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मानवता के लिए आज भी है प्रासंगिक बुद्ध का संदेश

।।प्रो सिद्धार्थ सिंह।।बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर परिसर में हुए आतंकी हमले के बाद बुद्ध एक बार फिर शिद्दत से याद आ रहे हैं. इसलिए नहीं कि इस बार आतंक का निशाना बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने की स्थली को बनाया गया, बल्कि इसलिए कि हर बीतते दिन मानवता का सीना हिंसा से कहीं ज्यादा लहूलुहान […]

।।प्रो सिद्धार्थ सिंह।।
बोधगया स्थित महाबोधि मंदिर परिसर में हुए आतंकी हमले के बाद बुद्ध एक बार फिर शिद्दत से याद आ रहे हैं. इसलिए नहीं कि इस बार आतंक का निशाना बुद्ध को ज्ञान प्राप्त होने की स्थली को बनाया गया, बल्कि इसलिए कि हर बीतते दिन मानवता का सीना हिंसा से कहीं ज्यादा लहूलुहान नजर आ रहा है. तो क्या हिंसा, युद्ध और उन्माद ही 21वीं सदी में इनसान की नियति है? या कोई रास्ता है, जिस पर चल कर इस हिंसक समय से पार पाया जा सकता है? गौर से सोचने पर जवाब मिलता है- यह रास्ता बुद्ध के संदेशों से होकर जाता है. आज के समय को ज्यादा मानवीय और शांतिपूर्ण बनाने में बुद्ध के संदेशों की प्रासंगिकता को समझने की कोशिश करती विशेष आवरण-कथा

एक प्रसिद्ध आधुनिक बौद्ध भिक्षु से एक पत्रकार ने पूछा कि यदि कोईआपके सामने ही बुद्ध के उपदेशों के संग्रह त्रिपिटक को टॉयलेट में डाल कर फ्लश चला दे तो आप पहला काम क्या करेंगे
? उन्होंने उत्तर दिया- प्लंबर को बुलाऊंगा कि कहीं टॉयलेट जाम न हो जाये. पत्रकार हंसते-हंसते लोटपोट हो गया और आश्‍चर्यचकित भी. यह सहनशीलता, धैर्य और दुश्मन के प्रति भी ऐसा क्रोध एवं द्वेष से रहित भाव देखकर.बुद्ध का अस्तित्व प्रतिमाओं, मंदिरों और पुरोहिताई का मोहताज न तो उनके समय में था, न आज है. बौद्ध धर्म का विस्तार विश्‍व में जहां-जहां भी हुआ, इस संदेश के साथ हुआ कि बौद्ध चिंतन पद्धति अपनाने के लिए व्यक्ति को किसी संस्कृति, समाज, नस्ल या जातीय समूह का अनिवार्य हिस्सा बनने की बाध्यता नहीं है. शायद यही कारण है कि ऐतिहासिक तौर पर तो हम भारतीय बौद्ध, थाई बौद्ध, बर्मी बौद्ध, श्रीलंकाई बौद्ध, चीनी बौद्ध आदि तो देखते ही रहे हैं, अब तो अमेरिकन बौद्ध, फ्रेंच बौद्ध, र्जमन बौद्ध और ब्रिटिश बौद्ध को भी देख रहे हैं. ऐसा सिर्फ इसलिए कि बुद्ध की चिंतन धारा एक संस्कृति से दूसरी संस्कृति तक सहजता पूर्वक प्रवाहित होती रही है. क्योंकि इसका आग्रह कभी भी धर्म संबंधी बाहरी आचरणों पर न होकर मन के उत्तरोत्तर विकास और शुद्धि पर रहा है. न तो बौद्ध धर्म के नीतिशास्त्र में और न ही उसकी साधना पद्धति शमथ और विपस्सना में रत्ती भर भी संप्रदायवाद की गंध है.

