सिर्फ 30% बीमारियों का इलाज करते हैं डॉक्टर
आज के डॉक्टर से अधिक शिक्षित एवं आम जनता के अधिक निकट आधुनिक समाज का प्राय: कोई व्यक्ति नहीं है. फिर भी एक सामान्य धारणा है कि एक आम आदमी का शोषण आज के एक डॉक्टर से अधिक प्राय: दूसरा कोई नहीं करता है. यह धारणा कितनी सच है? डॉ ठाकुर की इस असामान्य स्वीकारोक्ति […]
आज के डॉक्टर से अधिक शिक्षित एवं आम जनता के अधिक निकट आधुनिक समाज का प्राय: कोई व्यक्ति नहीं है. फिर भी एक सामान्य धारणा है कि एक आम आदमी का शोषण आज के एक डॉक्टर से अधिक प्राय: दूसरा कोई नहीं करता है. यह धारणा कितनी सच है? डॉ ठाकुर की इस असामान्य स्वीकारोक्ति वाली पुस्तक में इस प्रश्न के सभी अंगों की काफी खुल कर चर्चा है.
मनुष्य के शरीर में जितनी व्याधियां हैं, क्या डॉक्टर उन सभी का निदान जानते हैं? नहीं. ऐसा सभी मानते हैं, परंतु बोलते नहीं है. डॉ संतोष सिंह ठाकुर कहते हैं कि लगभग 30 प्रतिशत बीमारियों में इलाज की आवश्यकता ही नहीं है. कुछ धैर्य एवं सहनशक्ति से शरीर उन्हें स्वयं दूर कर लेता है. 30 प्रतिशत अन्य रोग ऐसे हैं जिनके विषय में डॉक्टर कुछ नहीं कर सकते हैं. 10 प्रतिशत के करीब बीमारियों का अंत तक पता ही नहीं चल पाता है. शेष सिर्फ 30 प्रतिशत रोग ऐसे हैं जिनका उपचार डॉक्टर करते हैं, कर सकते हैं और अपने अनुभव एवं सहानुभूति से पीड़ित व्यक्ति की वेदना कम कर सकते हैं. डॉ ठाकुर कहते हैं कि बहुत बाद में जाकर उन्होंने समझा कि डॉक्टर के पास सबके लिए सारे रोगों का निदान नहीं है.
अपने यहां साहित्य का मतलब अमूमन सिर्फ कहानी-कविता समझा जाता है. परंतु विश्व के किसी भी समृद्ध साहित्य का भंडार देखें, तो पायेंगे कि वहां विज्ञान, व्यापार, इतिहास, भूगोल आदि से संबंधित रचनाओं की भी समृद्ध संस्कृति है. भारत में इधर अंगरेजी भाषा में ऐसी कुछ रचनाएं आयी है. फली नरीमन की आत्मकथा ‘बिफोर मेमोरी फेड्स’ भारत में वकालत पेशे की संभावनाओं एवं समस्याओं का एक अधिकारी तथा रोचक परिचय देती है. जी नारायण स्वामी की पुस्तक ‘बियोंड ऑडिटिंग’ चार्टर्ड अकाउंटेंट एवं टैक्स के क्षेत्र में फैली समस्याओं का एक ऐतिहासिक दस्तावेज है. इनकी पुस्तक का अभी तमिल अनुवाद भी आया है. दरभंगा (बिहार) के शिव कांत झा इनकम टैक्स विभाग के ऊंचे पद से रिटायर हुए एवं अभी वे सुप्रीम कोर्ट में इस क्षेत्र में वकालत करते हैं. उनकी आत्मकथा ‘ऑन द लूम ऑफ टाइम’ सरकारी सेवा में लगी प्रतिभा की कथा है. इसी कड़ी में डॉ ठाकुर की पुस्तक ‘हीलिंग टच’ भी एक स्वागत योग्य साहित्यिक कृति है.
