21.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

आतंक का गढ़ व निशाना पाकिस्तान

पेशावर में आतंकवादियों द्वारा 132 बच्चों समेत 148 लोगों की नृशंस हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है. इस भयावह नरसंहार ने जहां आतंकवाद के क्रूर अमानवीय चेहरे को एक बार फिर बेनकाब किया है, वहीं आतंक के प्रति पाकिस्तान की सरकार और सेना के रवैये पर भी सवालिया निशान लगाया है. बीते तीन […]

पेशावर में आतंकवादियों द्वारा 132 बच्चों समेत 148 लोगों की नृशंस हत्या ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया है. इस भयावह नरसंहार ने जहां आतंकवाद के क्रूर अमानवीय चेहरे को एक बार फिर बेनकाब किया है, वहीं आतंक के प्रति पाकिस्तान की सरकार और सेना के रवैये पर भी सवालिया निशान लगाया है. बीते तीन दशकों से पाकिस्तान आतंकियों की आड़ में अफगानिस्तान और भारत के खिलाफ एक तरह का छद्म युद्ध लड़ रहा है. अरब और मध्य एशिया समेत दुनिया भर की आतंकी वारदातों के सूत्र पाकिस्तान में सक्रिय आतंकी गिरोहों से जुड़ते रहे हैं. वैसे तो आतंकवाद के विरुद्ध वैश्विक युद्ध में पाकिस्तान भी शामिल है, लेकिन कुछ गिरोहों और चरमपंथी संगठनों को वह खुलेआम शह भी देता रहा है. इस हकीकत के मुख्य पहलुओं को सामने लाती यह विशेष प्रस्तुति..

तहरीक-ए-तालिबान का नेतृत्व

मौलाना फजलुल्लाह

हकीमुल्लाह महसूद के एक ड्रोन हमले में मौत के बाद तहरीक-ए-तालिबान का मुखिया बना फजलुल्लाह एक ऐसे समय में इस गिरोह का संचालन कर रहा है, जब इसमें 2013 के नवंबर में महसूद की मौत के बाद कई फाड़ हो चुके हैं. फजलुल्लाह स्वात घाटी के तहरीक इकाई का संस्थापक रहा है और उसने 2007 से 2009 तक स्वात घाटी में अपनी हुकूमत चलायी है. इसे गिरोह का मुखिया बनाने को लेकर आंतरिक मतभेद रहा है. इसके कार्यकाल के दौरान महसूद कबीलाइयों में आपसी हिंसक टकराव होते रहे हैं और कई बड़े लड़ाकों के इसलामिक स्टेट के प्रति निष्ठा दिखाने से भी आपसी कलह का माहौल बढ़ा है. इन आपसी झड़पों और पाकिस्तानी सेना की जोरदार कार्रवाइयों के कारण अपना वजूद बचाने की कोशिश में लगे तहरीक ने बड़े हमले करने की कोशिश की है. मोहम्मद खुरासानी इस फजलुल्लाह का मुख्य प्रवक्ता है.

हकीमुल्लाह महसूद (2009-2013)

हकीमुल्लाह अगस्त, 2009 में अपने पूर्ववर्ती बैतुल्लाह महसूद के एक अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे जाने के बाद गिरोह का मुखिया बना था. इसकी मौत भी एक नवंबर, 2009 को अमेरिकी ड्रोन हमले में हुई थी.

बैतुल्लाह का नजदीकी सहयोगी रहे हकीमुल्लाह ने कम उम्र का होते हुए भी खैबर के कबीलाई ईलाके में अफगानिस्तान में तैनात नाटो सेनाओं के खाफिले पर हमलों की साजिश रची थी. तहरीक-ए-तालिबान के प्रमुख के रूप में उसने पाकिस्तानी राज्य को अपना मुख्य निशाना बनाना शुरू किया और नाटो के खिलाफ कार्रवाईयों को सीमित कर दिया.

अमेरिका ने इसके सर पर पांच मिलियन डॉलर का ईनाम रखा था.