बोधगया में हुए बम विस्फोटों ने समूचे बौद्ध जगत ही नहीं, मानवीय मूल्यों, शांति और अहिंसा से सरोकार रखने वाले वैश्‍विक समुदाय के सभी लोगों को हिला कर रख दिया है. बौद्ध धर्म के चार अति प्रमुख तीर्थ स्थलों- लुम्बिनी, बोधगया, सारनाथ और कुशीनगर में बुद्ध की ज्ञान प्राप्ति की भूमि होने के कारण बोधगया का विशेष महत्व है. बौद्ध सूत्रों को बुदबुदाते, पाठ करते कतारबद्ध या शांत ध्यान मुद्रा में बैठे पूरे विश्‍व भर से आये, काषाय वस्त्रधारी बौद्ध भिक्षु-भिक्षुणियां हों या भावविह्वल आम बौद्धों या गैर बौद्धों के चेहरे हों उस स्थान की आध्यात्मिक तरंगों में पहुंचते ही सभी का मन स्वभावत: शांत और मुक्त हो जाता है. ऐसे में सभी के मन में यह प्रश्न उठता है कि उन बौद्ध स्थलों ने या फिर उन हिंसा मुक्त निश्छल निर्दोष चेहरों ने किसी का क्या बिगाडा था कि आतंकवाद की टेढी नजरों ने उनको भी नहीं बख्शा!इक्कीसवीं सदी तक आते-आते बुद्ध न तो एक ऐतिहासिक व्यक्ति मात्र रह गये हैं, न ही एक धर्म के प्रवर्तक मात्र. आज जब दुनिया के सामने ‘युद्ध या बुद्ध?’ का प्रश्न चुनौती बन कर खडा है और बौद्ध धर्म जो सहनशीलता, धैर्य, अहिंसा, मैत्री और करुणा का हमेशा प्रतीक रहा है, में स्वयं अपने अंदर भी हिंसा और बदले जैसी कुछ आवाजें उठने लगी हैं (जैसा कि एक बहुप्रतिष्ठित अमेरिकी पत्रिका ने हाल ही में अपनी कवर स्टोरी में दावा किया है), बुद्ध के जीवन-दर्शन की ओर पलट कर देखना, उसकी आज के समय में उपयोगिता और प्रासंगिकता पर विचार करना एक लिहाज से अपने भीतर की मानवता का फिर से संधान करने जैसा है.

बुद्ध से जुड.ने के लिए पहनावे, बाल, दाढी, या भाषा आदि किसी भी चीज की बाध्यता नहीं रही है. यह अन्य धर्मों के प्रति इतना उदार रहा है कि जिस किसी भी भू-भाग में इसका प्रवेश हुआ, वहां के स्थानीय धर्मानुयायियों ने इसे कभी भी अपने लिए खतरे के तौर पर महसूस नहीं किया और नतीजे के तौर पर बॉन धर्म से तादात्म्य बिठा कर वह तिब्बती बौद्ध धर्म बन गया, शिंतों से आदान-प्रदान कर जापानी बौद्ध धर्म और ताओ और कन्फ्यूशियस धर्मों से संगति बिठाकर चीनी बौद्ध धर्म बन गया. यह स्वभाव बौद्ध धर्म की बुनियाद है जिसमें बुद्ध स्वयं त्रिपिटक में कहते हुए दिखायी पड.ते हैं कि ‘बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें अन्य मतावलंबी मुझसे सहमत नहीं हो सकते हैं और बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनमें संभवत: मैं उनसे सहमत नहीं होऊ. अत: मैं उनसे आग्रह करता हूं कि आइये जिन बातों में हम एक-दूसरे से सहमत नहीं हैं उन बातों को किनारे रख दें और जिन बातों में हम एक-दूसरे से सहमत हैं उन पर एक साथ मिल कर विचार करें, वार्ता करें.’ बुद्ध के इन्हीं विचारों का प्रभाव सम्राट अशोक द्वारा लिखवाये गये शिलालेख संख्या 12 में दिखायी पड.ता है. जिसमें लिखा है, ‘व्यक्ति को अपने ही धर्म मात्र का आदर और दूसरे धर्मों की निंदा नहीं करनी चाहिए, बल्कि उसे दूसरे धर्मों को भी इस या उस कारण से सम्मान देना चाहिए. ऐसा करके व्यक्ति अपने ही धर्म की उत्रति नहीं करता, बल्कि दूसरे धर्मों की भी सेवा करता है. जो मात्र अपने धर्म की प्रशंसा और अन्य धर्मों की निंदा करते हैं और सोचते हैं कि ऐसा करके मैं अपने धर्म की प्रगति कर रहा हूं, वे वास्तव में ऐसा करके अपने ही धर्म की जड. खोद रहे हैं, उसे नुकसान पहुंचा रहे हैं. इसलिए मित्रता का भाव ही सर्वोत्तम है. सभी को दूसरे के विचारों को भी सुनने की इच्छा रखनी चाहिए.’

