मंशा राजनीति को स्वच्छ बनाने की है

सुभाष कश्यप,संविधान विशेषज्ञ देश की न्यायपालिका समय-समय पर जनहित में लोकमहत्व के फैसले देती है. अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ फैसले सुनाये हैं, उनका काफी महत्व हैं. इस लिहाज से जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को निरस्त करने का सर्वोच्च अदालत का फैसला ऐतिहासिक है. यह जनता और लोकतंत्र दोनों के लिए […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 14, 2013 4:16 PM

सुभाष कश्यप,संविधान विशेषज्ञ

देश की न्यायपालिका समय-समय पर जनहित में लोकमहत्व के फैसले देती है. अभी हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कुछ फैसले सुनाये हैं, उनका काफी महत्व हैं. इस लिहाज से जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को निरस्त करने का सर्वोच्च अदालत का फैसला ऐतिहासिक है. यह जनता और लोकतंत्र दोनों के लिए स्वागतयोग्य कदम है.

हालांकि केवल इस एक कानून मात्र से राजनीति का अपराधीकरण नहीं रुकनेवाला है, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था को साफ सुथरा बनाने में यह मददगार साबित होगा. धारा 8 की उपधारा 4 का फायदा उठाते हुए हमारे राजनेता आपराधिक मामलों में 2 वर्ष या इससे भी ज्यादा की सजा पा लेने के बाद भी न सिर्फ चुनाव लड़ सकते थे, बल्कि जनप्रतिनिधि बनने के बाद उनकी अपील पर जब तक अंतिम फैसला नहीं आ जाता था, उनकी सदस्यता भी बनी रहती थी. अपील करने के लिए उन्हें तीन महीने का समय भी दिया जाता था. इस तीन महीने में सांसद और विधायक फैसले के खिलाफ अपील करते और ऊपरी अदालत में सालों साल यह मामला लंबित पड़ा रहता और वे मजे से अपनी राजनीति करते रहते थे. इस दौरान उनके द्वारा किये गये फैसले की वैधता पर कभी कोई सवाल नहीं उठाया गया.

दूसरी तरफ अगर कोई आम नागरिक आपराधिक मामलों में दोषी साबित हो जाता था तो उसके चुनाव लड़ने पर पूरी तरह से रोक थी. सर्वोच्च अदालत के फैसले से अब इस खामी को दूर करने में मदद मिलेगी. निचली अदालत से सजा पाने के तुरंत बाद से ही वे चुनावी प्रक्रिया में भाग नहीं ले पायेंगे. सांसद और विधायक के रूप में उनकी सदस्यता भी अविलंब खत्म हो जायेगी. वे सुप्रीम कोर्ट से बरी होने के बाद ही विधायी प्रक्रिया का हिस्सा बन सकते हैं, या चुनाव में शामिल हो सकते है.

हालांकि चुनाव सुधार और राजनीति को अपराध मुक्त बनाने का रास्ता अभी भी लंबा है. देश में पिछले कई सालों से चुनाव सुधार की बात होती रही है, लेकिन इस दिशा में कोई भी राजनीतिक दल पहल करता हुआ नजर नहीं आता. अदालत के इसी फैसले को देखें तो अदालत ने कहा है कि 2 साल या इससे ज्यादा की सजा मिलने के बाद ही उनकी सदस्यता निलंबित होगी. लेकिन यह भी विचारणीय हैं कि देश की निचली अदालतों में इन राजनेताओं के खिलाफ चलने वाले मुकदमों में फैसला आने में ही वर्षो लग जाते हैं. तारीख दर तारीख मुकदमे चलते रहते हैं. कभी मजिस्ट्रेट का तबादला हो जाता है, तो कभी गवाह बदल जाते हैं तो कभी किसी और कारण से मुकदमें में देरी होती है. ऐसे में वे चुनावी प्रक्रिया का हिस्सा बने रहते हैं. इसलिए उचित यही होता कि जिनपर गंभीर आरोप लगे हैं, उन्हें आरोप लगने के बाद से ही चुनाव लड़ने से रोका जाता. कानून का गलत इस्तेमाल न हो इसलिए विशेष प्रावधान किये जा सकते हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा है कि जेल में रह कर आप मतदान नहीं कर सकते तो चुनाव कैसे लड़ सकते हैं? यदि कोई व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहता है तो वह बेल के जरिये बाहर आकर चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी कर सकता है.


स्पष्ट है सुप्रीम कोर्ट ने अपराधियों पर नकेल कसने के लिए रास्ता निकाला है. जिसके लिए लंबे समय से लड़ाई लड़ी जा रही थी, उसका सकारात्मक परिणाम सामने आया है. लेकिन बेहतर होता कि चुनाव सुधार के जरिये राजनीति को बेहतर बनाने की दिशा में राजनेता खुद कदम बढ़ाते. इसके लिए निर्वाचन आयोग और राजनीतिक दलों को मिल कर कोई रास्ता निकालना होगा. बढ़ते चुनावी खर्च की वजह से भी राजनीति में धनबल और बाहुबल बढा है.इसके लिए चुनाव आयोग को पहल करते हुए चुनावी खर्च में कटौती करने के लिए रास्ता निकालना होगा. यह भी हो सकता है कि चुनाव आयोग राजनीतिक दलों को अपनी तरफ से कुछ निश्चित चुनावी फंड डे. चुनाव के लिए उपयोगी समग्री की अपनी तरफ से व्यवस्था करे. जब तक चुनाव की व्यवस्था नहीं सुधरेगी, राजनीति में बदलाव की गुंजाइश कम ही बनती है. केवल अदालती फैसलों से व्यापक बदलाव का रास्ता नहीं तय किया जा सकता.

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