इसके मुख्य प्रवक्ता आजम तारिक, शहीदुल्लाह शाहिद और अहसानुल्लाह अहसान थे. इसका सबसे नजदीकी सहयोगी वली-उर रहमान 29 मई, 2013 को ड्रोन हमले में मारा गया. वह दक्षिण वजीरिस्तान के तहरीक ईकाई का भी मुखिया था. एक अन्य उप-प्रमुख लतीफ महसूद सितंबर, 2013 में गिरफ्तार किया गया.

बैतुल्लाह महसूद (2007-2009)

दक्षिण वजीरिस्तान में 23 अगस्त, 2009 को अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया बैतुल्लाह तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान का संस्थापक था और उसने कई सरकार-विरोधी गिरोहों को एक गिरोह के बैनर तले संगठित किया था. बैतुल्लाह की सरपरस्ती में तहरीक ने पाकिस्तान के सरकारी ठिकानों और नागरिकों के खिलाफ अनगिनत हमले किये. साथ ही, वह पाकिस्तानी सरकार के साथ कई दौर की बातचीत में भी शामिल रहा था.

2009 के अगस्त में इसका एक प्रवक्ता मौलवी उमर और सितंबर में दूसरा प्रवक्ता मुस्लिम खान हिरासत में लिये गये थे. अन्य प्रमुख लड़ाकों में शामिल कारी हुसैन अक्तूबर, 2010 में, कारी जैनुददीन महसूद जून, 2009 में और मौलवी मुहम्मद इफ्तिखार अक्तूबर, 2011 में मारे गये थे.

नेक मोहम्मद

सोवियत सेनाओं के विरुद्ध युद्ध में बड़ी भूमिका निभानेवाला नेक मोहम्म्द दक्षिण वजीरिस्तान में एक गिरोह का संचालक था. वह अफगानिस्तान में तालिबान का भी कमांडर रहा था. वजीरिस्तान में सक्रिय उसका गिरोह विदेशी आतंकियों को पनाह देता था. वह जून, 2004 में एक ड्रोन हमले में मारा गया था और उस समय वह तहरीक-ए-तालिबान की स्थापना की कोशिश में लगा हुआ था.

सेना के ‘जर्ब-ए-अज्ब’ की सीमाएं

प्रकाश कुमार रे

इस वर्ष 8 जून को तहरीक-ए-तालिबान द्वारा कराची हवाई अड्डे पर हुए आतंकी हमले के बाद पाकिस्तानी सेना ने 15 जून से फाटा क्षेत्र के उत्तरी वजीरिस्तान इलाके में जर्ब-ए-अज्ब ऑपरेशन की शुरुआत की थी. हालांकि इस ऑपरेशन को पाकिस्तान में व्यापक समर्थन मिला और सेना को कुछ हद तक इसमें सफलता भी मिली, लेकिन लगातार हो रहे आतंकी हमलों ने इस कार्रवाई पर सवाल भी खड़ा कर दिया है.

पाकिस्तान की सरकार और समाज में यह आम धारणा है कि देश के एक हिस्से में आतंकवादी बसते हैं और सेना को वहां भेज कर आतंक का सफाया किया जा सकता है. यह सही है कि फाटा क्षेत्र पाकिस्तानी और विदेशी आतंकवादियों की शरणस्थली है और यहां से ये न सिर्फ पाकिस्तान में, बल्कि अफगानिस्तान में भी सक्रिय होते रहते हैं. यह भी सही है कि आतंकियों के खिलाफ ठोस सैनिक अभियान जरूरी है और जर्ब-ए-अज्ब की सफलता पर पाकिस्तान में आतंक का भविष्य निर्भर करेगा.

