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वैचारिक स्वतंत्रता को प्रमुखता

।। रविदत्तबाजपेयी ।।– प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आज पेश है पत्रिका ‘सेमिनार’की यात्रा. सितंबर 1959 में थापर दंपती ने इसकी शुरुआत की. लाभ-हानि के आंकड़ों से ऊपर इस पत्रिका की वर्तमान में प्रसार संख्या केवल 4,000 है. यह पत्रिका आज भी बौद्धिक कुटीर उद्योग के रूप में चल रही है, जहां […]

।। रविदत्तबाजपेयी ।।
– प्रतिरोध के प्रतिमान श्रृंखला की दूसरी कड़ी में आज पेश है पत्रिका ‘सेमिनार’की यात्रा. सितंबर 1959 में थापर दंपती ने इसकी शुरुआत की. लाभ-हानि के आंकड़ों से ऊपर इस पत्रिका की वर्तमान में प्रसार संख्या केवल 4,000 है. यह पत्रिका आज भी बौद्धिक कुटीर उद्योग के रूप में चल रही है, जहां विचारधारा नहीं, स्वतंत्र विचारों और वैचारिक स्वतंत्रता को प्रमुखता दी जाती है. –

ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन से मुक्ति के बाद नव स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत के भविष्य और स्वरूप को लेकर जहां एक ओर गंभीर आशंकाएं थीं, वहीं दूसरी ओर विश्व में पनप रही उत्तर औपनिवेशिक व्यवस्था में एक मार्गदर्शक के रूप में भारत की भूमिका को लेकर असीम उत्साह भी था. 1940-50 के दशकों का समय छोटे, स्वतंत्र और विचारोत्तेजक समाचार पत्रों-पत्रिकाओं की स्थापना का दौर था, जब स्वतंत्र चिंतकों-विचारकों ने बड़े उद्योगों और विशिष्ट विचारधारा (साम्यवादी, समाजवादी, उपभोक्तावादी) के आश्रय के बिना ही समसामयिक विषयों पर मौलिक व संतुलित विमर्श के लिए समाचार पत्र- पत्रिका को एक माध्यम के रूप में प्रस्तुत किया.

रोमेश थापर (1922-1991) एवं उनकी पत्नी राज थापर (1926-1987) ने पत्रकारिता में एक अनूठी जुगलबंदी प्रस्तुत की. लाहौर में अपने विद्यार्थी जीवन में दोनों कम्युनिस्ट आंदोलन से बहुत नजदीक से जुड़े हुए थे, सन 1946 में अपने विवाह के उपरांत दोनों ने बंबई (अब मुंबई) आ गये और यहां भारतीय जन नाट्य मंच (इप्टा), पत्रकारिता, फिल्म-नाटकों में लेखन-अभिनय जैसे अनेक काम में व्यस्त रहे. वैसे तो रोमेश थापर वाम विचारधारा के समर्थक थे, लेकिन कम्युनिस्ट पार्टी के विधिवत (कार्डधारक) सदस्य नहीं थे. उनकी पत्रकारिता की प्रतिभा को देखते हुए उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की विचारधारा के समर्थक समाचारपत्र ‘क्रॉसरोड्स’ के मुद्रक-प्रकाशक-संपादक बनने का अवसर मिला.

इस समाचारपत्र में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की नीतियों की तीव्र आलोचना की जाती थी. एक मार्च 1950 को मद्रास प्रांत की सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी को गैर कानूनी घोषित करते हुए ‘क्रॉसरोड्स’ अखबार के मद्रास में वितरण पर रोक लगा दी. रोमेश थापर ने इसे संविधान-सम्मत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला मानते हुए सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दाखिल कर दी, न्यायालय का फैसला रोमेश थापर के पक्ष में आया.

भारतीय कानून व संविधान के जानकार रोमेश थापर बनाम मद्रास सरकार नामक इस ऐतिहासिक मुकदमे से भली-भांति परिचित है. इस अदालती फैसले के बाद भारत सरकार को संविधान में पहले संशोधन की आवश्यकता पड़ी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को जन सुरक्षा पर खतरे के अधीन कर दिया गया. इस ऐतिहासिक उपलब्धि के कुछ समय बाद ही रोमेश व राज थापर का कम्युनिस्ट आंदोलन से मोहभंग हो गया, जिसके बाद रोमेश थापर ने विभिन्न समाचार माध्यमों में स्वतंत्र लेखन का काम किया. अपने स्वतंत्र लेखन के दौरान थापर दंपती ‘इकॉनोमिक वीकली’ नामक साप्ताहिक के प्रख्यात संपादक सचिन चौधरी के संपर्क में आये और वे ‘इकॉनोमिक वीकली’ के प्रखर बौद्धिक स्वरूप ने बहुत प्रभावित हुए.

‘इकॉनोमिक वीकली’ से प्रेरणा लेकर रोमेश व राज थापर ने भी एक और वैचारिक-बौद्धिक पत्रिका की शुरुआत करने का विचार किया. एक ऐसी पत्रिका जो ‘इकॉनोमिक वीकली’ की प्रतिलिपि नहीं, बल्कि जिसका अपना विशिष्ट व्यक्तित्व हो. एक साप्ताहिक पत्रिका के प्रकाशन में जितने बड़े पैमाने पर काम करना जरूरी था, थापर दंपती के पास उस अनुपात में आवश्यक मानव व आर्थिक संसाधन उपलब्ध नहीं थे, इसलिए काफी सोच-विचार के पश्चात उन्होंने एक मासिक पत्रिका के प्रकाशन का निर्णय लिया.