डॉ ठाकुर कहते हैं कि आज डॉक्टरों में स्पर्धा है. मरीजों को अपने क्लिनिक तक लाने तथा रखने के लिए उन्हें हथकंडों का इस्तेमाल करना पड़ता है. फिर खून इत्यादि की जांच वाली प्रयोगशालाओं तथा एक्स-रे एवं दवा दुकानों से इनकी मिलीभगत होती है. डॉ ठाकुर कहते हैं कि कई डॉक्टरों की इस प्रकार के कमीशन से होने वाली आय उनकी अपनी प्रैक्टिस की आय से अधिक होती है. स्वयं डॉक्टर भी सताये जाते हैं. बड़े मंत्री, संतरी, सरकारी अधिकारी एवं उनके इष्ट मित्र इनकी सेवा के बदले इन्हें एक उत्साह भरा धन्यवाद भी नहीं कहते हैं. पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने तीसरी बार डॉ ठाकुर से दिखाने के बाद उन्हें ‘आशीर्वाद’ स्वरूप 10 रुपये दिये और कहा बच्चों के लिए चॉकलेट ले लीजियेगा. स्वास्थ्य-चिकित्सा के क्षेत्र में इस नैतिक अध:पतन के लिए डॉ ठाकुर बड़ी दवा कंपनियों को भी बराबर का जिम्मेवार मानते हैं. ऐसा अनुमान है कि भारत में लगभग 12 हजार निबंधित दवा कंपनियां है. छोटी कंपनियां अधिकांश अपने सीमित क्षेत्र में ही, जो भी करना होता है करती हैं. परंतु बड़ी कंपनियां राष्ट्रीय स्तर पर डॉक्टरों को प्रभावित करने के लए अनेक हथकंडे अपनाती हैं. डॉक्टरों को महंगे उपहार देना, कांफ्रेंस आदि के नाम पर डॉक्टरों को बड़े शहरों या विदेश ले जाना. बदले में ये डॉक्टर आवश्यक-अनावश्यक इन्हीं कंपनियों की दवा लिखने के लिए बाध्य होते हैं. हालत इतनी खराब है कि बहुत से डॉक्टर इन्हीं कंपनियों द्वारा उपहार में मिले कपड़े, जूते तक पहनते हैं. डॉक्टरों को मिले इन उपहारों की कीमत ये कंपनियां मरीजों की कमर तोड़ कर वसूलती हैं.
इस पुस्तक के आरंभ का एक पूरा अंश डॉक्टरों की दुनिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, मजबूरियों एवं सेवा की मर्यादा बनाये रखने के संघर्ष की कहानी बड़े रोचक ढंग से कहता है. शेष पांच अध्याय सामान्य भाषा में, गैर विशेषज्ञों को समझ आने योग्य भाषा में स्वास्थ्य संबंधी प्रमुख समस्याओं की चर्चा करते हैं. दूसरे अध्याय में उदाहरण के लिए ऐसी बीमारियों की चर्चा की गयी है, जो रहने, खाने-पीने के अस्वस्थ तरीकों से उत्पन्न होती हैं. इस अध्याय में ब्लड प्रेशर, डाइबिटीज, मोटापा तथा इन से होने वाली समस्याओं, हार्ट-अटैक आदि की चर्चा की गयी है. भाग-दौड़ एवं असीमित महत्वाकांक्षा, अभिलाषा की कभी ना खत्म होने वाली लंबी दौड़ की तनाव भरी जिंदगी, अनियंत्रित भोजन, व्यायाम एवं शारीरिक श्रम का अभाव आदि अनेक ऐसी ना होने वाली बीमारियों को जन्म देना है. इन्हें कोई भी डॉक्टर ठीक नहीं कर सकता है. जीवन शैली में कुछ परिवर्तन से इन्हें आप स्वयं रोक सकते हैं तथा स्वस्थ एवं सुखी जीवन जी सकते हैं. डॉ ठाकुर ने स्वस्थ रहने के पारंपरिक तरीकों की भी प्रशंसा की है. उपवास, फलाहार आदि के महत्व पर प्रकाश डाला है. शिशुओं को सरसों तेल की मालिश के लाभ गिनाये हैं. परंतु पश्चिम की अंधी नकल में ये परंपराएं अब लुप्त हो रही हैं.
बाद के अध्यायों में कैंसर, देहाती क्षेत्र के लिए सस्ती कीमत में अच्छी चिकित्सा, गैस की महामारी, वयोवृद्धों की देखभाल आदि पर काफी सरल भाषा में आधुनिक विज्ञान से ज्ञान तथ्यों की चर्चा की गयी है. शरीर के किस विकार के कारण ये बीमारियां उत्पन्न होनी, फैलती है, उनका निदान कैसे हो आदि पर काफी लाभदायक चर्चा की गयी है. बिहार-झारखंड आदि में निश्चित तौर पर अनेक डॉक्टर मरीजों को यह नहीं बताते हैं कि उनको अमुक बीमारी क्यों हुई है एवं इसका निदान क्या है, वह कैसे ठीक होगा.. यदि किसी ने कभी साहस कर पूछ भी दिया, तो डॉक्टर उसका बड़ा अपमानजनक उत्तर देता है-‘‘जब मुङो मेडिकल साइंस पढ़ाना होगा तो आपको बुला लूंगा.’’ प्रस्तुत पुस्तक में डॉ ठाकुर वहीं मेडिकल साइंस पढ़ा रहे हैं, किसी को भी, जो समझना चाहे. खेद की बात इतनी-सी है कि यह पुस्तक अंगरेजी में है. इसका हिंदी, मैथिली, भोजपुरी, मगही, बांग्ला.. संस्करण शीघ्र आना चाहिए. परंतु तब तक इसकी एक प्रति तो कम से कम हर परिवार में होनी ही चाहिए. छोटे मेडिकल बिल एवं आनंद के अधिक दिनों से इसकी कीमत वसूल हो जायेगी.
श्रीश चौधरी
प्रोफेसर, आइआइटी मद्रास