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पीछे छूटती एक दुनिया

टेलीग्राम का ‘होना’ शायद अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता था, लेकिन कई लोगों के लिए टेलीग्राम का ‘न होना’ एक दुनिया, एक युग, एक इतिहास के खत्म हो जाने जैसा है. वैसी हर चीज जो कल थी, आज नहीं है, हमारे भीतर एक खालीपन लाती है. दुनिया सिर्फ वर्तमान में नहीं होती. हम […]

टेलीग्राम का ‘होना’ शायद अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता था, लेकिन कई लोगों के लिए टेलीग्राम का ‘न होना’ एक दुनिया, एक युग, एक इतिहास के खत्म हो जाने जैसा है. वैसी हर चीज जो कल थी, आज नहीं है, हमारे भीतर एक खालीपन लाती है. दुनिया सिर्फ वर्तमान में नहीं होती. हम सबके भीतर इससे भी कहीं बड़ी एक दुनिया स्मृतियों में जीवित रहती है. टेलीग्राम की समाप्ति के बहाने पीछे छूटती दुनिया पर विशेष आवरण कथा.

!!चंदन श्रीवास्तव!!
कहते हैं, आधुनिकता विज्ञान के कंधे पर सवार होकर आयी. विज्ञान के पास दावा था, अंतरिम तौर पर ही सही उसने सृष्टि के नियमों, पदार्थ के गुण-धर्म और मनुष्य के स्वभाव को जान लिया है और जो कुछ जानना शेष है, उसके लिए अनवरत अनुसंधान जारी है. लेकिन लोगों के बीच विज्ञान की वैधता कायम हुई उन चीजों को रचने से जो लोगों का जीवन जीना आसान करें या फिर आदमी को ऐसी ताकत दें कि उसे लगे अब तक जो कर सकना असंभव था, उसे करना पलक झपकाने के समान आसान हो गया है. आम जनता के बीच विज्ञान की वैधता बनी उसकी उपयोगिता के तर्क से. और, उपयोगिता का ही तर्क विज्ञान की बनायी चीजों को लगातार चलन से बाहर भी करता है.

ग्रामोफोन, टेपरिकॉर्डर के आने के साथ चलन से बाहर हुए. ग्रामोफोन के रिकॉर्डस की जगह कैसेट्स ने ले ली. फिर वह वक्त भी आया है, जब कैसेट्स की जगह कॉम्पैक्ट डिस्क (सीडी) ने ले ली. और एक तरह से देखें तो अब कॉम्पैक्ट डिस्क की भी जगह एक तरह से छिन गयी है क्योंकि अब सब कुछ चाहे वह मनोरंजन के वास्ते हो या ज्ञान के, एक पेन-ड्राइव में या फिर मोबाइल सेट्स में समा जाता है. चाबी की ताकत से चलने वाली घड़ियां, फाऊंटेनपेन कहलाने वाली कलम, लिखाई की रफ्तार और प्रामाणिकता को बढ़ाने वाले टाइपराइटर, एंटेना वाले टीवी सेट्स और वह कैमरा जिसमें रील भरने से सामने का रियल एक खटाक के साथ कैद हो जाता था, सब उपयोगिता के तर्क से ही चलन से बाहर हो गये. उपयोगिता का अर्थशास्त्र निष्ठुर होता है, उसे कहां फिक्र कि चीजें जब चलन से बाहर होती हैं, तो संस्कृति का कोई कोना पछाड़ कर रोता भी है. चीजें अकेले नहीं आतीं, वे अपने साथ बर्ताव की तमीज भी लेकर आती हैं. चीजों के साथ बरताव की तमीज आदमीयत का हिस्सा है और यह तमीज ही किसी चीज को मानवीय रिश्तों के बीच अर्थ प्रदान करती है. इसलिए किसी चीज का जाना संस्कृति के एक हिस्से का भी जाना है. चाबीवाली घड़ियां चलन से बाहर हुईं, तो घड़ीसाजी की कला भी जाती रही. घड़ीसाज के साथ गली-मुहल्ले का रिश्ता भी खत्म हुआ.

