आखिर क्यों डूब रहा है रुपया
हमारा पर्सनल फाइनेंस भी जुड़ा है देश की मुद्रा के भविष्य के साथ रुपये की दुर्गति के लिए सरकार की आंतरिक और बाहरी नीतियां ही जिम्मेदार हैं. रुपये को डॉलर के मुकाबले संभालना है, तो पहली बात कि देश में मुद्रास्फीति को कम करना होगा. दूसरी बात, उसे ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जिनसे देश में […]
हमारा पर्सनल फाइनेंस भी जुड़ा है देश की मुद्रा के भविष्य के साथ
रुपये की दुर्गति के लिए सरकार की आंतरिक और बाहरी नीतियां ही जिम्मेदार हैं. रुपये को डॉलर के मुकाबले संभालना है, तो पहली बात कि देश में मुद्रास्फीति को कम करना होगा. दूसरी बात, उसे ऐसी नीतियां बनानी होंगी, जिनसे देश में लंबे समय के विदेशी निवेश के लिए माकूल माहौल बन सके. उसे जहां तक हो सके, पोर्टफोलियो या एफआइआइ निवेश को हतोत्साहित करना होगा. लेकिन सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वो उसका उलटा ही कर रही है. ऐसे में रुपये का भगवान ही मालिक है. दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था में सक्रि य अदृश्य नियम ही उसे फिर से उठा कर ऊपर लायेंगे.
अनिल रघुराज
सी–सॉ का खेल. तराजू के एक पलड़े पर डॉलर, तो दूसरे पर रु पया. दो साल पहले जुलाई 2011 में डॉलर को बराबर करने के लिए पलड़े पर 44.32 रुपये रखने पड़ते थे. अब 61.22 रु पये तक रखने पड़ रहे हैं. इस तरह रु पया डॉलर के मुकाबले दो साल में 38.13 फीसदी हल्का हो चुका है. इस दौरान डॉलर खुद अपने देश अमेरिका में मुद्रास्फीति (उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित) के कारण जुलाई 2012 तक 1.7 फीसदी और उसके बाद अब तक 1.4 फीसदी हल्का हुआ है. वहीं भारत में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति का औसत 2012 में 9.30 फीसदी और 2013 में अभी तक 11.21 फीसदी रहा है.
इस तरह दो सालों में डॉलर अपने देश अमेरिका में 3.12 फीसदी और रु पया अपने देश भारत में 21.55 फीसदी हल्का हुआ है. मुद्रास्फीति के अंतर को आधार बनायें तो इन दो सालों में रु पए के मुकाबले डॉलर का 18.43 फीसदी महंगा होना लाजिमी होता, सहज होता, स्वाभाविक होता. लेकिन वह तो इससे करीब–करीब 20 फीसदी ज्यादा महंगा हुआ है! मुद्राओं के विनियम मूल्य में यहीं पर मुद्रास्फीति के अंतर के अलावा मांग और आपूर्ति के समीकरण अपना असर दिखाने लगते हैं.
देश में डॉलर की मांग ज्यादा और आवक कम है. हम जितना डॉलर कमा रहे हैं, उससे कहीं ज्यादा खर्च कर रहे हैं. यह झलकता है देश के चालू खाते के घाटे से. हालांकि दिसंबर 2012 की तिमाही में यह घाटा जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) के 6.7 फीसदी के रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया था. लेकिन मार्च 2013 की तिमाही में घट कर जीडीपी के 3.6 फीसदी पर आ गया. फिर भी पूरे वित्त वर्ष 2012-13 में चालू खाते का कुल घाटा 87.8 अरब डॉलर, यानी जीडीपी का 4.8 फीसदी रहा है. यह एक खतरनाक स्तर है, क्योंकि रिजर्व बैंक के मुताबिक इसका संतोषजनक स्तर जीडीपी के 2.4 से 2.8 फीसदी तक का है. चालू खाते के इस घाटे को पूंजी खाते से बराबर किया जाता है, जिसका मुख्य स्रोत एफआइआइ (संस्थागत विदेशी निवेश), एडीआर/जीडीआर (अमेरिकी जमा पावती/ वैश्विक जमा पावती), एफडीआइ (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश), अनिवासी भारतीयों (एनआरआइ) की जमा और विदेशी ऋण हैं. इनमें से किसी भी स्रोत के कमजोर पड़ने पर डॉलर का प्रवाह धीमा पड़ जाता है और उसी अनुपात में रु पये पर दबाव बढ़ जाता है.
