प्रशिक्षण के साथ स्थानीय स्तर पर बाजार की उपलब्धता भी है जरूरी
गांवों के विकास लिए चाहे जो भी कार्यक्रम चलाये जायें, उसमें पंचायतों की भूमिका अहम है : अनिन्दो बनर्जी अनिन्दो बनर्जी प्रैक्सिस नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था में कार्यक्रम प्रभाग के निदेशक हैं. बढ़ती आबादी को उनकी योग्यता के अनुरूप काम देने और बाजार के जरूरतों के अनुरूप युवाशक्ति को तैयार करने के लिए केंद्र सरकार ने […]
गांवों के विकास लिए चाहे जो भी कार्यक्रम चलाये जायें, उसमें पंचायतों की भूमिका अहम है : अनिन्दो बनर्जी
अनिन्दो बनर्जी प्रैक्सिस नामक अंतरराष्ट्रीय संस्था में कार्यक्रम प्रभाग के निदेशक हैं. बढ़ती आबादी को उनकी योग्यता के अनुरूप काम देने और बाजार के जरूरतों के अनुरूप युवाशक्ति को तैयार करने के लिए केंद्र सरकार ने देश के सभी राज्यों में कौशल विकास कार्यक्रमों की शुरुआत की है. ये कार्यक्रम बिहार-झारखंड के गांवों में रोजगार सृजन में कितने कामयाब हुए हैं, इनमें किस तरह के बदलाव की जरूरत है ताकि इन्हें पर्याप्त सफलता मिल सके और युवाशक्ति को रोजगार के अभाव में बड़े शहरों की ओर पलायन करने को नहीं मजबूर होना पड़े. ये अहम सवाल हैं. इन्हीं बिंदुओं पर पंचायतनामा के लिए संतोष कुमार सिंह से उनसे खास बातचीत की. प्रस्तुत है प्रमुख अंश :
क्या देश में ग्राम सभाएं सही तरीके से काम कर रही हैं?
देश का मौजूदा आर्थिक विकास का मॉडल गांव केंद्रित नहीं है. यही कारण है कि देश में आर्थिक विकास के तमाम दावों के बावजूद आर्थिक विषमता के सवाल पर हम पिछड़ते नजर आ रहे हैं. लोगों की आमदनी घट रही है. बिहार में किये गये आर्थिक सर्वेक्षण को आधार के रूप में देखें तो पटना की आमदनी शिवहर से 10 गुणा ज्यादा है. बिहार जैसे राज्य में लोगों की चालू कीमतों पर वार्षिक आय 25,653 रुपया और प्रतिमाह 2,138 रुपया है, जो कि इस महंगाई के युग में अपर्याप्त है.
लेकिन कहा तो यह जा रहा है कि सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं खासकर मनरेगा के कारण लोगों की आर्थिक स्थिति में बदलाव आया है?
देखिए, मनरेगा की योजना अगर सही तरीके से लागू की जाये और लोगों को योजना के अनुरूप 100 दिन के रोजगार की गारंटी दी जाये तो निश्चित रूप से इस योजना के फलस्वरूप लोगों की आमदनी बढ़ेगी, उनकी क्रय क्षमता भी बढ़ेगी. लेकिन योजना की वास्तविक स्थिति काफी खराब है. बिहार में पिछले वर्ष मात्र 5.1 फीसदी लोगों को ही 100 दिन का रोजगार मिला. अगर ऐसा नहीं होता तो लोगों की प्रतिमाह आमदनी इतनी कम न होती. मात्र प्रतिमाह 14 दिन के रोजगार से ही प्रतिव्यक्ति मासिक आमदनी के बराबर आय का अर्जन ग्रामीणों द्वारा किया जा सकता था. आज भी देश की अधिकतर आबादी कृषि पर निर्भर है. ज्यादातर किसान सीमांत किसान हैं. बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक अनुसूचित जाति/जनजाति की जनसंख्या के 80 फीसदी लोग लीज पर जमीन लेकर खेती का काम करते हैं. ऐसे में ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति में बेहतरी की सहज कल्पना की जा सकती है. बिहार में गैर कृषि क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ है, इसके कारण कृषि पर निर्भरता ज्यादा है, और यही कारण है कि गांवों में बेरोजगारी काफी है.
गांवो के विकास के लिए खासकर युवाओं के बीच रोजगार सृजन के लिए सरकार द्वारा कौशल विकास कार्यक्रम चलाये गये हैं. केंद्र सरकार ने इन कार्यक्रमों के लिए वित्तीय प्रावधान भी किया है? इनका कितना प्रभाव है?