सितंबर 1959 में थापर दंपती ने एक ऐसी पत्रिका की शुरुआत की, जिसमें समकालीन राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक विषय पर एक विचार गोष्ठी का आयोजन किया जा सके. सबसे पहले मूल विषय और संबंधित प्रश्न का प्रतिपादन उसके बाद लगभग एक दर्जन विशेषज्ञों द्वारा विषय के पक्ष अथवा विपक्ष में उनके विचार और अंत में उपसंहार. यह उपसंहार किसी अंतिम निष्कर्ष की घोषणा न होकर पाठकों को अपने ज्ञान-विवेक के आधार पर अपनी सम्मति बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देता था.

पत्रिका का स्वरूप किसी अकादमिक या बौद्धिक संस्थान में वैचारिक संगोष्ठी के आयोजन-सा ही था और इस कारण से ही पत्रिका को नाम ‘सेमिनार’ दिया गया. इस पत्रिका में कोई संपादकीय न होकर, एक आभासी ‘सेमिनार’ के अलावा प्रसंगोचित पुस्तक समीक्षाएं और प्रस्तुत विषय पर संदर्भ ग्रंथों की एक सूची भी संलग्‍न की जाती थी. किसी विचारवान व जिज्ञासु पाठक को इससे अधिक और क्या चाहिए था.

अपनी स्थापना के दो सालों के भीतर ही थापर दंपती ने अपनी पत्रिका को नयी दिल्ली स्थानांतरित कर दिया और बहुत जल्द ही दिल्ली के विशिष्ट-संभ्रांत समाज के अंग बन गये. एक समय तो थापर दंपती प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के अंतरंग मित्र-सलाहकार मंडली के सदस्य भी रहे, लेकिन 1975 में आंतरिक आपातकाल की घोषणा के बाद जब सूचना माध्यमों पर सेंसरशिप लागू की गयी, तो केवल 4000 प्रसार संख्या वाली इस पत्रिका ‘सेमिनार’ पर भी सेंसरशिप थोप दी गयी.

राज-रोमेश थापर ने सेंसरशिप के विरोध-स्वरूप ‘सेमिनार’ पत्रिका के ग्राहकों को एक खुला पत्र लिखा और पत्रिका का प्रकाशन छह महीने के लिए स्थगित कर दिया, जो आपातकाल की समाप्ति के बाद ही पुन: आरंभ हुआ. वर्ष 1987 में ‘सेमिनार’ के संस्थापक संपादकों राज व रोमेश थापर के निधन के बाद भी उनकी पुत्री मालविका ने अपने पति तेजबीर सिंह के साथ मिल कर इस पत्रिका को इसके मूल दर्शन-सिद्धांत-संस्कृति के साथ चलाये रखा है.

1959 से आरंभ होकर ‘सेमिनार’ ने समसामयिक भारत के महत्वपूर्ण समस्याओं-उलझनों-प्रश्नों के विश्‍लेषण का काम किया है. इस पत्रिका में भारत के लगभग सभी प्रमुख विचारकों-चिंतकों ने अपने दृष्टिकोण प्रस्तुत किये हैं. ‘सेमिनार’ बौद्धिक उद्यम का एक अनूठा उदाहरण है, जहां अकादमिक दृष्टिकोण-कल्पनाशीलता को यथार्थ जीवन के धरातल के साथ जोड़ा जाता है. ‘सेमिनार’की सबसे बड़ी विशेषता जटिल अवधारणाओं को सामान्य लोगों की समझ के अनुरूप प्रस्तुत करना है. हर महीने की पहली तारीख को किसी एक विषय पर भारत के इतने विद्वानों के विचार संकलित-संपादित करके प्रकाशित करने में राज व रोमेश थापर के संपर्को और व्यक्तिगत संबंधों की सबसे प्रमुख भूमिका रही थी और यह परंपरा आज भी जारी है.

सामान्य लोगों की समझ के अनुरूप ‘सेमिनार’ में प्रकाशित लेखों का बौद्धिक-अकादमिक पक्ष भी बेहद गंभीर है. भारत के प्रमुख मानव विज्ञानियों जैसे निर्मल कुमार बोस, वेरियर एल्विन, एआर देसाई, आंद्रे बेटिल्ले एवं अन्य विद्वानों द्वारा ‘सेमिनार’ में प्रकाशित लेखों का संकलन मानव विज्ञान पर विश्वविद्यालयीन पाठ्य- पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया.

केवल 4,000 प्रसार संख्या वाली इस पत्रिका ‘सेमिनार’ का प्रभाव इसकी ग्राहक-पाठक संख्या और लाभ-हानि के आंकड़ों से कहीं बहुत ऊपर है और यह पत्रिका आज भी एक परिवार के बौद्धिक कुटीर उद्योग के रूप में चल रही है. जहां विचारधारा नहीं, स्वतंत्र विचारों और वैचारिक स्वतंत्रता को प्रमुखता दी जाती है.

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