20.1 C
Ranchi

BREAKING NEWS

Advertisement

चुनाव सुधार होगा तो सुधरेगी राजनीति

जगदीप छोकर,संस्थापक सदस्य, एडीआरइस देश के राजनीतिज्ञ ऐसा मान कर चलने लगे हैं, कि वे देश की जनता के लिए जो कानून बनाते हैं, वे कानून खुद उन पर लागू नहीं होते. यही कारण है कि जब देश की सर्वोच्च अदालत जनता की मांग पर कोई फैसला सुनाती है, तो जनहित में किये गये ये […]

जगदीप छोकर,संस्थापक सदस्य, एडीआर

इस
देश के राजनीतिज्ञ ऐसा मान कर चलने लगे हैं, कि वे देश की जनता के लिए जो कानून बनाते हैं, वे कानून खुद उन पर लागू नहीं होते. यही कारण है कि जब देश की सर्वोच्च अदालत जनता की मांग पर कोई फैसला सुनाती है, तो जनहित में किये गये ये फैसले राजनीतिक दलों को नागवार गुजरते हैं. इन पर टीकाटिप्पणी शुरू हो जाती है, या फिर इनसे एनकेनप्रकारेण बचने की जद्दोजहद शुरू हो जाती है. ऐसे में यही लगता है कि राजनीतिक दलों को कानून के दायरे में काम करने की आदत नहीं है.

पिछले डेढ़ माह में चार महत्वपूर्ण फैसले सामने आये. तीन जून को राजनीतिक दलों को पब्लिक एंटीटी मानते हुए सूचना आयोग ने देश के 6 प्रमुख राजनीतिक दलों को आरटीआइ के दायरे में लाने की बात कही.राजनीतिक दलों ने इस निर्णय का विरोध किया. इसके खिलाफ अध्यादेश लाने की बात भी कही जा रही है. पांच जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी लाभ के लिए किये जाने वाले तोहफे की घोषणा पर रोक लगे. यह कोई आदेश नहीं है. इसमें सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से कहा है कि राजनीतिक दलों को बुलाकर इस मसले पर बात कीजिए. इसी क्रम में इलाहाबाद हाइकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा जाति विशेष को लुभाने के लिए की जानेवाली जातिगत रैलियों पर रोक लगाने की बात कही. लेकिन यह रोक तात्कालिक है.

10 जुलाई को सुप्रीम कोर्ट ने वैसे राजनेताओं को, जिन्हें दो साल की सजा सुनायी गयी है, चाहे वे संसद या विधानसभा के सदस्य ही क्यों न हों, अविलंब प्रभाव से निलंबन का आदेश दिया. इसी तरह 11 जुलाई को कहा गया कि जो व्यक्ति जेल में है, उसे चुनाव लड़ने की इजाजत नहीं है. 10 और 11 जुलाई के फैसले ने पूरी राजनीतिक बिरादरी को झकझोर कर रख दिया है, और वे इस फैसले की धार को कमजोर करने के लिए किसी काट की तलाश में जुट गये हैं.

इन फैसलों का बहुत ही दूरगामी प्रभाव होगा. राजनीतिक दल भले ही इस फैसले पर टिप्पणी करें, लेकिन यह राजनीतिक व्यवस्था में अपराधीकरण की प्रवृति पर रोक लगाने में मददगार साबित होगा. राजनेता चुनाव कानून की खामियों के कारण अब तक आपराधिक मामलों में दो या अधिक वर्षो की सजा पाने के बावजूद संसद या विधान सभा का सदस्य बन कर न सिर्फ चुनाव जीतते रहे हैं, बल्कि संसद और विधानसभाओं में माननीय की हैसियत से कानून निर्माण की प्रक्रिया में भागीदारी भी करते रहे हैं. वे इसके लिए बचाव के रूप में 1989 के जनप्रतिनिधित्व कानून का हवाला देते थे. उनकी इस चालाकी के खिलाफ राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव सुधार के पक्षधर लोग समय-समय पर आवाज भी उठाते रहे हैं.

राजनेताओं को चाहिए था कि खुद ही इस दिशा में पहल करते हुए जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को निरस्त करें. आखिरकार 85 वर्षीय वृद्ध महिला जो सुप्रीम कोर्ट में वकील हैं, और गैर सरकारी संगठन लोकप्रहरी द्वारा दायर याचिका में यह सवाल किया गया कि जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) की संवैधानिक वैधता क्या है. इसके तहत सांसदों और विधायकों को दोषी साबित होने के बावजूद उन्हे अपना कार्यकाल पूरा करने की इजाजत मिलती है. यहीं विरोधाभास है एक सामान्य नागरिक दोषी साबित होने के बाद अपराध सिद्ध होने की तारीख से अगले 6 वर्षो तक चुनाव नहीं लड़ सकता. वहीं दूसरी तरफ दोषी जनप्रतिनिधियों को इसके लिए ऊपरी अदालत में अपील करने के लिए तीन माह का वक्त दिया जाता था.

वह उपरी अदालत मे अपील करता था,और अदालत में आखिरी सुनवाई होने में कई वर्ष लग जाते थे. अदालत ने कहा है कि जब जेल में रहते हुए कोई व्यक् िमतदान की प्रक्रिया में भाग नहीं ले सकता तो फिर वह चुनाव कैसे लड़ सकता है. राजनीतिक बिरादरी यह कहते हुए इस फैसले का विरोध कर रही है कि कई बार राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं के उपर जनता के पक्ष में लड़ते हुए मुकदमे हो जाते हैं. यह फैसले को गलत परिप्रेक्ष्य में पेश किये जाने और अपने पक्ष में तर्क गढने की कोशिश ही कही जायेगी. सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा कि आप सर्वोच्च अदालत से बरी होने के बाद चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा ले सकते हैं.

बातचीत: संतोष कुमार सिंह

Prabhat Khabar App :

देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए

Advertisement

अन्य खबरें

ऐप पर पढें