स्थानीय स्तर पर बनानी होगी विकास की नीतियां
पूरे देश में एक ही तरह की योजना केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही है, जबकि स्थानीय स्तर पर ही विकास योजनाएं बनाते हुए स्थानीय तकनीक को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. विज्ञान वैश्विक हो सकता है, लेकिन तकनीक को तो स्थानीय होना ही पड़ेगा, तभी स्थानीयता के आधार पर विकास सुनिश्चित हो सकेगा. झारखंड जैसे […]
पूरे देश में एक ही तरह की योजना केंद्र सरकार द्वारा चलायी जा रही है, जबकि स्थानीय स्तर पर ही विकास योजनाएं बनाते हुए स्थानीय तकनीक को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. विज्ञान वैश्विक हो सकता है, लेकिन तकनीक को तो स्थानीय होना ही पड़ेगा, तभी स्थानीयता के आधार पर विकास सुनिश्चित हो सकेगा. झारखंड जैसे राज्यों को कौशल विकास की बहुत जरूरत है.
झारखंड, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़, तीनों राज्यों के गठन के लिए लंबे समय तक संघर्ष चला था. अपेक्षा यह थी कि नया राज्य बनेगा, तो स्थानीय लोगों की प्रगति होगी. लेकिन विकास के पैमाने पर तीनों राज्यों के लोगों की अपेक्षाएं भी अलग-अलग रही होंगी. झारखंड और छत्तीसगढ़, ये दोनों राज्य आदिवासी बहुल हैं. उत्तराखंड पहाड़ी राज्य है, वहां विकास को लक्षित मान कर यदि हम देखते हैं, तो लगता है कि वहां के लोगों के लिए विकास की रूपरेखा अलग है. देश में आज लोग योजनाओं के विषय में भले ही पूरी तरह से अवगत न हों, लेकिन वे अपने अधिकारों के प्रति और उसके जरिये होनेवाले लाभ को लेकर उत्सुक हैं. उन्हें यदि यह जानकारी मिल जाये कि सरकार की तरफ से कोई योजना आयी है या कोई कंपनी उनकी जमीन पर कोई फैक्ट्री लगाना चाहती है, तो वे बढ़-चढ़ कर उसमें से अपना हक मांगते हैं.
पिछले दिनों छत्तीसगढ़ से एक खबर आयी थी कि किसी निजी कंपनी ने किसी गांव की जमीन का अधिग्रहण किया, उस कंपनी द्वारा ग्रामीणों को करोड़ों का मुआवजा दिया गया, लेकिन जिन लोगों ने मुआवजा लिया, उस पैसे से वे कोई उत्पादक कार्य नहीं कर पाये. बल्कि इन करोड़ों की राशि से उन्होंने अपने लिए महंगी-महंगी गाड़ियां खरीदी, गैरजरूरी ढंग से पैसे को खर्च किया और आज वे गुरबत की जिंदगी जी रहे हैं. उनकी जमीन भी गयी और मिले मुआवजे से उनके जीवन में कोई बदलाव भी नहीं आया. ऐसे में सामाजिक बदलाव कैसे आयेगा, या जीवन स्तर में सुधार कैसे आयेगा, इस दिशा में उनकी तरफ से कोई पहल होती नहीं दिख रही है.
अगर झारखंड को देखा जाये तो यहां के लोग इतनी आसानी से बदलाव को तैयार नहीं होते हैं. कुछ हद तक प्रतिरोध करते हैं, सवाल उठाते हैं. अगर सरकार अपनी योजनाओं को अपनी मर्जी से बिना उनकी राय लिये थोपने का प्रयास करती है, तो वे सहज बदलाव के लिए तैयार नहीं होते. सरकार की नीतियों के निर्धारण और कार्यान्यवयन में स्थानीय आवाजों को कोई स्थान नहीं मिलता है. इसलिए जब विकास की प्रक्रिया चलती है, तो आम जन को ऐसा लगता है कि जिम्मेवारी के साथ विकास कार्य नहीं हो रहा है, और लोग अपनी अपेक्षा की पूर्ति के लिए संघर्ष करते हैं. झारखंड के निर्माण के बाद ऐसा लगा था कि अब झारखंड का विकास होगा, लेकिन 14 वर्ष बीत जाने के बाद भी आज भी मानव विकास के विभिन्न मानकों पर इसका लाभ नीचे तक पहुंचता हुआ नहीं दिख रहा है. लोगों को बिना बदले, बदलाव की प्रक्रिया में बिना उन्हें सहभागी बनाये समेकित विकास नहीं हो सकता. हम ऊपर से तय नहीं कर सकते कि लोगों को किस प्रकार का विकास चाहिए. विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए, हाशिये पर बैठे लोगों की आवाज को ऊपर तक पहुंचाने के लिए ही पंचायती राज कानून को लाया गया था. लेकिन आज ऐसा लगता है कि नीचे से आवाज तो आ रही है, लेकिन ऊपर बैठे लोग उसे सुनने को तैयार नहीं हैं. बहुस्तरीय संवाद का मैकेनिज्म विकसित नहीं हो पाया है.
