दक्षा वैदकर
व्हॉट्सएप्प पर एक कविता इन दिनों चल रही है, शीर्षक है ‘बचपन वाला वो रविवार अब नहीं आता’. यह कुछ इस तरह है, ‘संडे को सुबह-सुबह टीवी के सामने बैठ जाना. रंगोली में शुरू में पुराने, फिर नये गीतों का इंतजार करना. जंगल बुक देखने के लिए जिन दोस्तों के पास टीवी नहीं था, उनका घर पर आना. ‘चंद्रकांता’ को कास्टिंग से लेकर अंत तक देखना.
शनिवार और रविवार की शाम को फिल्मों का इंतजार करना. किसी नेता के मरने पर सीरियल ना आये, तो उस नेता को गालियां देना. सचिन के आउट होते ही टीवी बंद कर खुद बैट बॉल लेकर खेलने निकल जाना. मूक-बधिर समाचार में टीवी एंकर के इशारों की नकल करना. कभी हवा से एंटिना घूम जाये, तो छत पर जा कर ठीक करना. बचपन वाला वो रविवार अब नहीं आता. दोस्त पर अब वो प्यार नहीं आता. जब वो कहता था, तो निकल पड़ते थे बिना घड़ी देखें.
अब घड़ी में वो समय, वो वार नहीं आता. बचपन वाला वो रविवार अब नहीं आता. वो साइकिल अब भी मुङो बहुत याद आती है, जिस पर मैं उसके पीछे बैठ कर खुश हो जाया करता था. अब कार में भी वो आराम नहीं आता. वो मोगली, वो अंकल स्क्रूच, ये जो है जिंदगी, सुरभि, रंगोली, चित्रहार अब नहीं आता. रामायण, महाभारत, चाणक्या का वो चाव अब नहीं आता. बचपन वाला वो रविवार अब नहीं आता.’
यह कविता पढ़ कर मुङो अच्छा भी लगा और बुरा भी. बुरा इसलिए क्योंकि हम बेवजह रो रहे हैं. वो ‘बचपन वाला रविवार’ किसी और ने नहीं, बल्कि हमने खुद ने खोया है. हम अपने आप को बहुत बड़ा समझने लगे हैं. हम दुनिया से डरने लगे हैं, यह सोचकर कि अगर हम जोर से हंस लेंगे, तो लोग क्या कहेंगे. अगर हम मस्ती कर लेंगे, तो लोग क्या कहेंगे? आज भी टीवी पर कई रोचक, मजेदार, फैमिली सीरियल आते हैं, जैसे तारक मेहता का उल्टा चश्मा, चिड़ियाघर. लेकिन हमारे पास इन्हें देखने का वक्त ही नहीं है. क्योंकि हम बड़े हो गये हैं. हमारे पास फैमिली के साथ इन्जॉय करने का वक्त नहीं है, हम सिर्फ ऑफिस के कलीग्स के खिलाफ बातें फैलाने में लगे हुए हैं.
बात पते की..
बचपन का वो रविवार इसलिए नहीं आता, क्योंकि हमने अपने अंदर के बच्चे को खत्म कर दिया है. आज जरूरत है फिर से बच्च बन जाने की.
आप कितने ही बड़े क्यों न हो जाये, आपको हक है खुश रहने का. मस्ती करने का. खुल कर हंसने का. यही जिंदगी जीने का सही तरीका है.