।। अनुज कुमार सिन्हा ।।
सारी अटकलें धरी की धरी रह गयीं. विधानसभा में हेमंत सोरेन की सरकार ने अच्छे माजिर्न से विश्वास मत हासिल कर लिया. सदन में न श़ोर–शराबा, न सत्ता पक्ष की ओर से जीत का जश्न, न विपक्ष की ओर से हार का गम. सब कुछ स्वीकार्य. यह दृश्य था सदन का. अध्यक्ष की कुरसी पर बैठे थे सीपी सिंह.
अध्यक्ष तब चुने गये थे, जब राज्य में अजरुन मुंडा की सरकार थी, झामुमो के सहयोग से. सरकार बदल गयी. झामुमो, कांग्रेस, राजद की सरकार बन गयी. सीपी सिंह ने इस्तीफा नहीं दिया.
सत्ता पक्ष ने भी सदन में स्पीकर के इस्तीफे पर जोर नहीं दिया. अध्यक्ष पर भरोसा किया. इसी अध्यक्ष ने विश्वास मत के दौरान पूरा सदन चलाया. न तो सत्ता पक्ष को शिकायत, न ही विपक्ष को. ऐतिहासिक घटना. ऐसे उदाहरण विरले ही मिलते हैं. लोकतंत्र के लिए अच्छा संकेत.
झारखंड विधानसभा की देश भर में बेहतर छवि बनी. हेमंत सोरेन (सत्ता पक्ष) ने पूरी लोकतांत्रिक प्रक्रिया, कानूनी प्रक्रिया का पालन किया और आंकड़ा पूरा किया. सत्ता पक्ष और खुद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन का कद और बढ़ गया होता, झारखंड विधानसभा की गरिमा और बढ़ गयी होती, इसमें चार चांद लग गये होते, यदि इसमें नैतिकता को भी शामिल कर लिया जाता. सरकार भी बच जाती और आदर्श भी प्रस्तुत हो गया होता.
यह तो तय था कि सत्ता पक्ष को 43 विधायकों का समर्थन है. ये सभी सदन में आये भी. मत भी दिया. सीता सोरेन को देर रात में पुलिस ने जमानत दी. वह पहले भी सरेंडर कर जमानत ले सकती थी. क्या कभी किसी सामान्य नागरिक के साथ रात में जमानत के लिए पुलिस का व्यवहार ऐसा ही होता है? नलिन सोरेन ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मत देने के कुछ समय पहले सरेंडर किया और वोटिंग में भाग लिया.
झारखंड की पुलिस इन दोनों को महीनों से खोज रही थी. ये तो झारखंड में ही थे. झारखंड पुलिस इन्हें पकड़ सकती थी, पर नहीं पकड़ी. छापामारी का नाटक किया गया. कड़ी सुरक्षा के दावे किये गये. नलिन सोरेन सरेंडर करते हैं और वोट देते हैं. इसका अर्थ यही है कि पुलिस या तो अक्षम है या राजनीतिक/प्रशासनिक दबाव में काम करती है. नलिन सोरेन विदेश में नहीं थे.
इसी झारखंड में छिपे थे. सार्वजनिक कार्यक्रम में भी भाग लिया था. पुलिस को हिम्मत नहीं थी कि वह पकड़े. इससे पुलिस की छवि ही खराब हुई है. जनता में यही मैसेज जाता है कि जो पुलिस एक फरार विधायक को पकड़ नहीं सकती, कैसे आप उससे उम्मीद कर सकते हैं कि राज्य में किसी बड़े नक्सली को, बड़े अपराधी को पकड़ेगी. हां, हो सकता है कि सत्ता पक्ष का दबाव हो, भय हो. पुलिस को दबाव मुक्त होकर काम करना होगा.
राज्य में क्या कोई एक भी पुलिस पदाधिकारी ऐसा नहीं है, जिसमें यह हिम्मत हो कि दबाव कुछ भी हो, अपने कर्तव्य को वह निभायेगा ही. यह नहीं कहा जा सकता कि नलिन सोरेन या सीता सोरेन ने गलत तरीके से विधानसभा में प्रवेश किया, क्योंकि एक को पुलिस ने जमानत दी, दूसरे ने सरेंडर किया. सारा दोष अब आता है पुलिस पर. पुलिस कर क्या रही थी. अगर वह पहले पकड़ ली होती, तो पुलिस का ही नाम होता. जहां तक हेमंत सोरेन का सवाल है, आंकड़ा तो उनके पास था ही.
उनके विधायकों ने कानूनी प्रक्रिया को पूरा किया और मत दिया. काश, मुख्यमंत्री थोड़ी हिम्मत दिखाते. अगर वे सार्वजनिक तौर पर यह तय करते, घोषणा कर देते कि उनके दो विधायकों के खिलाफ मामले चल रहे हैं, इसलिए नैतिकता के आधार पर उन दोनों को उनकी पार्टी वोटिंग में भाग लेने नहीं देगी.
हेमंत सोरेन के इस निर्णय से उनका, पार्टी का, सत्ता पक्ष का और झारखंड का कद काफी बढ़ गया होता. सरकार फिर भी बचती. हां, जीत का अंतर दो कम होता. क्या फर्क पड़ता इससे?. यही अवसर आया था सावना लकड़ा के पास. हाइकोर्ट के आदेश से वे आये थे. उन्होंने कानूनी प्रक्रिया पूरी की थी. हाइकोर्ट ने कहा था कि सावना के वोटिंग अधिकार पर विधानसभा अध्यक्ष निर्णय करेंगे.
अध्यक्ष ने यह निर्णय खुद सावना लकड़ा के विवेक पर छोड़ दिया. उस समय तक यह तय हो गया था कि सत्ता और विपक्ष के पास कितने विधायक हैं. अगर सावना अपने विवेक के आधार पर निर्णय लेते हुए वोटिंग से अपने को अलग कर लेते, तो सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ता. सिर्फ जीत का अंतर एक कम हो जाता पर इससे खुद सावना लकड़ा की अलग पहचान बनती.
मामूली सुधार से झारखंड के माननीय विधायक पूरे देश को बेहतर संदेश दे सकते थे. थोड़ी चिंता तब होती है, जब बहस के दौरान कुछ विधायक हल्के शब्दों का प्रयोग करते हैं. ऐसा देखने को मिला. अपने सहयोगियों के प़्रति ऐसी टिप्पणी, जिसे निकालने पर अध्यक्ष मजबूर हो जाते हैं. विधानसभा और विधायक दोनों की अपनी मर्यादा है.
इसका सम्मान होना चाहिए. इसी विधानसभा में कई ऐसे युवा विधायक हैं, जिन्होंने गंभीरता से अपनी बातें रखीं, तर्क दिया, पक्ष/विपक्ष की नीतियों पर सवाल उठाया, झारखंड के बेहतर भविष्य की बात की. अब हेमंत सोरेन की सरकार को आगे का काम करना है. चुनौतियां हैं. उन्हें ठोस निर्णय लेने होंगे. दबाव से मुक्त होना होगा. उन्होंने सदन में ट्रांसफर–पोस्टिंग नहीं करने की चर्चा भी की थी. इसे अमल में लाना होगा. पक्ष–विपक्ष को राज्य के हित में काम करना होगा. ऐसा कर ही बेहतर, सुंदर, विकसित झारखंड बनाया जा सकता है.