टाइपराइटर के विदा होने के साथ टाइपिंग सिखाने वाले उस्ताद से बननेवाला रिश्ता भी हमेशा के लिए खत्म हुआ और सादे कागज पर बिना वर्तनी दोष के करीने से टाइप करने का वह हुनर भी, जो सिर्फ वही उस्ताद सिखा सकता था. चीजों के विदागीत की कड़ी में अब टेलीग्राम भी शामिल हो गया है. भारत सरकार ने 163 साल से चली आ रही यह सेवा यह कह कर समाप्त कर दी कि एसएमएस, इ-मेल के इस युग में टेलीग्राम की सेवा चला पाना बहुत खर्चीला और अनुपयोगी साबित हो रहा है. टेलीग्राम की सेवा की समाप्ति के साथ उससे जुड़ी एक पूरी संस्कृति खत्म हो गयी. दुनिया का पहला टेलीग्राम अमेरिका में वाशिंगटन से बाल्टीमोर के बीच 24 मई 1844 को भेजा गया था. भेजने वाले थे सैम्युएल एफ बी मोर्श और उन्होंने इस टेलीग्राम में लिखा था ‘व्हाट हैथ गॉड रॉट ! ’ क्या कहना चाहते थे, सैम्युएल मोर्श इस पंक्ति के माध्यम से? यह पंक्ति यहूदियों के पवित्र धर्मग्रंथ ‘बुक ऑव नंबर्स’ में आती है और अपनी मूल भावना में पैगंबर याकूब और इस्नइल के लिए आशा और विश्वास की घोषणा करती है. पंक्ति के मिजाज के हिसाब से अनुवाद करें तो मोर्श के हाथों भेजे गये पहले तार में लिखी गयी इबारत का मतलब होगा- ‘विधाता ने क्या ही सुंदर विधान रच दिया! ’

सैम्युएल मोर्श ने झूठ नहीं लिखा था. आधुनिक युग में प्रिन्टिंग प्रेस के बाद इलेक्ट्रिक टेलीग्राफी की तकनीक सबसे ज्यादा क्रांतिकारी साबित हुई. एक तरह से दूरसंचार की दुनिया में हो रही क्रांति की दिशा में यह पहला और बुनियादी कदम था और बेखटके इस तकनीक को टेलीफोन, इ-मेल और एसएमएस का पुरखा मान सकते हैं. मिसाल के लिए, इलेक्ट्रिक टेलीग्राफी की तकनीक के ईजाद के तीस साल बाद जब अलेक्जेंडर ग्राहम बेल के हाथों टेलीफोन का आविष्कार हुआ, तो उन्होंने अपने आविष्कार का महत्व समझाने के लिए मुहावरा गढ़ते हुए इस मशीन को ‘बोलता हुआ टेलीग्राफ’ कहा था. और टेलीफोन के आविष्कार की जमीन भी इलेक्ट्रिक तारों के सहारे संदेश भेजने (टेलीग्राफ) तकनीक ने ही तैयार की थी. यह तकनीक अपनी उपयोगिता के कारण तब के वक्त में ‘व्यापार की दुनिया का तंत्रिका-तंत्र’ (नर्वस सिस्टम) कहलाने लगी थी.

टेलीग्राफी की तकनीक ईजाद करने वाले सैम्युएल मोर्श जब अपने हाथों भेजे गये पहले टेलीग्राम में विधाता के इस नवरचित विधान पर मुग्ध हो रहे थे, तो क्या उन्हें पता था कि एक दिन यही तकनीक भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के पांव जमाने में मददगार साबित होगी? भारत में पहला टेलीग्राम 1850 में कलकत्ता से डायमंड हार्बर भेजा गया. भेजने वाले थे विलियम ओ शॉजनेसी, जो पेशे से सजर्न थे. भारत में उस वक्त लार्ड डलहौजी का राज था और ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों के विस्तार में डलहौजी को टेलीग्राम की भूमिका निर्णायक जान पड़ी. अगले चार सालों में टेलीग्राफिक सिग्नल भेजने के इलेक्ट्रिक तार पूरे भारत में (तकरीबन 4000 मील) खींचे गये. अंगरेजों को इसका फायदा भी जल्दी ही नजर आया. 1857 के क्रांतिकारी जानते थे कि अंगरेजों से जंग जीतनी है, तो पहले उनकी संचार-सेवा ठप्प करनी होगी. उन्होंने जहां तक बन पड़ा टेलीग्राफिक सिग्नल भेजने के तार काटे लेकिन विधि को कुछ और ही मंजूर था. सन् सत्तावन का स्वतंत्रता संग्राम अंगरेजों ने बड़ी क्रूरता से दबा दिया. कहते हैं ‘गदर’ का एक सिपाही जब फांसी के तख्ते की तरफ ले जाया जा रहा था, उसने टेलीग्राम भेजने की मशीन की तरफ इशारा करते हुए कहा था- ‘यही है वह नामुराद तार जो हमारा गला घोंटता है.’

