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कहानियां हमारे चारों ओर बिखरी हैं

युवा रचनाकार पंकज सुबीर ने अपने लेखन की ताजगी से लगातार पाठकों को प्रभावित किया है. हाल ही में उन्हें 19 वें अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा की गयी है. जानिए उनके रचना संसार को उन्हीं के शब्दों में.संभवत: स्कूल के दिनों में ही लेखन के तो नहीं, पढ.ने के […]

By Prabhat Khabar Digital Desk | July 15, 2013 5:39 PM

युवा रचनाकार पंकज सुबीर ने अपने लेखन की ताजगी से लगातार पाठकों को प्रभावित किया है. हाल ही में उन्हें 19 वें अंतरराष्ट्रीय इंदु शर्मा कथा सम्मान से नवाजे जाने की घोषणा की गयी है. जानिए उनके रचना संसार को उन्हीं के शब्दों में.

संभवत: स्कूल के दिनों में ही लेखन के तो नहीं, पढ.ने के संस्कार जरूर मिल गये थे. मेरी माताजी को पढ.ने का बहुत शौक है. इसलिए घर में सभी प्रकार की पुस्तकें आती थीं. इनमें साहित्यिक पत्रिकाओं से लेकर उपन्यास आदि भी शामिल थीं. उन्हीं पत्रिकाओं तथा उपन्यासों को पढ.-पढ. कर साहित्य के संस्कार मिले. पहली बार जिस कहानी ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो थी फणीश्‍वर नाथ रेणु की ‘लाल पान की बेगम’. यह कहानी कोर्स की किसी पुस्तक में शामिल थी. कहानी ने इतना ज्यादा प्रभावित किया कि उसे कई बार पढा और आज भी यह कहानी मेरी सबसे पसंदीदा कहानियों में है. उस समय पढे. गये रूमानी उपन्यासों जिनमें अधिकांश गुलशन नंदा के थे, ने भी लेखन की ओर झुकाया. फिर पता नहीं कब स्वयं भी कहानियां लिखने लगा. लेखकीय प्रेरणा का यदि कोई एक कारण ढूंढ.ा जाये, तो वह है पढ.ने की आदत. आज भी यह आदत किसी लत की तरह है. हां, एक और कारण हैं मेरी नानी, जिनसे बचपन में देर रात तक जाग-जाग कर कहानियां सुनीं, कहानियां जो खत्म ही नहीं होती थीं. कहीं न कहीं उनकी किस्सागोई भी प्रेरणा बनी.

सीहोर जहां मैं रहता हूं, वहां साहित्यिक वातावरण नहीं के बराबर है. मेरे परिवार में कहीं कोई साहित्यकार नहीं हुआ. पिता और मां दोनों ही किसान परिवार से हैं. लेकिन यह जरूर है कि मां और पिता दोनों ही पढ.ने के शौकीन रहे हैं. इसलिए बचपन से ही घर में किताबों और पत्रिकाओं को अपने आस-पास देखा.

रचना अकसर किसी घटना से जन्म लेती है. या कभी किसी सुनी हुई बात से. उसके बाद वह घटना या बात दिमाग में ही रहती है. उस पर काम चलता रहता है. काम इसलिये कि घटना को कहानी बनना है. घटना के रूप में यदि वह पाठकों तक आयेगी तो महज एक सूचना ही होगी. जब ऐसा लगता है कि कहानी अब शब्दाकार होने के लिये पूरी तरह से तैयार है, फिर उसके बाद कुछ और नहीं सूझता. कई बार ऐसा होता है कि घटना का पात्र विशेष कई-कई दिनों की मेहनत करवाता है. उसके संवाद, उसकी शैली, कोई विशिष्ट बात, ये सब चीजें खूब काम करवाती हैं. इसलिये क्योंकि कहानी को पठनीय भी होना है और उसमें संप्रेषणीयता भी जरूरी है. पाठक पढे. तो पढता जाये.

मेरे विचार में यदि आप लेखक हैं, आप सब कर सकते हैं. कविता, कहानी, उपन्यास, व्यंग्य, निबंध, सब कुछ. लेकिन उन सब में से भी आपको अपने लिये कुछ खास तलाशना होता है. कुछ खास, जिसमें आपका मन सबसे ज्यादा लगता हो. कविता मैं अपने सुख के लिये आज भी लिखता हूं. लेकिन मुझे ऐसा लगता है कि हिंदी कविता इस समय एक कठिन समय से गुजर रही है. नवगीत और हिंदी गजल के रूप में एक अच्छा विकल्प हो सकता था. लेकिन उसको भी लगभग नकार दिया गया. अब जो कुछ है वह छंदमुक्त है. जब भी कोई चीज मुक्त हो जाती है, तो गुणवत्ता में कमी आती है. एक भीड. है, जो छंद और कविता दोनों से मुक्त होकर लिख रही है. हालांकि इन सबके बीच में दिनेश कुशवाह, कुमार अनुपम, लीना मल्होत्रा, अरुणाभ सौरभ, अनुज लुगुन, अशोक पाण्डेय, विमलेश त्रिपाठी जैसे कवि भी हैं. ये कवि अपार संभावनाएं लिये हुए हैं. ये छंदमुक्त हुए हैं लेकिन कविता से मुक्त नहीं हुए हैं. बस यही देख कर कविता की जगह अपने लिये कहानी को चुना.

