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अदालत के चार बड़े फैसले

1. जातिगत रैलियों पर रोकइलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच ने जातिगत आयोजनों को संविधान की व्यवस्था के विपरीत बताते हुए भविष्य में ऐसी रैलियां और बैठकें आयोजित करने पर रोक लगा दी. जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश पारित किया. अदालत ने कहा कि इस […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 14, 2013 4:46 PM

1. जातिगत रैलियों पर रोक
इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच ने जातिगत आयोजनों को संविधान की व्यवस्था के विपरीत बताते हुए भविष्य में ऐसी रैलियां और बैठकें आयोजित करने पर रोक लगा दी. जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल की खंडपीठ ने एक जनहित याचिका पर यह आदेश पारित किया. अदालत ने कहा कि इस तरह की रैलियों से समाज बंटता है. कोर्ट ने उत्तर प्रदेश में राजनीतिक पार्टियों द्वारा आयोजित होने वाली जाति रैलियों पर अगले आदेश तक रोक लगा दी. साथ ही अदालत ने केंद्र व राज्य सरकार, चुनाव आयोग और चार राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस, भाजपा, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को नोटिस जारी किया है.

2.चुनाव के दौरान वादों के लिए दिशा-निर्देश बने
चुनाव से पहले राजनीतिक दलों की ओर से जनता को मुफ्त उपहार देने का वादा किये जाने पर सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रु ख अपनाते हुए चुनाव आयोग से चुनाव घोषणा पत्रों के नियमन के लिए दिशा-निर्देश तैयार करने को कहा है. न्यायाधीश पी सदाशिवम और न्यायाधीश रंजन गगोई ने याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि घोषणा पत्रों में मुफ्त उपहार देने के वादों से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव की बुनियाद हिल जाती है. दलों की यह कारगुजारी चुनावी प्रक्रि या को दूषित करती है. खंडपीठ ने कहा है कि भले ही चुनाव घोषणा पत्र में किये गये वादों को जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 123 के तहत भ्रष्टाचार की गतिविधि में नहीं रखा जा सकता, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि हर कोई इससे प्रभावित होता है. सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का असर व्यापक हो सकता है.

3. दोषी जनप्रतिनिधियों की सदस्यता होगी खत्म

सुप्रीम कोर्ट ने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को निरस्त करते हुए कहा कि दोषी करार दिये जाने की तारीख से ही सांसद और विधायकों को अयोग्य मान लिया जायेगा. न्यायमूर्ति एके पटनायक और न्यायमूर्ति एसजे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने गैरसरकारी संगठन लोकप्रहरी और लिली थॉमस की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह अहम फैसला सुनाया. साथ ही खंडपीठ ने कहा कि किसी जनप्रतिनिधि को दो साल की सजा होते ही उसकी सदस्यता उसी दिन समाप्त हो जायेगी और यह निलंबन तक तक जारी रहेगा, जबतक सुप्रीम कोर्ट उसे बरी नहीं कर देता. हालांकि जिन जनप्रतिनिधि ने अदालतों में अपील दाखिल की हुई है, उन पर सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला लागू नहीं होगा. चुनाव सुधार की दिशा में इसे अहम फैसला माना जा सकता है.


4.जेल से नहीं लड़ सकेंगे चुनाव

अब जेल में रह कर चुनाव लड़ना मुमकिन नहीं होगा. सुप्रीम कोर्ट ने पटना हाइकोर्ट के फैसले पर मुहर लगाते हुए अपने एक आदेश में कहा कि कानूनी तौर पर न्यायिक हिरासत में जाते ही बुनियादी लोकतांत्रिक अधिकार यानी वोट देने के अधिकार के साथ चुनाव के लिए नामांकन का पर्चा दाखिल करने तक का अधिकार भी नहीं रहता, तब जनप्रतिनिधि बने रहने का अधिकार कैसा! कानून के मुताबिक अब जेल जाने के साथ ही किसी भी नागरिक का वोट डालने का अधिकार तब तक खत्म रहता है, जब तक वो जमानत पर या बरी होकर रिहा नहीं हो जाता है,लेकिन जेल में रह कर चुनाव लड़ने पर कोई पाबंदी नहीं थी.

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