इस ऑपरेशन का मुख्य उद्देश्य तहरीक-ए-तालिबान को खत्म करना है. यही इसकी असफलता का आधार होता है. पाकिस्तानी सरकार और सेना आतंकियों में अंतर इस आधार पर करते हैं कि कौन उसके खिलाफ खड़ा है और कौन उसके अफगानिस्तान और भारत में आतंक फैलाने के मंसूबे में मददगार हैं. इसी आधार पर जर्ब-ए-अज्ब महज पाकिस्तानी तालिबान के खिलाफ चलाया जा रहा है, लश्कर-ए-तैयबा या हक्कानी नेटवर्क के खिलाफ नहीं. हाल में प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के सलाहकार कह रहे थे कि जो आतंकी गिरोह पाकिस्तान के विरुद्ध नहीं हैं, उनके खिलाफ सरकार कार्रवाई नहीं करेगी. इसी तरह भले तालिबान और बुरे तालिबान का तर्क दिया जाता है. इस व्यावहारिक विसंगति के साथ-साथ पाकिस्तानी नेतृत्व ने इस सच को भी अनदेखा किया है कि आतंक एक विचारधारात्मक सोच की पैदाइश है और कुछ आतंकियों को मार देने भर से इस समस्या का समाधान संभव नहीं है. चरमपंथी इसलाम की समझ के खिलाफ वैचारिक प्रतिवाद प्रस्तुत करने में पाकिस्तान असफल रहा है. आतंक के विरुद्ध बोलनेवाले समूहों को सरकार सुरक्षा नहीं दे सकी है.

दूसरी रणनीतिक गलती यह है कि एक तरफ तो आतंकियों के सुरक्षित ठिकानों को तबाह करने की बात की जा रही है, लेकिन कट्टरपंथी धार्मिक सोच का प्रचार-प्रसार करनेवाले मुल्लाओं और संगठनों को खुलेआम जहर फैलाने की आजादी मिली हुई है. जर्ब-ए-अज्ब ऑपरेशन के कमांडर मेजर जनरल जफरुल्लाह खान ने पिछले महीने दावा किया था कि वजीरिस्तान के 90 फीसदी हिस्से से आतंकियों का सफाया कर दिया गया है, पर कई महीनों से पाकिस्तानी तालिबान पाकिस्तान के विभिन्न हिस्सों में कहर बरपा रहा है. 1200 से अधिक आतंकियों को मार गिराने में सेना को मिली कामयाबी उल्लेखनीय है, लेकिन जरूरत अब यह है कि पाकिस्तानी सरकार और सेना आतंक को एक ही चश्मे से देखना शुरू करे.

पाकिस्तान का शत्रु उसका सच से इनकार

आतंकवादी गुटों के पाकिस्तानी सरजमीं पर संचालन की छूट देने वाली नीति अनर्थकारी साबित हुई है. जेहादी उग्रवादी, वैश्विक, क्षेत्रीय व स्थानीय संघर्ष में भेद नहीं मानते. एक बार उन्होंने यदि अपनी कारगुजारियों को अपने मकसद के लिए उचित मान लिया तो वे कहीं भी लड़ने और अपने को उड़ा देने को तत्पर हो उठते हैं.

पिछले कुछेक दशकों से पाकिस्तान आतंकवाद तथा आतंकवादियों का आदी हो चुका है. लेकिन मंगलवार को पेशावर में तालिबान द्वारा की गयी स्कूली बच्चों की हत्या बर्बरता का अभूतपूर्व कृत्य है, जिसने विषाद और क्षोभ का ऐसा वातावरण पैदा किया है, जिसे बनाने में पूर्व में हुए होटलों, मसजिदों और सैन्य मुख्यालयों पर हमले भी नाकाम रहे थे.

लेकिन क्या पाकिस्तान पेशावर स्कूल हमले से सबक लेकर अपने उस राष्ट्रीय रवैये में बदलाव लायेगा, जिसने हमें इस मुकाम तक पहुंचा दिया है? या कि अपनी नीतियों में बगैर किसी अहम बदलाव के अपना वही रवैया बहाल रखेगा, जैसा कि पूर्व की त्रसदियों के बाद किया था? 16 दिसंबर का हमला लंबे समय से गलत राह पर चली आ रही राष्ट्रीय नीति का नतीजा है. इसे एक दीर्घकालीन नयी नीति के जरिये ही बदला जा सकता है.

