500 का मुर्गा चोरी, खर्च हुआ 25 हजार रुपये
वर्तमान समय में विकास का मतलब सिर्फ ऊंची-ऊंची इमारतों, सड़क, पुल-पुलियों एवं नालों के निर्माण आदि से लगाया जाता है. लेकिन, विकास का दूसरा पहलू लोगों की फिजुल खर्ची बंद करना भी है. सरकार की ओर से गांव एवं पंचायत स्तर पर विवादों को सुलझाने की व्यवस्था नहीं होने पर कैसे गांव के लोगों का […]
वर्तमान समय में विकास का मतलब सिर्फ ऊंची-ऊंची इमारतों, सड़क, पुल-पुलियों एवं नालों के निर्माण आदि से लगाया जाता है. लेकिन, विकास का दूसरा पहलू लोगों की फिजुल खर्ची बंद करना भी है. सरकार की ओर से गांव एवं पंचायत स्तर पर विवादों को सुलझाने की व्यवस्था नहीं होने पर कैसे गांव के लोगों का पैसा फिजुल में खर्च हो रहा है. कैसे आर्थिक विकास को धक्का लग रहा है. उमेश यादव की रिपोर्ट.
यह मामला रांची जिले के ओरमांझी थाना अंतर्गत गणोशपुर गांव का है. साल 2006 में गांव के ग्राम प्रधान राम प्रसाद बेदिया ने लड़ाने वाला मुर्गा खरीद कर लाया. लेकिन, कुछ दिन बाद ही इसकी चोरी हो गयी. मुर्गे की चोरी किसने की. इसका कोई सबूत नहीं था. शक के आधार पर राम प्रसाद ने पड़ोसी कजरू गंझू एवं राजेश गंझू से पूछताछ की. इस पर बात इतनी बढ़ गयी कि राजेश एवं कजरू ने उनकी पिटाई कर दी. इसमें वे बुरी तरह घायल हो गये. इसके बाद उन्होंने थाने में शिकायत कर दी. प्राथमिकी दर्ज हो गयी. कजरू गंझू एवं राजेश गंझू को जेल जाना पड़ा. यह मामला कोर्ट में सात साल चला. इसी साल के 18 जून को कोर्ट ने सबूत नहीं होने के आधार पर कजरू एवं राजेश को बरी कर दिया.
इस मामले में राम प्रसाद बेदिया बताते हैं कि जिस समय मुर्गा खरीद कर लाया था उस समय उसकी कीमत 500 रुपये के आसपास थी. सात साल चले मुकदमे में उसे हासिल कुछ नहीं हुआ. लेकिन, कोर्ट में वकील से तारीख पर हाजिरी दिलाने एवं बहस कराने, विभिन्न कागजात के नकल उठाने, हॉस्पिटल एवं थाने से रिपोर्ट कराने, गवाहों को कोर्ट ले जाने एवं लाने और स्वयं भी आने-जाने में कुल मिलाकर पांच हजार रुपये से अधिक का खर्च हो गया. इसी तरह राजेश गंझू ने बताया कि उनका तो खर्च 20 हजार रुपये से भी अधिक है. उन्हें इसलिए ज्यादा खर्च करना पड़ा क्योंकि वे लोग आरोपी थे. जेल में थे. बेल कराने से लेकर केस खत्म कराने के लिए उन्हें अच्छा प्राइवेट वकील रखना पड़ा. यानी 500 रुपये के मुर्गे को लेकर हुई लड़ाई में दोनों पक्षों का कुल 25 हजार रुपया खर्च हो गया. जबकि दोनों ही पक्ष के लोग लघु किसान की श्रेणी में आते हैं. राजेश एवं कजरू आज भी मजदूरी कर परिवार चलाते हैं.
यह कहानी एक उदाहरण है.
वास्तव में ऐसे हजारों मामले हैं जो कोर्ट में लंबित है और इससे गांव के लोगों का समय एवं पैसा दोनों बर्बाद हो रहा है. जबकि ऐसे मामलों को गांव एवं पंचायस्तर पर सुलझाने की व्यवस्था हो तो न केवल संबंधित पक्षों के समय एवं पैसे की बचत होगी. बल्कि कोर्ट पर भी अनावश्यक बोझ नहीं पड़ेगा. संविधान की धारा 243(जी) के तहत पंचायतों का मुख्य कार्य आर्थिक विकास एवं सामाजिक न्याय है. यह दोनों कार्य एक दूसरे के पूरक हैं. नागरिकों को सामाजिक न्याय तभी मिलेगा जब उनका आर्थिक विकास होगा. और आर्थिक विकास के लिए जरूरी है कि नागरिकों में बचत की प्रवृत्ति बढ़े. उनका फिजुल खर्च बंद हो. ऐसे में पंचायतें लोगों की फिजुल खर्जी पूरी तरह तभी रोक पायेंगी जब वे ग्राम पंचायत स्तर पर फौजदारी एवं सिविल मामलों का निपटारा करेंगी.