कुल मिलाकर देखें, तो मुद्राओं की मांग व आपूर्ति और इससे निकलती विनिमय दर मोटे तौर पर तीन कारकों से प्रभावित होती है. ये हैं– व्यापार संतुलन, एफआइआइ या पोर्टफोलियो निवेश, लंबे समय का विदेशी पूंजी प्रवाह (एफडीआइ) व विदेशी ऋण. जिस तरह कंपनियों के लिए मार्जिन और रिटर्न अनुपात को मूलभूत पहलू माना जाता है, उसी तरह विनिमय दर के संदर्भ में व्यापार संतुलन को मूलभूत पहलू माना जा सकता है. दुख की बात यह है कि भारत का यह पहलू बेहद कमजोर है. निर्यात में धार नहीं और ज्यादा आयात करने की मजबूरी. हम कच्चे तेल की जरूरत का 72 फीसदी आयात से पूरा करते हैं. सोने का आयात हम पर भारी पड़ता है. लेकिन इन्हें रोकने का कोई कारगर विकल्प सरकार ने विकसित नहीं किया है. जलते तवे पर पानी छिड़कने जैसा ही काम वह कभी–कभार करती रही है.
दूसरा पहलू है एफआइआइ या पोर्टफोलियो निवेश का. एफआइआइ तो शुद्ध रूप से भारत में नोट बनाने के लिए आये हैं. वे कोई और मौका देखते ही भारत या किसी भी देश से रफूचक्कर होने लगते हैं. साल 2013 में अब तक अमेरिकी शेयर बाजार करीब 13 फीसदी और जापानी शेयर बाजार करीब 34 फीसदी बढ़ा है, जबकि यूरो जोन समेत चीन व भारत के शेयर बाजार नीचे गिरे हैं. ऊपर से अमेरिकी केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व ने साफ कह दिया है कि अगले साल 2014 के मध्य तक अर्थव्यवस्था की हालत दुरु स्त होने पर हर महीने बाजार से 85 अरब डॉलर के बांड खरीदने का सिलिसला बंद किया जा सकता है.
ऐसे में जाहिरा तौर पर एफआइआइ को अपना धन भारत जैसे देशों से निकाल कर वापस अमेरिका ले जाने में ज्यादा फायदा दिख रहा है. हमारी पूंजी बाजार नियामक संस्था, सेबी के मुताबिक एफआइआइ इस साल अब तक इक्विटी व ऋण बाजार में कुल 11.36 अरब डॉलर का निवेश कर चुके हैं. लेकिन वे पिछले दो महीने से लगातार अपना निवेश निकाल रहे हैं. चालू जुलाई माह के कुछ दिनों में ही वे 93.83 करोड़ डॉलर निकाल चुके हैं.
अब बचता है तीसरा और आखिरी पहलू प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआइ) व विदेशी ऋण का. इसमें से एफडीआइ के जरिए जम कर देश में डॉलर आ सकते हैं. लेकिन इसके लिए देश में बुनियादी इंफ्रास्ट्रक्चर और नीतियों का स्पष्ट होना जरूरी है. भ्रष्टाचार और दलाली में डूबी सरकार अपना फायदा देख कर नीतियों को उलट–पुलट करती रहती है. ऐसे में विदेशी निवेशक भारत में धन लगाने से पहले सौ नहीं, हजार बार सोचते हैं. इसके बाद बचता है विदेशी ऋण का माध्यम जो तात्कालिक राहत जरूर देता है, लेकिन लंबे समय में देश से और ज्यादा पूंजी निचोड़ ले जाता है. इस तरह विनियम दर के मूलभूत पहलू, व्यापार संतुलन के साथ–साथ बाकी दो पहलुओं पर भी भारत की हालत कमजोर है. इसलिए कुछ जानकार मानते हैं कि तमाम सरकारी हो–हल्ले और तथाकथित उपायों को ठेंगा दिखाते हुए रुपया कुछ ही महीने में 70 के स्तर पर पहुंच जाये, तो आश्चर्य नहीं
होना चाहिए.
