. इसमें सबसे बड़ी बाधा ऊपर से लेकर नीचे तक फैला भ्रष्टाचार है. झारखंड के आगामी विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के लिए बड़ा मौका है, जिसका इस्तेमाल […]

डॉ आशुतोष
कोलकाता विश्वविद्यालय
राज्य के गठन से स्थानीय राजनीतिक दलों की सत्ता की महत्वाकांक्षाएं भले ही पूरी हो गयी हों, लेकिन जनता का मिशन पूरा नहीं हुआ है. इसमें सबसे बड़ी बाधा ऊपर से लेकर नीचे तक फैला भ्रष्टाचार है. झारखंड के आगामी विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के लिए बड़ा मौका है, जिसका इस्तेमाल करते हुए वे राजनीतिक दलों को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं.
झारखंड के निर्माण का सपना बहुत पुराना है. जयपाल सिंह ने इसके लिए लंबा संघर्ष किया था. आमतौर पर लोगों की यह धारणा थी कि संयुक्त बिहार के एक बड़े हिस्से में रह रहे आदिवासी समूह का विकास बिहार के लोगों के साथ नहीं हो सकता.
इसलिए राजनीतिक-सामाजिक चिंतकों की ऐसी धारणा बनी कि आदिवासी बहुल इस क्षेत्र के लिए एक अलग राज्य का गठन किया जाये, ताकि स्थानीय लोगों की जरूरत, भौगोलिक परिवेश, सामाजिक बुनावट के अनुरूप राज्य को गढ़ा जा सके, ताकि नये राज्य में प्रगति हो सके. झारखंड मुक्ति मोर्चा ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया और आगे चल कर इसने एक आंदोलन का रूप ले लिया.
शिबू सोरेन इस आंदोलन में कूदे. लेकिन इतने बड़े क्षेत्र में आंदोलन को विस्तार देने के लिए संसाधन की आवश्यकता थी, क्योंकि बिना संसाधन के लंबे संघर्ष में किसी भी संगठन के लिए टिकना कठिन होता है. संसाधन जुटाने के लिए नेतृत्व को पूंजीपतियों के पास जाना पड़ा. समाज के प्रभावशाली धनी लोगों के जरिये ही आंदोलन के लिए पैसा जुट पाना मुमकिन हो पाया. इसी क्रम में आंदोलन के लिए झारखंड की कंपनियों से पैसा लेने की परंपरा और इसके बदले कंपनियों को प्रश्रय देने की प्रथा शुरू हुई.
इसी पृष्ठभूमि में लंबे संघर्ष के बाद झारखंड को नया राज्य बनने का गौरव प्राप्त हुआ. लेकिन मौके-बेमौके सभी राजनीतिक दल इन कंपनियों और नयी पूंजी द्वारा इस्तेमाल होते गये, और समाज में इनकी छवि धूमिल होती गयी. अब झारखंड निर्माण के समय देखे गये सपने, और लक्ष्य गठन के 14 साल बाद अधूरे रह गये लगते हैं.
कैसे जन-आकांक्षाओं को पूरा किया जाये, इसके रास्ते में आनेवाली बाधाओं को कैसे दूर किया जाये, इसकी चिंता शायद ही किसी राजनीतिक दल को है. प्राकृतिक और आर्थिक रूप से पहले से ही संपन्न होने के बावजूद अगर राज्य अपने साथ बने उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ से पीछे रह गया लगता है, या यह कहें कि अपने मूल राज्य बिहार से भी कई मायने में पीछे रह गया है, तो इसके पीछे के कारणों को समझा जाना बहुत जरूरी है.
झारखंड निर्माण के लिए लंबा संघर्ष चला, लेकिन इस संघर्ष के बाद राज्य को क्या स्वरूप देना है, किस तरह से लोगों का विकास करते हुए प्रदेश के विकास को आगे बढ़ाना है, इसको लेकर कोई रोडमैप नहीं था. इतने वर्षो के बाद आज भी कोई रोडमैप नहीं बनाया गया है. सबका मकसद सिर्फ यही है कि कैसे राज्य में सत्ता को हासिल किया जाये.
सत्ता तक पहुंचने के लिए हर तरीका अपना कर सत्ता सुख भोगा जाये. झामुमो को छोड़ कर कोई भी ऐसा राजनीतिक दल नहीं है, जिसका पूरे प्रदेश में जनाधार हो. अधिकांश दल चाहे क्षेत्रीय हों या फिर राष्ट्रीय, सबका जनाधार सिमटा हुआ है. झारखंड नृजातीय रूप से इतना बंटा हुआ है कि उसको एक साथ लेकर चलना किसी भी राजनीतिक दल के लिए बड़ी चुनौती है. अलग-अलग आदिवासी समूह और इनके बीच अलग-अलग नेताओं के प्रभाव से पूरे प्रदेश को किसी एक मुद्दे पर एकजुट कर पाना काफी मुश्किल होता है. सभी राजनीतिक दलों को मिल कर प्रदेश को आगे बढ़ाने के लिए कॉमन मुद्दा बनाना होगा.
