राज्य के नेताओं में नैतिकता की रही कमी
झारखंड गठन को लेकर लंबा आंदोलन चला और अंतत: 15 नवंबर 2000 को एक नया राज्य बनने में सफल हुआ. अलग राज्य के गठन के पक्ष में तर्क दिया जाता रहा कि इससे विकास को नयी गति मिलेगी और गवर्नेस बेहतर होगा. लेकिन झारखंड के 14 वर्षो के सफर पर गौर करें तो ये तर्क […]
झारखंड गठन को लेकर लंबा आंदोलन चला और अंतत: 15 नवंबर 2000 को एक नया राज्य बनने में सफल हुआ. अलग राज्य के गठन के पक्ष में तर्क दिया जाता रहा कि इससे विकास को नयी गति मिलेगी और गवर्नेस बेहतर होगा. लेकिन झारखंड के 14 वर्षो के सफर पर गौर करें तो ये तर्क बेमानी लगते हैं. ऐसा लगता है कि राज्य के विकास को लेकर सत्ताधीशों की नीयत सही नहीं रही है और अलग राज्य बनाने का मकसद सिर्फ सत्ता हासिल करने की सोच थी.
झारखंड बनने के शुरुआती कुछ वर्षो में विकास के कुछ काम हुए. उसके बाद किसी प्रकार सत्ता हासिल करने का खेल चला. यही वजह है कि महज 14 वर्षो में राज्य में 9 मुख्यमंत्री बने. राजनीतिक अस्थिरता के कारण राज्य में न सिर्फ विकास प्रभावित हुआ, बल्कि भ्रष्टाचार की जड़ें गहरी होती गयीं. बड़े राज्यों में मुख्यमंत्री बनना मुश्किल होता है, लेकिन छोटे राज्यों में कुछ विधायकों का साथ लेकर सरकार बनाने और गिराने का खेल आसानी से खेला जा सकता है. झारखंड में इसका प्रयोग बखूबी किया गया.
संसाधनों की उपलब्धता का उपयोग विकास की बजाय सत्ता हासिल करने में किया गया. राज्य के नताओं में नैतिकता की कमी साफ तौर पर दिखी. अकसर देखा जाता है कि जहां सरकारें कमजोर होती हैं, वहां सिविल सोसाइटी सक्रिय भूमिका निभाता है. झारखंड में सिविल सोसाइटी कमजोर रही है. ऐसे में सरकार की नाकामियों के खिलाफ आंदोलन करनेवाला कोई भी नहीं रहा. ऐसे में मीडिया की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है. लेकिन मीडिया की अपनी सीमा है. मीडिया सरकार की नाकामियों को तो उजागर कर सकता है, लेकिन वह आंदोलन नहीं कर सकता है. झारखंड में भ्रष्ट सरकारों ने सिविल सोसाइटी को भी भ्रष्ट बना दिया. इससे सरकार और आम लोगों के बीच संवाद की कड़ी ही खत्म हो गयी. इस संवादहीनता ने राज्य में राजनीतिक भ्रष्टाचार को और बढ़ा दिया. मंत्रियों और विधायकों और यहां तक कि मुख्यमंत्री पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे. इससे भी झारखंड की छवि पर नकारात्मक असर पड़ा.
झारखंड में राजनीतिक अस्थिरता के कारण न सिर्फ भ्रष्टाचार बढ़ा, बल्कि नक्सल समस्या भी गंभीर होती चली गयी. सरकारों के पास इस समस्या के समाधान के लिए कोई स्पष्ट नीति नहीं दिखी. कोई भी उग्रवादी आंदोलन बंदूक के सहारे नियंत्रित नहीं किया जा सकता है. नक्सल समस्या का समाधान भी लोगों का विकास कर ही संभव है. इसके लिए स्थानीय लोगों की जरूरतों के लिहाज से विकास कार्य को अंजाम दिया जाना चाहिए. लेकिन आज भी राज्य के कई इलाके ऐसे हैं, जहां बुनियादी सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं हैं. वहां शासन की पहुंच नहीं है. जबकि विकास योजनाओं के नाम पर हर साल करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं, लेकिन धरातल पर हालात जस के तस बने हुए हैं. अन्य राज्यों से तुलना करें, तो सामाजिक और आर्थिक मोरचे पर झारखंड काफी पिछड़ा दिखता है. शिक्षा, स्वास्थ्य के मामले में भी राज्य काफी पीछे हैं.
गरीबों की संख्या आबादी के लिहाज के काफी अधिक है. आदिवासी बहुल राज्यों- ओड़िशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, झारखंड और अन्य राज्यों के लिए जनजातीय विकास मंत्रलय बनाया गया. लेकिन आज भी ये विकास की मुख्यधारा से नहीं जुड़ पाये हैं. यही वजह है कि यहां पलायन भी एक बड़ी समस्या है. मेरा मानना है कि सत्ताधारियों के समक्ष राज्य के सामाजिक और आर्थिक विकास की कोई दीर्घकालिक योजना नहीं थी. यही वजह रही कि प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद राज्य की पहचान एक असफल राज्य के रूप में बनती चली गयी. अस्थिर सरकारों के कारण गवर्नेस के स्तर में गिरावट आयी. प्रशासनिक सुधार जैसे कदम उठाये जाने की बात भी बेमानी लगने लगी. ऐसे में आम लोगों का भरोसा शासन के प्रति कम होने लगा.
इस विश्वास की कमी के कारण झारखंड में माओवाद का प्रभाव बढ़ा. लेकिन बदले हालात और लोगों में बढ़ी जागरुकता के बीच उम्मीद है कि आनेवाले चुनाव के बाद राज्य में एक स्थिर सरकार का गठन होगा. साथ ही नयी सरकार लोगों की आकांक्षाओं और उम्मीदों को पूरा करने की दिशा में सार्थक पहल करेगी. इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूरदर्शी नेतृत्व बहुत जरूरी है.
(बातचीत पर आधारित)