आज झारखंड एक ओर राजनीतिक अस्थिरता से गुजर रहा है, तो वहीं दूसरी ओर कंपनियों की लूट बदस्तूर जारी है. आमतौर पर धारणा है कि यदि निजी कंपनियां प्रदेश में आयेंगी, तो इससे आम जनता को लाभ होगा. लेकिन कोई भी निजी कंपनी या निजी पूंजी कहीं भी निवेश करती है, तो उसका मकसद अपना लाभ कमाना होता है. वह अपने लाभ की कीमत पर कभी भी जन विकास या सामाजिक विकास के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ती. निजी पूंजी ने कभी भी व्यापक स्तर पर क्षेत्र के विकास को प्रभावित नहीं किया है. समग्र विकास के लिए सरकार को खुद प्रयास करने होते हैं. निजी पूंजी निवेशक अधिक से अधिक फायदा कमाने के लिए ही निवेश करता है, जबकि सरकार का सामाजिक दायित्व होता है. झारखंड की सरकारों ने अब तक अपनी जिम्मेवारियों का सही तरीके से निर्वहन नहीं किया है. भ्रष्टाचार और कमजोर सरकारों के कारण ही झारखंड में गरीबी जैसी समस्या जस की तस बनी हुई है. अगर चुनी हुई सरकार स्थायी हो, जनता के विकास के प्रति समर्पित हो, तो वह निजी कंपनियों को उनकी सामाजिक जवाबदेही के तहत या फिर अपनी नीतियों के निर्धारण के जरिये स्थानीय लोगों के हित में काम करती है. लेकिन यदि सरकार खुद ही अस्थिर हो और जोड़-तोड़ के आधार पर एक मात्र मकसद लाभ कमाना और अपना कार्यकाल पूरा करना हो, तो फिर जनता की बेहतरी कैसे हो सकती है. ऐसे में कंपनियों को लाभ होता है और आम जनता विकास के लाभ से वंचित रहती है. लोगों की अपेक्षा रहती है कि सरकार है, तो उनको लाभ पहुंचे, जबकि फायदा सिर्फ कंपनियों को हो रहा है और समाज के एक हिस्से को फायदा पहुंचाते हुए कंपनियां सिर्फ चकाचौंध बांट रही हैं.
पूरे देश में एक ही तरह की योजना सरकार द्वारा चलायी जा रही है. जबकि स्थानीय स्तर पर ही विकास योजनाएं बनाते हुए स्थानीय तकनीक को बढ़ावा दिया जाना चाहिए. विज्ञान वैश्विक हो सकता है, लेकिन तकनीक को तो स्थानीय होना ही पड़ेगा, तभी स्थानीयता के आधार पर विकास सुनिश्चित हो सकेगा. झारखंड जैसे राज्यों को कौशल विकास की बहुत जरूरत है. लेकिन कौशल विकास के नाम पर अगर हम केंद्रीकृत योजनाओं को थोपें, तो यह ठीक नहीं है. स्थानीय कौशल और रोजगार के संसाधनों को बेहतर बनाते हुए उन्हें बाजार से जोड़ कर अधिकाधिक लोगों को रोजगार देने की नीति अपनानी होगी.
झारखंड का स्थानीय समाज और स्थानीय स्तर पर प्राप्त रोजगार, आदिवासियों की समृद्ध परंपरा को खत्म करते जा रहे हैं और इस कुचक्र में देशी-विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को लाभ मिल रहा है. सिर्फ पायलट प्रोजेक्ट के आधार पर नीतियां तय करने की दिशा में जब तक बढ़ते रहेंगे, प्रदेश को कोई लाभ नहीं मिलेगा. उम्मीद यह की जानी चाहिए कि योजनाओं और नीतियों का विकेंद्रीकरण होगा, लेकिन फिलहाल तो हर चीज केंद्रीकरण की ओर बढ़ रही है. आज झारखंड में केंद्र की लगभग सारी योजनाएं संचालित होती हैं. इन योजनाओं के जरिये राज्य में पैसा पहुंच रहा है, लेकिन इनका लाभ नहीं मिल पा रहा है. यदि स्थिर सरकार होती, तो वह कुछेक ऐसे निर्णय जरूर लेती, जिससे कि जनता के विकास और योजनाओं के बेहतर कार्यान्यवयन का मार्ग प्रशस्त होता. इसलिए विधानसभा चुनाव के मुहाने पर खड़े प्रदेश की जनता को इस दिशा में निर्णय लेते हुए स्थायी सरकार चुनने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए.
विवेक उमराव
मुख्य संपादक,
ग्राउंड रिपोर्ट इंडिया