जेहादवाद से पाकिस्तान के अभागे मोह का मूल इस धारणा में छिपा है कि पाकिस्तान के अस्तित्व को भारत से खतरा है. छह दशकों से चली आ रही इस असुरक्षा के कारण पाकिस्तानियों की गहरी चाह प्रतिष्ठा तथा ताकत को लेकर भारत की बराबरी की रही है. एक ऐसे देश से बराबरी, जो आकार में उससे कहीं छह गुना बड़ा है और समृद्धि की राह पर अग्रसर है. मौजूदा संदर्भ में 1947 में हुए विभाजन तथा द्वि-राष्ट्र सिद्धांत पर विवाद बहुत प्रासंगिक नहीं रह गया है. भारत की मदद से 1971 में पाकिस्तान का विभाजन तथा बांग्लादेश का जन्म लेना भी अधिकतर पाकिस्तानी अभिजात्यों की कल्पना में आज भी छाया हुआ है. दरअसल, जेहादी उग्रता और आतंकवाद पाकिस्तान के लिए ऐसे तरीके हैं, जो उसे विषम युद्ध के जरिये बड़े तथा समृद्धिशाली भारत के समक्ष खड़े होने में समर्थ बनाते हैं. सोवियत युद्ध के दौरान पाकिस्तान ने अमेरिकी पैसे, हथियारों और प्रशिक्षण का इस्तेमाल न सिर्फ अफगानिस्तान में सोवियत सेना के विरुद्ध लड़ाकों को लैस करने में बल्कि जम्मू एवं कश्मीर तथा सीमा के पार स्थायी दखल के लिए अनियमित लड़ाकों की फौज खड़ी करने में भी किया था.

वैचारिक तौर पर प्रेरित लड़ाकों के साथ दिक्कत यह होती है कि उनकी वैचारिकी किसी प्रशासनिक राष्ट्र के लिए अस्वीकार्य दिशाओं में भी मुड़ सकती है. तहरीक-ए- तालिबान, टीटीपी तथा अन्य गुटों द्वारा पाकिस्तान के भीतर किये गये हमलांे से पाकिस्तानी चेतना को पहले ही समझ लेना चाहिए था कि विचारधारा के सहारे विषम युद्ध लड़ना कोई भरोसेमंद सैन्य कार्रवाई नहीं है.

इसलामवादी अतिवाद, एक आधुनिक राष्ट्र के तौर पर पाकिस्तान के विकास की राह में हमेशा एक रोड़ा बना है. वहां हमेशा ऐसे अतिवादी मिल जायेंगे, जो कहते हैं कि महिलाएं पश्चिमी परिधान क्यों पहन रही हैं? लड़कियां स्कूल क्यों जा रही हैं? हम शियाओं या अहमदियों अथवा गैर-मुस्लिमों को बराबर का नागरिक क्यों स्वीकार कर रहे हंै? इसी तरह, इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस, पाकिस्तान के भीतर हक्कानी नेटवर्क, मुल्ला उमर के अफगानी तालिबान तथा लश्कर-ए-तैयबा, जमात-उद्-दावा के विरुद्ध अभियान नहीं चलाने की प्रतिबद्धता से इत्मीनान महसूस कर सकती है. लेकिन इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि क्षेत्रीय प्रभाव वाले ये मोहरे, सिपह-ए-सहाबा, लश्कर-ए-झांगवी तथा पाकिस्तान तालिबान सरीखे गुटों, जोकि पाकिस्तान के अंदर हमले कर सकते हैं, उन्हें सहयोग-समर्थन नहीं मुहैया करायेंगे. अक्तूूबर, 2011 में अमेरिका की तत्कालीन सेक्रेटरी हिलेरी क्लिंटन ने पाक अफसरों से कहा था, ‘आप अपने घर के पिछवाड़े रखे गये सांप से यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वह आप के पड़ोसियों को नहीं काटेगा.’ उन्होंने यह भी कहा था, ‘संभव है कि ये सांप उसकी ओर रुख करने जा रहे हों, जिसने उन्हें वहां पाल रखा है.’ पाकिस्तानी नेतृत्व के लिए उन शब्दों पर गौर करना अभी भी बाकी है.

