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मुखिया के रूप से गांव को मिला नेता

गांव के विकास, वहां आ रहे बदलाव व पंचायती राजव्यवस्था से उम्मीदें, उनकी संभावनाओं पर पंचायतनामा ने दो अलग-अलग शख्सियतों अशोक भगत व दयामनी बारला से बात की. दोनों दशकों से गांव के लिए ही काम कर रहे हैं. हां, उनके काम का तरीका जरूर अलग है. एक गांव के विकास के लिए प्रयास कर […]

गांव के विकास, वहां आ रहे बदलाव व पंचायती राजव्यवस्था से उम्मीदें, उनकी संभावनाओं पर पंचायतनामा ने दो अलग-अलग शख्सियतों अशोक भगत व दयामनी बारला से बात की. दोनों दशकों से गांव के लिए ही काम कर रहे हैं. हां, उनके काम का तरीका जरूर अलग है. एक गांव के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं, वहां के लोगों को स्वरोजगार-शिक्षा से जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं, तो दूसरी शख्सियत अंधे औद्योगिकीकरण के मौजूदा दौर में गांव के अस्तित्व पर छाये काले बादल से लड़ रही हैं. प्रस्तुत है, दोनों शख्सियत से राहुल सिंह की बातचीत का प्रमुख अंश :

आज गांव बदल रहे हैं. बाजार व वैश्वीकरण की धमक को गांवों में आप कैसे महसूस करते हैं?

भूमंडलीकरण का प्रभाव 10 साल पहले ही शुरू हो गया है. इसने झारखंड के गांवों को भी अपने चपेट में ले लिया है. जहां एक ओर लोग पहले सोये हुए थे, वहीं अब उनके अंदर विकास की तीव्रता की आकांक्षा बढ़ने लगी है. जीवन स्तर में सुधार आया है. ऐसे में बदलाव की आकांक्षा मजबूत हुई है. दूसरी ओर भूमंडलीकरण के कारण आज समाज और व्यक्ति टूट रहा है. परिवार अकेले पड़ रहे हैं. प्रगति के नाम पर अपने लिए जीने की होड़ मची है. कुछ स्तरों पर सामाजिक विकास हुआ है. गांव में संसाधन खड़े हों इसके लिए ग्रामीणों की रुचि बढ़ी है. लेकिन जो मूल कार्य है – आपसी एकता-सौहार्द का. वह कई सरकारी योजनाओं के कारण टूटा है.

गांव के अंदर संभावनाएं बढ़ रही हैं. सरकारी साधनों के रूप में अनेकों ऑफर सामुदायिक स्तर पर ग्रामीणों को मिल रहे हैं. विद्यालय हेल्थ सेंटर चलाने सहित. पर,इसके उलट समाज में उतना ही बिखराव भी आया है. इस कारण इन चीजों का पर्याप्त लाभ नहीं मिल रहा है. हालांकि इसमें दो मत नहीं है कि गांव बदल रहा है.

इस सब के बीच गांव की मौलिकता कैसे प्रभावित हो रही है?

गांव में जो परस्पर समझ थी वह कम हुई है, खत्म हुई. जैसे अगर गांव में सरकारी स्कूल नहीं है, तो खुद स्कूल खड़ा कर लो. उस पर दुष्प्रभाव पड़ा है. अब साधन सुलभ होने के कारण जो अपनी पहल होनी चाहिए, प्रयास होना चाहिए वह बाधित हुआ है.

गांवों में आये इस बदलाव को आप किस तरह देखते हैं?

लोग डिबरी युग से बिजली युग में आये हैं. लोग इलेक्ट्रानिक साधनों का उपयोग कर रहे हैं. लोग एक बेहतर जीवन जी रहे हैं. इसका स्वागत किया जाना चाहिए. पर, चिंता का कारण है परस्पर प्रेम का टूटना. इस पर सोचना होगा.

पंचायत प्रतिनिधियों के प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आप संचालन करते हैं. पंचायती राज व्यवस्था की पहली पारी का आधा कार्यकाल खत्म हो गया. उसे आप कसौटी पर कैसे कसते हैं?