दिक्कत यह भी है कि चीनी युआन की तरह भारतीय रुपया अभी तक पूरी तरह बाजार भरोसे नहीं है. इसके लिए पूंजी खाता परिवर्तनीयता उपलब्ध नहीं है (यानी इसे हम जब चाहें बेरोक–टोक विदेशी मुद्रा में नहीं बदल सकते). हमारा फॉरेक्स बाजार 10 बजे सुबह खुल कर शाम 5 बजे बंद हो जाता है. लेकिन बाकी दुनिया में नॉन डिलीवरीवाले फॉरवर्ड (एनआरएफ) सौदों के रूप में इसकी ट्रेडिंग चौबीसों घंटे होती रहती है. देश के भीतर रिजर्व बैंक सटोरियों पर लगाम लगाने के तमाम उपाय कर रहा है. वह रु पये को बचाने के लिए बाजार में सरकारी बैंकों के जरिए डॉलर भी बेचता है. लेकिन बाहर के सटोरियों पर उसका कोई अंकुश नहीं चलता, क्योंकि वे पूरी तरह वैध धंधा कर रहे हैं. दूसरे, डॉलर बेचने में रिजर्व बैंक की अपनी सीमा है. अभी देश का कुल विदेशी मुद्रा भंडार 285 अरब डॉलर का है. वहीं जिस चीन से हमारी तुलना की जाती है, उसका विदेशी मुद्रा भंडार हमसे दस गुने से भी ज्यादा, 3310 अरब डॉलर का है.
अंत में, निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि रु पए की इस दुर्गति के लिए सरकार की आंतरिक और बाह्य नीतियां ही जिम्मेदार हैं. रुपये को डॉलर के मुकाबले संभालना है, तो पहली बात कि देश में मुद्रास्फीति को कम करना होगा. दूसरी बात, उसे ऐसी नीतियां बनानी होंगी जिनसे देश में लंबे समय के विदेशी निवेश के लिए माकूल माहौल बन सके. उसे जहां तक हो सके, पोर्टफोलियो या एफआइआइ निवेश को हतोत्साहित करना होगा. लेकिन सरकार का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि वो उसका उलटा ही कर रही है. ऐसे में रु पये का भगवान ही मालिक है. दूसरे शब्दों में अर्थव्यवस्था में सक्रि य अदृश्य नियम ही उसे फिर से उठा कर ऊपर लायेंगे. उसके उद्धार के लिए सरकार पर भरोसा करना खुद को धोखे में रखना होगा.
(अर्थकाम वेबसाइट से साभार)
हम पर असर
* अधिकांश पेट्रोलियम पदार्थो का आयात किया जाता है, इसलिए उनकी कीमतें ऊंची बनी रहेंगी.
* इलेक्ट्रॉनिक और घरेलू उपकरणों के पुरजे आयात होते हैं, इसलिए इनके दाम बढ़ रहे हैं.
* आयात पर बढ़ते खर्च के कारण मुद्रास्फीति यानी महंगाई अपने ऊंचे स्तर पर बनी रहेगी.
* मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर रहने के कारण घर, गाड़ी आदि के लिए कर्ज की ब्याज दर ऊंची रहेगी.
* डॉलर महंगा होने के कारण विदेश यात्र और विदेश में शिक्षा का खर्च ज्यादा बना रहेगा.
* सुनिश्चित रिटर्न वाली जमा योजनाओं में ब्याज अच्छा मिल रहा है, पर मुद्रास्फीति के प्रभाव को घटाने के बाद शुद्ध रिटर्न नगण्य है.
* ऐसे एनआरआइ जो इस समय बड़ी रकम भारत भेजना है उन्हें कमजोर रुपये से फायदा होगा.
* जो औद्योगिक क्षेत्र जैसे तेल व गैस आयात पर निर्भर हैं, उनसे जुड़ी कंपनियों के शेयर दबाव में रहेंगे. निर्यात आधारित क्षेत्र फायदे में रहेंगे.
* सोने की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में गिरावट है, पर भारत में कमजोर रुपया उसे संभाले हुए है.