आतंकवादी गुटों का पाकिस्तानी सरजमीं पर संचालन की छूट देने वाली नीति अनर्थकारी साबित हुई है. जेहादी उग्रवादी, वैश्विक, क्षेत्रीय व स्थानीय संघर्ष में भेद नहीं मानते. एक बार उन्होंने यदि अपनी कारगुजारियों को अपने मकसद के लिए उचित मान लिया तो वे कहीं भी लड़ने और अपने को उड़ान देने को तत्पर हो उठते हैं.

इस वक्त पाकिस्तान का सबसे बड़ा दुश्मन उसका इनकार है. जबकि यह वक्त यह स्वीकार करने का है कि न तो जेहादी गुटों का भरोसा किया जा सकता और न ही उन्हें राष्ट्र का हितैषी समझा जा सकता है. हालांकि, पाकिस्तानी चेतना उन्हें बाहरी मकसदों के लिए उपयोगी समझ सकती है, लेकिन वे आंतरिक तौर पर हमेशा खतरनाक होंगे. जहां तक पाकिस्तान के बाहर उसके प्रभाव के विस्तार को लेकर उनकी उपयोगिता की बात है तो वह दूर की कौड़ी है.

परमाण्विक क्षमता से लैस पाकिस्तान उस भ्रांति और असुरक्षाबोध को झटक सकता है, जिससे मौजूदा व्यवस्था की सोच जकड़ी हुई है. टीटीपी जैसे गुटों से छिटपुट संघर्षो, जैसे 2008 में स्वात घाटी और बिलकुल हाल में उत्तरी वजीरिस्तान में हुआ, उसकी जगह पाकिस्तान सेना राष्ट्रीय रवैये को पूरी तरह बदलने का श्रेय ले सकती है.

नये रवैये में बिना किसी अगर-मगर के जेहादी अतिवाद के खतरनाक होने को मानना होगा तथा पाकिस्तान के आकार और संसाधनों की तुलना में असंगत राष्ट्रीय क्षमता के दिखावे को छोड़ना होगा. पाकिस्तानी विमर्श में जेहादी नजरिये को समर्थन और सहयोग देने वाले तत्वों को पालने-पोसने की बजाय पाकिस्तानी व्यवस्था के लिए यह वक्त शायद जेहाद विरोधियों के साथ देश के दुश्मनों जैसा बर्ताव बंद करने का है, क्योंकि निरंकुश अतिवादियों के संघर्ष का फैलाव पाकिस्तान को पीछे मध्यकाल की ओर ले जा रहा है, जिन्हें पाकिस्तानी व्यवस्था द्वारा गद्दारों की तरह देखा जा रहा है. संभव है सिर्फ वही लोग पाकिस्तानी हितों तथा वर्तमान राष्ट्र की रक्षा के पक्षधर साबित हों. अफसोस इस बात का है कि व्यवस्थाएं खुद को आसानी से नहीं बदलतीं.

(साभार : द इंडियन एक्सप्रेस) (अनुवाद : कुमार विजय)

हाल की बड़ी आतंकी वारदातें

16 दिसंबर, 2014 : पेशावर

तहरीक-ए-तालिबान ने एक आर्मी स्कूल पर हमला कर कम-से-कम 142 लोगों की हत्या कर दी, जिसमें 132 बच्चे थे.

2 दिसंबर, 2014 : लाहौर

भारत-पाकिस्तान सीमा पर स्थित वाघा में एक आत्मघाती हमले में 60 लोग मारे गये.

11 जून, 2014 : कराची

पाकिस्तान के सबसे व्यस्त हवाई अड्डे पर हमला कर आतंकियों ने 13 लोगों को मार दिया.

22 सितंबर, 2013 : पेशावर

एक चर्च में हुए दो आत्मघाती हमले में कम-से-कम 85 लोग मारे गये.

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें