भारत प्रशासित कश्मीर में गांदरबल ज़िले के कुछ गांवों में पख़्तून बहुल आबादी रहती है.
बहुत पहले ही अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान से आकर यहां बसे लोग अपनी भाषा, परम्पराओं और रहन-सहन को लेकर काफ़ी सतर्क हैं.
कश्मीर में मतदान के दौरान भी यहां महिलाएं घर से नहीं निकलीं. पुरुषों का कहना है कि महिलाओं को घर से निकलने की मनाही है और कुछेक बार तो पुरुषों ने ही महिलाओं के मत डाले थे.
हाज़िक क़ादिर एवं क़ादिर इंज़माम की रिपोर्ट
सरकारी मिडिल स्कूल में बने मतदान केंद्र के बाहर दो लंबी कतार में लोग मत डालने के इंतज़ार में हैं.
शीत की कंपकंपाने वाली सुबह और कुहासे के बावजूद गांदरबल ज़िले के गांव में लोग सुबह आठ बजे से मतदान के शुरू होने का इंतज़ार कर रहे हैं.
ये लोग अपनी पहचान और संस्कृति में बाक़ी कश्मीरियों से अलग हैं. हालांकि कश्मीर घाटी में ये बीते साठ साल से रह रहे हैं. ये लोग मूल रूप से अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के पख़्तून इलाके से हैं और वहां से आकर कश्मीर में बसे हैं.
गांदरबल ज़िले से 15 किलोमीटर दूर छोटे-छोटे गांवों का समूह है, जहां अफ़ग़ान और पाकिस्तानी मूल के लोगों के घर हैं जो पश्तो में बात करते हैं. पश्तो पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के कबीलाई इलाकों में बोले जाने वाली भाषा है.
महिलाओं पर मनाही
अब दोपहर का वक्त हो चला है, लेकिन मतदान केंद्र के बाहर लोग अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हैं. लेकिन मतदान केंद्रों के आस-पास कोई महिला नज़र नहीं आती. मतदान केंद्र के एक अधिकारी ने बताया कि सुबह से कोई महिला मत डालने नहीं आई है.
मतदान केंद्र के बाहर मौजूद पश्तों में बात करने वाले कुछ लोगों ने बताया कि गांव की महिलाओं को मत डालने का अधिकार नहीं है.
पख़्तून मूल के पुरुष पारंपरिक तौर पर सलवार कमीज पहनते हैं और सिर को पारंपरिक अफ़ग़ान टोपी से ढकते हैं, जिसे पखोल कहते हैं. ये लोग आपस में पश्तो में बात कर रहे हैं, लेकिन महिलाएं अपने घरों में पर्दे के अधीन ही रहती हैं.
अपने घरों से बाहर नहीं निकलतीं. ये इलाका अफ़ग़ानिस्तान की तालिबानी संस्कृति की याद दिलाने वाला है. यहां सब कुछ अफ़ग़ान तरीके का नज़र आता है और इन परंपराओं की जड़ अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी होती हैं.
परंपरा
करीब साठ साल के जमील ख़ान बताते हैं कि वे अपने पारंपरिक मूल्यों से समझौता नहीं कर सकते. मतदान केंद्र से बाहर निकलते हुए उन्होंने बताया, "हम अपने घरों की महिलाओं को बाहर नहीं निकलने देते. ये हमारी परंपरा के ख़िलाफ़ है."
हालांकि जमील कहते हैं कि अगर अधिकारियों ने महिलाओं के लिए अलग मतदान केंद्र की व्यवस्था की होती तो कुछ महिलाएं मत डाल सकती थीं. बीते चुनाव में, पुरुष ही कभी-कभी अपने घर की महिलाओं के मत डाल देते थे, लेकिन इस बार अधिकारियों ने उन्हें इसकी इज़ाजत नहीं दी है.
कश्मीर के दूसरे हिस्सों में मतदान को लेकर ज़्यादा उत्साह नहीं है, लेकिन यहां घाटी के दूसरे हिस्सों के मुक़ाबले मतदान प्रतिशत ज़्यादा होता है. गांदरबल ज़िले के तुमुल्ला में अधिकांश लोगों ने मतदान का बहिष्कार किया है.
हकीम सनोबर ख़ान प्राकृतिक चिकित्सक हैं और पठानों में उनकी बड़ी ख़्याति है.
युवा पीढ़ी
सालों से यहां चुनाव से पहले सामुदायिक स्तर की बैठक में फ़ैसला होता है कि पख़्तून मत डालेंगे या नहीं. इसी बैठक में ये भी तय हो जाता है वे किन लोगों का समर्थन करेंगे.
हकीम सनोबर ख़ान कहते हैं, "हम बैठक में तय बातों का पालन करते हैं. हम अपने बड़ों और उनके फ़ैसलों का बड़ा सम्मान करते हैं."
इन बैठकों में चुनाव के अलावा लोगों की शिकायतें और जनकल्याण के मुद्दों पर भी फ़ैसले होते हैं.
60 साल के मोहम्मद तायूब ख़ान कहते हैं, "कुछ साल पहले, आप गांव में आने की हिम्मत नहीं कर पाते. कश्मीर के बाहर के लोगों के यहां आने में पाबंदी थी, लेकिन अब बदलाव की शुरुआत हो चुकी है. गांव की कुछ लड़कियों ने कॉलेज जाना भी शुरू किया है, लेकिन ये संख्या इतनी बड़ी नहीं है कि हमारी परंपराएं और मूल्यों में गिरावट आए."
सममस्या की अनदेखी
गांव के बड़े बुजुर्ग जहां अपनी मूल्यों और परंपराओं को बचाने की कोशिशों में जुटे हैं वहीं युवा पीढ़ी के सामने बदलते समय में इसे क़ायम रखने की चुनौती है.
हालांकि ये सवाल भी बाक़ी है कि जम्मू-कश्मीर में आने वाली नई सरकार क्या पख़्तूनों की समस्याओं की ओर ध्यान देगी. इन लोगों की शिकायत ये है कि हर सरकार इनकी अनदेखी करती आई है.
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