– 1970 के दशक के आखिर से 80 के दशक के मध्य तक जो फिल्में बनी हैं, वे कुछ खास नहीं थीं
– फिल्में ‘रंग दे बसंती’ की तरह होनी चाहिए, जो मनोरंजन के साथ-साथ जिंदगी को एक मकसद भी दें
भारतीय फिल्मों की शताब्दी हम सभी के लिए बहुत बड़ा दिन है. सिर्फ हिंदी फिल्मों के लिए ही नहीं, रीजनल सिनेमा के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि का दिन है. यह बात समझनी होगी कि आज सिर्फ हिंदी सिनेमा के सौ साल पूरे नहीं हुए, बल्कि पूरा भारतीय सिनेमा इस कसौटी पर खरा उतरा है.
जिस तरह से हमारे सिनेमा ने 100 सालों में विश्व सिनेमा के बीच अपनी एक अलग पहचान बनायी है, वह काबिल-ए-तारीफ हैं. यह संयोग ही है कि जब भारतीय सिनेमा ने 100 साल पूरे किये हैं, इंडस्ट्री में मेरे भी 25 साल हाल ही में पूरे हुए हैं.
मुङो गर्व है कि मेरा 25 साल का फिल्मी कैरियर भी इन सौ वर्षो का छोटा-सा हिस्सा है. जबसे मुङो सिनेमा की समझ हुई है, मैंने देखा है कि यह लगातार बदलाव के दौर से गुजरा है. अभिनेता बनने से पहले 18 वर्ष की उम्र में मैंने बतौर असिस्टेंट डायरेक्टर अपने फिल्मी कैरियर की शुरुआत की थी.
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तब से अब तक कई तरह के बदलाव हुए हैं. पहले जहां फिल्में एक ही शूटिंग शेड्यूल में पूरी हो जाती थीं, वहीं ‘लगान’ से यह ट्रेंड बदल गया है. फिल्म इंडस्ट्री अब काफी प्रोफेशनल हो गयी है. अक्सर लोग कहते हैं कि मौजूदा दौर में वैसी फिल्में नहीं बनती, जैसी पहले बनती थीं.
लेकिन, मैं इस बात को नहीं मानता. आज इंडस्ट्री में बहुत प्रतिभाशाली लोग हैं. बीते दो-तीन दशक पर नजर डालें, तो आज इंडस्ट्री पहले से बेहतर कर रही है. खासकर 1970 के दशक के आखिर से 80 के दशक के मध्य तक जो फिल्में बनी हैं, वे कुछ खास नहीं थीं. डिस्को डांसर, कसम पैदा करनेवाले की, अमर अकबर एंथोनी, जला कर राख कर दूंगा..
ये फिल्में भले ही सुपरहिट रही थीं, लेकिन ये खास फिल्में नहीं थीं. फिल्म खास तब होती है, जब दिल में बस जाये. जो जिंदगी को बदल सकने का माद्दा रखती हो, वही सही मायने में खास फिल्म है. लगे रहो मुन्नाभाई, थ्री इडियट्स और लगान को मैं इसी कैटेगरी की फिल्म कहूंगा.
हमारे दौर की फिल्म ‘हम आपके हैं कौन’ ने अच्छी कमाई की थी, लेकिन सही मायनों में वह संकीर्ण विचारधारा को दर्शाती थी. फिल्में ‘रंग दे बसंती’ की तरह होनी चाहिए, जो मनोरंजन के साथ-साथ जिंदगी को एक मकसद भी दे. ऐसी ही फिल्में 1950 के दशक की हुआ करती थी.
वह दौर हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम दौर था. तब अच्छे एक्टर, डायरेक्टर, लेखक, गीतकार से लेकर फिल्म से जुड़ा हर छोटा बड़ा शख्स प्रतिभा का धनी था. हर तरफ टैलेंट था, इसलिए तो प्यासा, मदर इंडिया, साहेब बीवी और गुलाम जैसी फिल्में बनती थीं. ये ऐसी फिल्में हैं, जिन्होंने कितनी कमाई की या कितने हफ्ते तक सिनेमाघरों में रहीं, ऐसी बातें हमें याद नहीं है.
याद है, तो सिर्फ इन फिल्मों की कहानी और कहानी कहने का ढंग. यही सिनेमा का मतलब है. मौजूदा दौर में सिर्फ करोड़ों के बिजनेस की बातें हो रही हैं. देखा जाता है कि फलां फिल्म ने यह आंकड़ा छू लिया, तो फलां ने नहीं. किस फिल्म ने दिल को छुआ, हम इसकी बात क्यों नहीं कर रहे हैं?
मौजूदा दौर में भी कहानी को अलग ढंग से पेश करनेवाले कई जानकार हैं, जिन्होंने सिनेमा को नये ढंग से परिभाषित किया है. आज भी सामाजिक और ऐतिहासिक फिल्में बीते दौर की तरह ही बन रही हैं, लेकिन जिस चीज की कमी मुङो नजर आती है, वह है मासूमियत. ‘तेरे घर के सामने’ और ‘तीसरी मंजिल’ जैसी फिल्मों को देखते हुए हम जो मासूमियत और भोलापन पाते थे, वह आज की फिल्मों से नदारद है. मैं और शम्मी अंकल अक्सर इस बात पर चर्चा करते थे.
उम्मीद है कि हम सभी मिल कर इसके पीछे की वजह को ढूंढ़ लेंगे और आनेवाले समय में ऐसी फिल्में भी दर्शकों को देंगे. कुल मिला कर अभी हमें बहुत लंबी दूरी तय करनी है. यह तभी संभव हो पायेगा, जब हम जुनून के साथ काम करेंगे.
प्रस्तुति : उर्मिला कोरी
आमिर खान
(अभिनेता, निर्माता, निर्देशक)