देखिए, प्रभाव की बात तब होती है, जब व्यापकता हो. ऐसा नहीं है कि कौशल विकास की दिशा में बिल्कुल काम नहीं किया गया है. काम हुए हैं, लेकिन यह इतने सीमित हैं कि व्यापक बदलाव की दिशा की ओर कदम नहीं बढ़ा पाये हैं. बिहार झारखंड जैसे राज्य में चुनिंदे स्थलों पर सीमित स्तर पर पॉलटेक्निक और आइटीआइ खोले गये हैं. महादलित विकास योजना के तहत दशरथ मांझी कौशल विकास योजना चलायी जा रही है. इसके तहत युवाओं के कौशल विकास के लिए आठ अलग-अलग तरह के पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं. कई जगहों पर वसुधा केंद्र के जरिए भी युवाओं के कौशल विकास का काम किया गया है. कुछ लोगों ने वसुधा केंद्र के जरिए रोजगार भी पाया है. लेकिन ऐसी योजनाओं को व्यापक तौर पर चलाये जाने की जरूरत है, जिसका अभाव दिखता है. अभी भी वसुधा कें्रद पूरे राज्य में संचालित नहीं किये जा रहे हैं, जो कि ऐसे कार्यों के लिए नोडल एजेंसी का काम कर सकते हैं.
किन-किन क्षेत्रों में युवाओं के कौशल विकास किये जाने की जरूरत है, ताकि उन्हें रोजगार से जोड़ा जा सके?
बिहार और झारखंड की दृष्टि से देखें तो कई ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं, जहां इन इलाकों के युवाओं के कौशल विकास की जरूरत है. नर्सिंग, शिक्षा, हॉस्पिटलिटी, कंप्यूटर ज्ञान, ज्वेलरी मेंकिंग, कृषि, पशुपालन, पॉल्ट्री फार्म, किसान कॉल सेंटर, आदि सभी क्षेत्रों में युवाओं के कौशल विकास की दरकार है. यदि कृषि के साथ पशुपालन को व्यापक पैमाने पर शुरू किया जाये तो बड़ी संख्या में युवाओं को रोजगार मिल सकता है. मत्स्य पालन के क्षेत्र में रोजगार पाने के लिए कौशल को विकसित किया जा सकता है. लेकिन पिछले दिनों आयी आपदाओं ने मत्स्य पालन के रोजगार को काफी प्रभावित किया है. इसके साथ ही परंपरागत कलाओं जैसे मधुबनी पेंटिंग, आदिवासी समुदाय के बीच सदियों से चले आ रहे परंपरागत ग्रामीण कलाओं के सवर्द्धन के जरिए भी रोजगार पाया जा सकता है. लेकिन यह भी तथ्य है कि केवल कौशल विकास कर देने मात्र से रोजगार की गारंटी नहीं होती. कौशल विकास की योजनाओं को बाजार की जरूरतों से जुड़ना होगा और बाजार से जुड़ने के लिए पूंजी की जरूरत होती है. बिहार और झारखंड जैसे इलाकों के युवाओं की बुनियादी समस्या पूंजी की है. विभिन्न कार्यों में दक्ष युवा भी पूंजी के अभाव में उन कार्यों को नहीं कर पाते, जिसमें उन्होंने दक्षता हासिल की है. अपनी दक्षता वाले कार्यों को करने के लिए या तो उन्हें बाहरी राज्यों में जाना पड़ता है या फिर स्थानीय स्तर पर उन कार्यों को करना पड़ता है, जो उपलब्ध हैं. इसलिए कौशल विकास के साथ जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर बाजार की उपलब्धता सुनिश्चित की जाये.
कौशल विकास कार्यक्रमों में पंचायतों की भूमिका किस रूप में देखते हैं?
गांव के विकास के लिए चाहे जो भी कार्यक्रम चलाये जायें उसमें पंचायतों की भूमिका काफी अहम है. किस तरह के कौशल की जरूरत पंचायत को है और युवाओं का रूझान किस तरह के कामों में है. गांव में किस तरह की गतिविधियों को अपनाया जा सकता है, इसके चयन में ग्राम पंचायत, प्रखंड और जिला पंचायत की अहम भूमिका होती है. पंचायत को रिसोर्स सेंटर के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. अभी तक जो भी कार्यक्रम बनाये जाते हैं, उसमें विकेंद्रीकरण का अभाव है. मान लीजिए केंद्र सरकार ने अपनी योजना के तहत युवाओं के कौशल विकास के लिए कार्यक्रम निर्धारित किया, गांवों में उसको शुरू भी कर दिया गया, लेकिन गांव की जरूरत उस कार्यक्रम के अनुरूप नहीं है, तो ऐसे कार्यक्रमों के प्रति न तो ग्रामीणों की रुचि होगी और न ही अपेक्षा के अनुरूप इसका परिणाम होगा. इसलिए कौशल विकास के कार्यक्रम के कार्यान्यवयन में पंचायत की अहम भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए, तभी अपेक्षित सफलता मिलेगी.