बहुतायत में पंचायतों के मुखिया निदरेष हैं. यह बड़ी उपलब्धि है कि गांव की समस्याओं व गांव के लोगों को देखने वाला कोई नेता, कोई अधिकारी मिला है. कुछ पंचायतें बेहतर काम कर रही हैं. हालांकि कुछ गड़बड़ी भी हो रही है. गड़बड़ी तीन-चार स्तरों पर हो रही है. एक तो पंचायतों के प्रतिनिधियों को यह आत्मविश्वास नहीं खड़ा हुआ है कि वे गांव सरकार हैं. जबकि यह आत्मविश्वास उनके अंदर आना जरूरी है. कई बार वे निजी सुख-सुविधाओं के लालच में फंस जाते हैं. सरकारी तंत्र उन्हें मान्यता नहीं दे रहा है. पंचायतों के स्तर पर जो ढांचा है, वह टूट गया है. पंचायत सचिवालय काम नहीं कर रहे हैं. जनसेवक नहीं हैं. ऐसी परिस्थितियों में चाह कर भी अच्छा काम नहीं हो रहा है और स्वरूप खड़ा नहीं हो पा रहा है.

आप अपने अनुभव से कितने परिपक्व महसूस करते हैं अपने पंचायत प्रतिनिधियों को?

हमारे पंचायत प्रतिनिधियों में 10 प्रतिशत धूर्त निकल गये. वे फंसने वाली स्थिति में हैं. 25 से 30 प्रतिशत पंचायत प्रतिनिधि परिपक्व हैं. शेष समझ नहीं पा रहे हैं कि क्या करना है? कुछ लोग विकास की राह पर उसे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं. उन्हें कई जगह मान्यता भी मिली है. बहुत सारे कर नहीं पा रहे हैं. इसलिए उनके अंदर निराशा है.

सरकारी मशीनरी पंचायतों का, पंचायत प्रतिनिधियों का किस तरह उपयोग करें, ताकि बेहतर परिणाम मिले?

सरकारी मशीनरी बहुतायत मात्र में इनसे हरकारा (डाकिया) की तरह व्यवहार कर रही है. कार्यक्रम करवाने आदि के रूप में. शो-पीस के रूप में भी इनका इस्तेमाल किया जा रहा है. जो प्रॉपर स्ट्रेर की सबसे बड़ी बाधा है. गांव में बैठ कर प्लानिंग करवाना चाहिए. वह सरकारी तंत्र करवा नहीं रहा है. जहां सूझ-बूझ वाले अफसर हैं, वे कर रहे हैं. मेरा मानना है कि प्रयोग दो तरह का होता. एक अपने लिए उपयोग करना व दूसरा गांव के लिए उपयोग करना. अफसर खुद के लिए इनका उपयोग तो कर लेते हैं, लेकिन गांव के लिए नहीं करते.

गांव के विकास से जुड़ी क्या चुनौतियां हैं?
ग्रामीण इलाकों में विस्थापन भी एक समस्या बतायी जाती है?

विकास काम नहीं हो रहा है तो विस्थापन क्या होगा. मूलभूत सुविधाओं का ढांचा नहीं खड़ा हो रहा है. बहुत मुश्किल से बिजली गांव में पहुंची है. उसका लोग लाभ ले रहे हैं. शिक्षा के मामले में गांव पूरी तरह मदद विहीन है. विद्यालय चल ही नहीं रहे हैं. हालांकि बच्चों को स्कूलों में भेजने की लालसा आयी है. लोग चाहते हैं कि उनके बच्चे स्कूल में पढ़ें. हमारे यहां बिशुनपुर में दूर-दूर से बच्चे पढ़ने आते हैं. कृषि का विकास नहीं हुआ है. गांव की स्थिति ऐसी है कि जो लोग थोड़े संपन्न हैं, वे ब्लॉक हेड क्वार्टर में रहना चाहते हैं. जो और संपन्न हैं वे जिला मुख्यालय में रहना चाहते हैं. जो और संपन्न हैं वे राजधानी रांची में रहना चाहते हैं और वहीं अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं. गांव छोड़ने की प्रवृत्ति लोगों में बढ़ी है. सरकार लाख घोषणाएं कर ले, लेकिन डिलेवरी मैकेनिज्म इतना बुरा है कि मजदूरों को मजदूरी का पैसा नहीं मिलता है. इस कारण पलायन हो रहा है. गांव में सादगी-सच्चई बहुत है, इसलिए वहां ठगों का गिरोह काम करता है. मानव तस्करी आवश्यकताओं के कारण नहीं ठगों के कारण होती है.

हमारी पंचायतें कैसे बेहतर कर सकती हैं?

एक शेर है : बुलंद वादों की हस्तियों में हम जी कर क्या करेंगे, मुङो मेरी जमीन दे दो आसमान लेकर क्या करेंगे. आप पंचायतों को सबकुछ दे दें. गलती-सही करने दें. उनका सपोर्टिव सुपरविजन (सहायता करते हुए देखरेख) करें. इससे चीजें धीरे-धीरे बदलेंगी.

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