झारखंड का विकास बने सरकार की प्राथमिकता
– डॉ राजीव कुमार-छोटे राज्यों के गठन के पीछे यह सोच रही है कि कम क्षेत्र होने के कारण प्रशासनिक तौर पर इसे सही ढंग से चलाने में आसानी होती है. लेकिन झारखंड की मौजूदा स्थिति इस सोच को खारिज करती दिखती है. दुर्भाग्य की बात है कि झारखंड में संसाधनों की कोई कमी नहीं […]
– डॉ राजीव कुमार-
छोटे राज्यों के गठन के पीछे यह सोच रही है कि कम क्षेत्र होने के कारण प्रशासनिक तौर पर इसे सही ढंग से चलाने में आसानी होती है. लेकिन झारखंड की मौजूदा स्थिति इस सोच को खारिज करती दिखती है.
दुर्भाग्य की बात है कि झारखंड में संसाधनों की कोई कमी नहीं है, लेकिन विकास के मामले में यह देश के पिछड़े राज्यों में शुमार है. यह पिछड़ापन सिर्फ आर्थिक मोरचे पर ही नहीं, बल्कि सामाजिक मोरचे पर भी दिखता है. झारखंड में गठन के बाद से ही कोई स्थिर सरकार नहीं बन पायी है.
अस्थिर और गंठबंधन सरकारों के कारण विकास की बजाय भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है. राष्ट्रीय स्तर पर भी देखा जा चुका है कि गंठबंधन सरकारों के कार्यकाल में आर्थिक नीतियों के क्रियान्वयन के मामले में सुस्ती रही है. यही बात झारखंड पर भी लागू होती है, जहां अस्थिर सरकारों के कारण नीतियां सही तरीके से लागू नहीं हो पायीं. इससे राज्य में न सिर्फ निवेश प्रभावित हुआ, बल्कि विकास पर भी ब्रेक लग गया.
गंठबंधन की सरकारों के दौर में राज्य और यहां के लोगों के आर्थिक विकास पर जोर देने की बजाय, नेताओं और पार्टियों के हित साधने का काम ज्यादा हुआ. यही कारण है कि प्राकृतिक एवं मानव संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद झारखंड का अपेक्षित विकास नहीं हो पाया और नये राज्य के गठन का सपना अधूरा सा दिख रहा है.
एक विकसित राज्य बनने के लिए स्थिर सरकार के साथ ही यह भी जरूरी है कि सरकारी नीतियों में समय के साथ मनमाने तरीके से बदलाव नहीं हो. साथ ही नीतियों के क्रियान्वयन में किसी तरह की राजनीति नहीं होनी चाहिए. विकास को दलगत चश्मे से बाहर निकल कर देखना चाहिए. लेकिन दुर्भाग्य है कि राज्य गठन के बाद से ही झारखंड की सरकारों की प्राथमिकता में विकास नहीं रहा, जबकि यहां विकास की अपार संभावनाएं हैं.
विकास का मतलब सिर्फ सरकारी योजनाओं का सफल क्रियान्वयन नहीं होता है. विकास के लिए निजी पूंजी निवेश, रोजगार के मौकों का सृजन और आम लोगों की आय का बढ़ना बेहद जरूरी होता है. झारखंड में लचर सरकारों और नक्सल समस्या के कारण निवेश का माहौल खराब ही होता चला गया.
यहां की सरकारों ने सिर्फ दिखावे के लिए हजारों करोड़ रुपये के एमओयू पर हस्ताक्षर किये, लेकिन इसे जमीनी स्तर पर उतारने के लिए कोई काम नहीं किया. विकास के प्रति सरकारों की उदासीनता और आर्थिक नीतियों में स्पष्टता नहीं होने के कारण अधिकांश एमओयू सिर्फ फाइलों तक सिमट कर रह गये.
यही नहीं, लचर प्रशासन के कारण सरकारी कामकाज पर भी असर पड़ा. सरकारी योजनाओं का क्रियान्वयन सही तरीके से नहीं हो पाया. आखिर क्या वजह है कि झारखंड में नक्सल समस्या पहले के मुकाबले गंभीर हुई है. मेरा मानना है कि आर्थिक तरक्की से सामाजिक समस्याओं का समाधान करने में काफी सहायता मिलती है.
सरकारों की दिशाहीनता के कारण न सिर्फ राज्य में बेरोजगारी बढ़ी, बल्कि पलायन में भी तेजी आयी. शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी को दूर करने के गंभीर प्रयास नहीं किये गये. जबकि झारखंड के साथ बने राज्यों छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड ने सामाजिक और आर्थिक मोरचे पर अधिक तरक्की की है.
आर्थिक विकास कई तरह की संभावनाओं को जन्म देता है. आर्थिक गतिविधियों में तेजी आने से न सिर्फ रोजगार के मौके सामने आते हैं, बल्कि आम लोगों की आय में भी बढ़ोतरी होती है. आर्थिक सशक्तीकरण से लोगों के सामाजिक सशक्तीकरण को मजबूत आधार मुहैया कराने में मदद मिलती है. लेकिन झारखंड दोनों मोरचे पर पीछे छूट गया. इसके लिए वहां का राजनीतिक नेतृत्व जिम्मेदार है. आज भी राज्य के ऐसे कई इलाके हैं, जहां बिजली, सड़क और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं से लोग वंचित हैं.
जिन उद्देश्यों के लिए राज्य का गठन किया गया, वह पूरा नहीं हो पाया है. इससे साफ जाहिर होता है कि विकास के लिए संसाधनों से अधिक राजनीतिक दूरदर्शिता महत्वपूर्ण होती है. झारखंड में इसका अभाव रहा है और इसका खामियाजा वहां के लोगों को उठाना पड़ा है.
राजनीतिक अस्थिरता और दूरदर्शिता की कमी के कारण संसाधनों की उपलब्धता के बावजूद झारखंड देश के पिछड़े राज्यों की कतार में खड़ा है. राजनीतिक अस्थिरता और लचर कानून-व्यवस्था के कारण ही झारखंड में न सिर्फ औद्योगिक क्षेत्र, बल्कि कृषि क्षेत्र में भी काफी पिछड़ गया है. झारखंड को एक ऐसे नेतृत्व की जरूरत है, जो विकासोन्मुखी नीतियों को लागू कर निराशा के इस माहौल को दूर कर सके.(आलेख बातचीत पर आधारित)