इतिहास मेरा सबसे पसंदीदा विषय रहा है. इतिहास के पात्र हमेशा से मुझे आकर्षित करते हैं. यही स्थिति साहित्य के पात्रों के साथ भी है. मन में आता है कि वो पात्र यदि आज के समय में होता तो कैसा होता? क्या करता? उसकी क्या कहानी होती? बस कई बार यही सोचते-सोचते कहानी बन जाती है. अपने पंसदीदा पात्रों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखने की कोशिश करता हूं.

महुआ घटवारिन का पात्र मुझे हमेशा से लुप्रभाता रहा. मुझे ऐसा लगता रहा कि उस पात्र की कोई कहानी यदि वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लिखी जाये तो क्या होगी. महुआ घटवारिन से जब ‘तीसरी कसम’कहानी में परिचय हुआ तो वह पात्र कहीं मन में अटका रह गया. ऐसा लगा कि महुआ घटवारिन की कहानियां तो हमारे चारों तरफ भी बिखरी पडी हैं. और बस वहीं से जन्म हुआ इस कहानी का.मुझे लगता है कि जिस प्रकार भोजन में नमक की भूमिका है वही कथा में यथार्थ की होनी चाहिये. यदि वह आवश्यकता से अधिक होगा तो स्वाद को बिगाड. देगा. किस्सा, कहानी, कथा, ये सब कल्पना की उपज हैं. कल्पना में आपके पास रिजिडनेस नहीं होती, एक प्रकार की फ्लैक्सीबिलिटी होती है. कहानी को अपने हिसाब से मोड.ने की. यथार्थ में आप करना भी चाहें तो नहीं कर पाते. यथार्थ पर खबरें लिखी जा सकती हैं, लेकिन खबरों को नमक की तरह उपयोग करके उसमें कल्पना का ढेर सारा सम्मिर्शण करके कहानी बनायी जाती है. कई बार देखते हैं कि कोई कहानी समाचार की तरह लग रही है, उसमें यह दोष कल्पना की कमी से ही बनता है.

मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि लेखन के लिए खास वक्त या माहौल ही चाहिये. मेरे पास अपने पात्रों का और उन पात्रों से जुडी घटनाओं का एक अच्छा खासा खाका होना चाहिये दिमाग में बस. हां कविता जरूर कुछ माहौल की मांग करती है.

‘चौथमल मास्साब और पूस की रात’को लेखक के रूप में मैं अपनी अब तक की सबसे संतोषजनक रचना मानता हूं. यह कहानी लिखते समय मेरे मन में बडी ऊहापोह थी. इसलिये क्योंकि जरा सी चूक से कहानी में ‘ठूंसी गयी अश्लीलता’के आने का खतरा था. कहानी का विषय ऐसा था कि उसमें बहुत सावधानी की आवश्यकता थी. इस कहानी को पाठकों ने सबसे ज्यादा पसंद भी किया.

रचना पूरी होने के बाद भी कहीं कुछ छूट जाने के एहसास से मुझे नहीं गुजरना पड.ता. दरअसल, कहानी के पहले मैं नोट्स बनाता हूं, जिसमें सब कुछ समेट लेता हूं. फिर नोट्स पर कहानी. मेरे लेखन की मूल चिंता की बात करूं तो इसमें सांप्रदायिकता, धर्म, जाति, अमीरी, गरीबी के आधार पर वर्ग विभाजन विशेष तौर पर शामिल हैं.


ऐसी साहित्यिक कृति के रूप में, जिसे पढ.ने के बाद लगा कि काश इसे मैंने लिखा होता, भालचंद्र जोशी जी की कहानी ‘पालवा’का नाम लूंगा. कहानी में क्या खास था ये मैं शब्दों में नहीं बता सकता. पाठक पढेगे तो खुद जान लेंगे.

इन दिनों कुछ कहानियों पर काम कर रहा हूं और एक उपन्यास को लेकर नोट्स बना रहा हूं. लेखन से इतर और भी बहुत कुछ पसंद है. मसलन फिल्मी गीत और गजलें सुनना, फिल्में देखना. टी वी पर टॉक शो और रियलिटी शो देखना.

लेखन से जुडे. पुरस्कारों का महत्व तो होता ही है. मेरा इनकी अहमियत से कोई इनकार नहीं है. लेखन के लिये एक अतिरिक्त ऊर्जा इनसे मिलती है. बस यह जरूर होना चाहिये कि पुरस्कार लेखन के लिये हो, ऐसा न हो कि लेखन पुरस्कार के लिये होने लगे.

आज जब हर क्षेत्र में गुट बने हुए हैं. साहित्य भी उससे अछूता नहीं. ऐसे में छोटे कस्बों से निकल कर आने वाले व्यक्ति के सामने पहचान का संघर्ष और संकट तो होता है. लेकिन यह इंटरनेट का युग है. जहां दूरियां कोई मायने नहीं रखती हैं. कंप्यूटर तथा इंटरनेट का ज्ञान कई सारी परेशानियों का हल निकाल देता है. सच यह भी है कि छोटे कस्बों से निकल कर आये लोगों ने अकसर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है, वह चाहे कोई भी क्षेत्र हो.

बातचीत : प्रीति सिंह परिहार

जन्म
11 अक्तूबर 1975 को मध्यप्रदेश के सिवनी मालवा में.

प्रकाशित कृतियां
कहानी संग्रह : महुआ घटवारिन और अन्य कहानियां, ईस्ट इंडिया कंपनी. उपन्यास- ये वो सहर तो नहीं.

19वां कथा यूके पुरस्कार, भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, साहित्य का नवोन्मेष सम्मान सहित कई अन्य पुरस्कार.

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