सन सत्तावन के स्वाधीनता-संग्राम में दिल्ली और लखनऊ में अपना साम्राज्य अंगरेजों ने चाहे जिस जुगत से बचाया हो लेकिन यह तथ्य है कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास भारत में टेलीग्राम के इतिहास को जाने बगैर नहीं लिखा जा सकता और न ही आजाद भारत के सांस्कृतिक मानस को टेलीग्राम के इतिहास के बिना समझा जा सकता है. लौहपुरुष कहलाने वाले सरदार वल्लभ भाई पटेल किस मिट्टी के बने थे यह समझाने के लिए स्कूली बच्चों को आज भी यह बताना जरूरी माना जाता है कि अदालत में जिरह के दौरान पटेल के पास एक टेलीग्राम पहुंचा था. टेलीग्राम में पत्नी के देहांत की खबर थी, लेकिन पटेल ने धीरज नहीं गंवाया. तार को जेब में मोड़ कर रख लिया और अदालत में बहस जारी रही. यह तार महात्मा गांधी की अहिंसा की ताकत का भी साक्षी रहा. देश के बंटवारे के बीच भड़के सांप्रदायिक दंगों की आग ठंडी करने गांधी अकेले निकले थे. लॉर्ड माउंटबेटन ने तार भेजा- ‘पंजाब में हमारी पुलिस लगी थी, पर दंगे नहीं रुके, बंगाल में सिर्फ एक निहत्था आदमी खड़ा था और दंगे रुक गये.’ आजादी की लड़ाई और उसके इतिहास से बाहर आम आदमी की जिंदगी में ‘तार’ एक तारनहार की तरह दाखिल हुआ. टेलीफोन, मोबाइल , ट्रंककॉल. एसएमएस, इ-मेल के आने से पहले तार आम आदमी की जिंदगी में देश और काल की बाधा पर उसके विजय का प्रतीक था.

तभी तो चिट्ठियों में कभी कोई अपने संदेश की अर्जेंसी समझाने के लिए मुहावरे के तौर पर लिख डालता था- ‘चिट्ठी को तार समझना.’ तार एक जमाने तक लोगों के बीच तात्कालिकता की ताकत का प्रतीक बना रहा. वह घर पहुंचे सिपाही को ट्रांसफर-पोस्टिंग की खबर सुनाता था और मोर्चे पर लड़ रहे सिपाही की खैर-खबर उसके घर तक ले आता था. उसमें दर्ज होती थीं उपनयन और ब्याह की तारीखें और वे शोक में डुबाने वाले वे संदेश जिनकी वजह से तार के आते ही रीढ़ की हड्डी में भय सनसनाने लगता था. सार्वजनिक जीवन से तार की विदाई के साथ तारघर, तारबाबू ,मशीन की टकू-टकू-ट्रा, तार के संदेश लिखने की कला और तार देने से लेकर पढ़वाने तक के बीच पैदा होने वाली तमीज सब एक साथ विदा हुए.

सुनते हैं, ब्रिटेन में अब भी महारानी के हाथों उन नागरिकों को अभिनंदन में तार भेजा जाता है, जिन्होंने अपने जीवन के सौ वर्ष पूरे कर लिए हों. क्या तार भेजने की संस्कृति हमारी सरकार जीवित नहीं रख सकती? आखिर वह भी तो हर साल पद्मश्री-पद्म-विभूषण सरीखे अलंकरण देती है. यह संदेश सम्मानित होने वाले व्यक्ति तक तार से पहुंचाया जाये तो कैसा रहे? बहरहाल तार का प्रचलन तो पहले ही बंद हो गया था, आखिरकार इसकी सेवा का बंद हो जाना पीछे मुड़ कर देखने, उन स्मृतियों पर बेकार की चीज न माननेवाले लोगों के लिए एक युग के अंत की घोषणा करते हुए आया है.

टेलीग्राम का ‘होना’ शायद अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता था, लेकिन कई लोगों के लिए टेलीग्राम का ‘न होना’ एक दुनिया एक युग के खत्म हो जाने जैसा है, क्योंकि वैसी हर चीज जो कल थी, आज नहीं है हमारे भीतर एक खालीपन लाती है. दुनिया सिर्फ वर्तमान में नहीं होती. हम सबके भीतर इससे भी कहीं बड़ी एक दुनिया स्मृतियों में जीवित रहती है. कैसेट प्लेयर, टाइपराइटर, फिल्म वाले कैमरे के बाद अब टेलीग्राम का जाना हमारे वजूद का एक हिस्सा काट कर ले गया है. और जब ऐसा होता है, तो दिल में एक कचोट तो होती ही है.

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