अगर आप भाषायी या क्षेत्रीय आधार पर किसी एक समूह को आगे बढ़ाते हैं, तो दूसरा समूह ठगा हुआ महसूस करता है. राजनेताओं में दूरदृष्टि का तो अभाव तो है ही, झारखंड का बुद्धिजीवी कहा जानेवाला तबका भी अपने स्वार्थ के कारण बंटा हुआ है, और उनकी चिंताएं भी बंटी हुई हैं.
प्रदेश केवल राजनीतिक अस्थिरता से ही नहीं जूझ रहा है, बल्कि इसकी वजह से प्रदेश का विकास भी प्रभावित हुआ है. मजबूत सत्ताधारी दल के अभाव में राज्य में बड़े पैमाने पर एनजीओ फल फूल रहे हैं. कुछ हद तक ईसाई मिशनरियों के जरिये प्रदेश की शिक्षा व्यवस्था ठीक हुई है, लेकिन इनका प्रभाव केवल शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है. उच्च शिक्षा हो या बुनियादी शिक्षा, ग्रामीण क्षेत्रों में कोई बदलाव नहीं दिख रहा है.
नये राज्य के बनने का मतलब केवल इमारतें बनना, विधानसभा बनना नहीं होता, बल्कि आम जनता की उन्नति में विकास का मूल छुपा हुआ होता है. ज्यादातर कॉरपोरेट घरानों ने सामाजिक जवाबदेही के तहत एनजीओ खोल लिये हैं.
इसके तहत उनका दावा होता है कि वे आम जन को प्रशिक्षण दे रहे हैं, लेकिन इन प्रशिक्षणों के जरिये युवाओं को कैसे रोजगार मिले, इस दिशा में कोई ध्यान नहीं है. कौशल विकास के ज्यादातर कार्यक्रम कागजों पर चल रहे हैं. ऐसे एनजीओ बुनियादी बदलाव में सहायक बनने के बजाय लूटतंत्र में भागीदार हैं. आदिवासी समाज में महिलाओं की स्थिति अच्छी होती है. अन्य राज्यों से तुलना करें, तो यहां भी महिला-पुरुष में विभेद नहीं है.
शिक्षा में वे आगे बढ़ रही हैं, लेकिन उनके जीवन स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है. उन्हें काम की तलाश में दूसरे राज्यों में पलायन करना पड़ता है और मानव तस्करी की घटनाओं का शिकार होना पड़ता है.
राज्य के गठन से स्थानीय राजनीतिक दलों की सत्ता की महत्वाकांक्षाएं भले ही पूरी हो गयी हों, लेकिन जनता का मिशन पूरा नहीं हुआ है. इसमें सबसे बड़ी बाधा ऊपर से लेकर नीचे तक फैला भ्रष्टाचार है. झारखंड के आगामी विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के लिए बड़ा मौका है, जिसका इस्तेमाल करते हुए वे राजनीतिक दलों को कटघरे में खड़ा कर सकते हैं.
मतदाताओं को यह सवाल पार्टियों के सामने रखना होगा कि उनके पास राज्य के विकास का क्या रोडमैप है. वैसे, झारखंड के राजनीतिक चरित्र में किसी बदलाव की उम्मीद नहीं दिख रही है. अब सारा दारोमदार और जवाबदेही राज्य की जनता पर है कि वह मतदान की प्रक्रिया में हिस्सेदारी लेते हुए उपलब्ध राजनीतिक विकल्पों में से बेहतर लोगों को अपने प्रतिनिधि के रूप में चुने और उन पर वैकल्पिक राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए दबाव बनाएं. राज्य के बेहतर भविष्य का रास्ता इसी तरह प्रशस्त हो सकता है.
(आलेख बातचीत पर आधारित)
झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड बनने से यह उम्मीद बंधी थी कि विकास की आकांक्षाएं और संभावनाएं बड़े राज्यों के केंद्रीकृत ढांचे से मुक्त होकर स्थानीयता से संचालित होंगी. लेकिन, ऐसा अब तक नहीं हो सका है.
गरीबी निवारण के पैमाने पर ही देखें तो इनमें सिर्फ उत्तराखंड की प्रगति उल्लेखनीय रही. राज्य ने गरीबी में 21.44 फीसदी की कमी की है, जो कि अधिकतर राज्यों से बेहतर है. किंतु, झारखंड और छत्तीसगढ़ में यह आंकड़ा क्रमश: 8.3 और 9.4 फीसदी ही रहा है. विशेष श्रृंखला में गरीबी से संबंधित आंकड़ों पर नजर..

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