बुद्ध का मुख्य आग्रह धर्म के मानव जीवन में व्यावहारिक तौर पर सार्थक भूमिका निभाने की शिक्षा देने पर रहा. बुद्ध अपने धर्म की उपमा एक बेडे. से देते हुए अपने शिष्यों को एक कथा सुनाते हैं, ‘ एक बार पानी में डूबते हुए एक व्यक्ति को एक बेडे. का सहारा मिल गया. बेडे. की सहायता से उस पार जाने के बाद उस व्यक्ति के मन में यह भावना आयी कि इस बेडे. ने उसका बडा उपकार किया है, इसलिए उसे इस बेडे. को साथ घर ले जाना चाहिए. घर दूर था, लकडी का बेडा पानी मे भीग कर बेहद भारी हो चुका था, और वह व्यक्ति पसीने से तर-बतर उसे ढोने की हालत में न होते हुए भी कोशिश में लगा हुआ था. उसी समय उसकी मुलाकात बुद्ध से होती है. पूरा वृत्तांत सुनने के बाद बुद्ध उससे कहते हैं कि मेरे भाई! इस बेडे. की जो भूमिका थी वह पूरी हुई. अब उसे ढो कर ले जाने की कोशिश में तो तुम ही मर जाओगे. इसलिए अब ऐसा करने का कोई औचित्य नहीं बैठता. इस कथा को सुनाने के बाद बुद्ध कहते हैं कि मेरा धर्म भी बेडे. के समान है, पार पहुंचाने के लिए, ढोने के लिए नहीं. आधुनिक संदभरें में ‘पार पहुंचना’ मानवीय मूल्यों के चरम उत्कर्ष के तौर पर लिया जाना चाहिए.

बुद्ध के अनुसार यह किसीभी व्यक्ति या समाज के विकास के लिए अत्यंत आवश्यक है कि उसमें यह विवेक हो कि उसके लिए प्राथमिक मुद्दे क्या हैं? समाधान कितना ही संतोषजनक क्यों न हो, यदि मुद्दा ही अप्रासंगिक है, तो वह समाज को पीछे की तरफ ही ढकेलेगा. बुद्ध के दर्शन के आईने में यह विचार ज्यादा प्रासंगिक है कि भारतीय समाज के सामने लक्ष्य क्या होना चाहिए? धर्म और जाति आधारित संघर्ष, मंदिर-मसजिद विवाद जैसे निर्थक मुद्दे या रोटी-कपडा और मकान जैसे वास्तविक मुद्दे!बौद्ध धर्मस्थल या किसी भी प्रकार के आस्था के केंद्र पर हमला सिर्फ धर्म के मुद्दे के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए, बल्कि सभी धर्म के व्यक्तियों और सम्मानित प्रप्रतिनिधियों को एक साथ उसकी समान रूप से निंदा करनी चाहिए. वाराणसी के संकटमोचन मंदिर में बम विस्फोट के तुरंत बाद वहां हिंदू, मुसलिम, बौद्ध, ईसाई एवं सिख धर्मों के धर्म गुरुओं ने साहित्यकारों, कलाकारों तथा बुद्धिजीवियों ने जिस एकजुटता के साथ सड.क और एक मंच पर आकर घटना की निंदा की, उस तरह के उदाहरण ऐसी हर घटना के बाद दिखायी पड.ने चाहिए. जिससे कि आतंकवादियों चाहे वे कोई भी हों, के हौसले पस्त हो जायें.

(लेखक बीएचयू में बुद्धिस्ट स्टडीज के प्रोफेसर हैं)

युद्ध और बुद्ध
बौद्ध धर्म वास्तव में धर्म से ज्यादा जीवन को एक खास लय में जीने का तरीका है. आज के लहूलुहान समय में अहिंसा, करुणा, शांति, सभी के साथ भाईचारे का बुद्ध का संदेश कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गया है. ऐसे समय में जब आतंकवादी बुद्ध की धरती बोधगया तक को अपने निशाने पर लेने से नहीं हिचक रहे, बुद्ध को बचाने का रास्ता ‘बुद्ध शरणं गच्छामि’ के मंत्र में ही छिपा है. बुद्ध की शरण में जाना वास्तव में शांति, सहिष्णुता, भाईचारे के बुद्ध के संदेशों का फिर सेस्मरण करना है. साथ में यह समझना भी जरूरी है कि बुद्ध का संदेश तो वास्तव में हर धर्म का र्मम है. दुनिया के हर धर्म की बुनियाद ही मानवता और मानव प्रेम है. तिब्बती बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा ने वर्ष 2011 में दिल्ली में विश्‍व बौद्ध धर्म सम्मेलन में बोलते हुए कहा था, ‘ दुनिया को बुद्ध द्वारा पढ.ाये गये अहिंसा के पाठ और मानव-मानव की एकता के सिद्धांत की तरफ लौटने की जरूरत है.

दुनिया आज जिन समस्याओं का सामना कर रही है, उसकी जड. में इन मूल्यों से दूर चला आना है. वह मानवता हमारी नजरों से ओझल हो गयी है, जो हम सभी को परिवार में बांधती है.’ दलाई लामा का कहना था कि जैसे-जैसे विश्‍व में असिहष्णुता बढ. रही है, बुद्ध और प्रासंगिक होते जा रहे हैं. बुद्ध को भले 2600 वर्षपहले बोधगया में ज्ञान की प्राप्ति हुई हो, लेकिन उनकी शिक्षा आज भी मौजूं है. दलाई लामा ने बुद्ध की शिक्षा को सामाजिक मूल्यों से जोडा था, जिसके मुताबिक साथी मानव की सेवा करना ही असल धर्म है. बुद्ध का अहिंसा में विश्‍वास की तुलना संभवत: सिर्फ महात्मा गांधी से की जा सकती है. बुद्ध अपने एक उपदेश में कहते हैं कि दुनिया से घृणा को घृणा से नहीं बल्कि सिर्फ प्रेम से खत्म किया जा सकता है. यह एक पुरातन नियम है. यही कारण है कि इतिहास में कई बौद्धों ने किसी भी परिस्थिति में हिंसा के मार्ग को जायज नहीं माना है.

बौद्ध सिद्धांत हालांकि आत्मरक्षा को जायज मानता है, लेकिन आत्मरक्षा में भी किसी की हत्या को उचित नहीं ठहराता. बौद्ध धर्म को माननेवाले देशों को इस सिद्धांत की वजह से ऐतिहासिक दुविधा का भी सामना करना पडा है. उनके लिए यह निर्णय करना कठिन रहा है कि आखिर ऐसा कैसे किया जा सकता है. लेकिन फिर भी कमोबेश बौद्धों की आस्था अहिंसा पर बनी रही है. हालांकि ऐसे भी उदाहरण हैं, जब इस सिद्धांत से विचलन दिखायी दिया है. कहा जाता है कि 14वीं सदी में मंगोलों को चीन से बाहर हटाने के लिए बौद्ध लडाकों ने युद्ध का नेतृत्व किया था. जापान में बौद्ध संन्यासी सामुराई लडाकों को प्रशिक्षित किया करते थे. 20वीं सदी में कुछ जैन गुरुओं ने जापान के विस्तारवाद का सर्मथन किया था. श्रीलंका में भी सिंहली बौद्ध अहिंसा के इस पथ से विचलित होते दिखे हैं. जाहिर है बौद्ध धर्म का अर्थ सिर्फ मजहब से नहीं है, उन जीवन मूल्यों से है, जिसका संदेश बुद्ध ने दिया था. इन संदेशों को जीवन में उतारनेवाला ही असल बौद्ध है. वही बुद्ध है. फिर वह चाहे वह किसीभी मजहब या जाति का हो. बौद्ध धर्म मन को शुद्ध करने पर बल देता है. इसके अनुसार सभी गलत कार्य मन में ही उपजते हैं. मन परिवर्तित हो जाये, तो गलत कार्य खुद-ब-खुद समाप्त हो जायेंगे. यही बात गांधी भी किया करते थे. आज के समय के लिए बौद्ध और गांधी दोनों पहले से कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो उठे हैं. हमें दोनों की जरूरत है. अहिंसा के पाठ की जरूरत है. दोनों हमारी धरोहर हैं

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