खामोश हो गयी साहित्य अध्यापन व आलोचना की मुखर आवाज
डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी 01 दिसंबर 1965 27 जनवरी 2015 कृपाशंकर चौबे विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के हिंदी विभाग के प्रोफेसर व अध्यक्ष डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी का 27 जनवरी 2015 को गोरखपुर में देहांत हो गया. वे कुछ समय से कैंसर से पीड़ित थे. एक दिसंबर 1965 को देविरया के बरहज में जन्मे शैलेंद्र कुमार […]
डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी
01 दिसंबर 1965
27 जनवरी 2015
कृपाशंकर चौबे
विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के हिंदी विभाग के प्रोफेसर व अध्यक्ष डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी का 27 जनवरी 2015 को गोरखपुर में देहांत हो गया. वे कुछ समय से कैंसर से पीड़ित थे. एक दिसंबर 1965 को देविरया के बरहज में जन्मे शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एमए किया था और विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन से पीएचडी. उसके बाद अध्यापन को उन्होंने अपनी वृत्ति बनाया.
वे विश्वभारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन के हिंदी विभाग में 1997 से ही अध्यापन कर रहे थे. डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी कुछ साल पहले ही शांतिनिकेतन में प्रोफेसर बने थे और कुछ माह पहले अध्यक्ष. शांतिनिकेतन के हिंदी विभाग में वे ऐसे अध्यापक थे, जो हमेशा लिखने-पढ़ने और पढ़ाने में लगे रहते थे. पिछले साल जब पता चला कि उन्हें कैंसर है और कोलकाता के टाटा कैंसर अस्पताल में जब उन्हें भरती किया गया, तो अस्पताल के बेड से भी वे विभाग की चिंता करते थे. शांतिनिकेतन के हिंदी दिवस के कार्यक्रम में जाने के लिए उन्होंने अस्पताल के बेड से ही मुङो फोन कर कहा था- जइह जरूर और मैं गया था. शैलेंद्र के निधन के साथ ही हमने हिंदी भाषा साहित्य के एक प्रतिबद्ध अध्यापक और अत्यंत संभावनाशील साहित्य समालोचक को खो दिया है.
शैलेंद्र ऐसे आलोचक थे, जो रचना को सहृदयतापूर्वक समझ कर उसके मर्म को उद्घाटित करते हैं. वे किसी रचना का मूल्यांकन करते समय रचनाकार के युग बोध पर सबसे पहले विचार करते थे और देखते थे कि वह रचना अपने युग के सवालों का कितना सामना कर पायी है? उदाहरण के लिए शैलेंद्र की आलोचना पुस्तक ‘कविता की विसंगति’ को देखें, तो लेखक की राय में साहित्य में जहां तक हमारी दृष्टि जाती है, विसंगति का औचित्य वर्तमान रहता है और उसे हर युग के सतर्क रचनाकारों की सधी दृष्टि अभिव्यक्त करती है, जिसका मूल्यांकन युग बोध और युग दृष्टि को समझने के लिए आवश्यक होता है.
शैलेंद्र बताते हैं कि विसंगति बोध जीवन के समांतर चलनेवाली प्रक्रि या है. स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कविता का इतिहास विसंगतियों का रहा है. स्वतंत्रता के बाद की हिंदी कविता का स्वरूप देखने के लिए हमें सप्तक परंपरा, नयी कविता एवं इनसे इतर अपना स्वतंत्र अिस्तत्व रखकर लिखनेवाले कवियों की मान्यताओं और दृष्टियों का अवलोकन करना होगा. शैलेंद्र लिखते हैं, ‘‘स्वतंत्रता के बाद की कविता पर विचार करते समय युग बोध और सामाजिक संदर्भो को हम बार-बार देखते हैं और इस बोध को व्यापक दृष्टि से देखने पर आज का रचनाकार जीवन की विसंगतियों, निर्थकताओं को स्वीकार करता है, जीवन को पूरी तरह से पहचानने की कोशिश करता है और इसीलिए मृत्यु का आलिंगन उसे स्वीकार नहीं होता.’’
इससे स्पष्ट है कि रचना की समझ के साथ ही जीवन और समाज का अवलोकन भी शैलेंद्र आवश्यक मानते थे. इसी कारण उनकी आलोचना में समाजोन्मुख सर्जनात्मकता संभव हुई है. ‘सामाजिक विसंगति का दायरा’ शीर्षक निबंध में शैलेंद्र ने लिखा है, ‘‘समाज पहले है. समाज से ही अन्य दूसरे प्रभावित होते हैं. साहित्य भी.’’ समाज व साहित्य के अंर्तसबंध की यह दृष्टि ही शैलेंद्र को यह देखने-परखने की प्रेरणा देती है कि सामाजिक बदलावों पर रचनाकार का रवैया कैसा है? रचनाकार भोगे हुए यथार्थ की जगह बदले हुए यथार्थ को पूरी तरह पकड़ पाया है कि नहीं? आलोच्य रचना के रचनाकार में नयी सामाजिक चेतना और नया सौंदर्यबोध है अथवा नहीं? यह बेहद तात्पर्यपूर्ण है कि शैलेंद्र के भीतर का आलोचक रचना के परे जाकर साहित्य, समाज, समय, इतिहास, दर्शन और विचारधारा के अंत:संबंधों की भी खोज करता है और साहित्य तथा समाज के वास्तविक आलोचनात्मक संबंधों का भी संधान करता है.
‘सामाजिक विसंगति का दायरा’ शीर्षक निबंध में ही डॉ शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने साफ-साफ लिखा है, ‘‘रचनाकार को अगर सामाजिक और युगीन परिवेश की कोई चिंता नहीं है तो उसके रचनाकर्म की इयत्ता क्या होगी? स्वांत: सुखाय रचनेवाले भी परिवेश और युग की चिंतागत परिधि से बाहर नहीं आ सके थे, समाज की चिंता के केंद्र में रचनाकर्म और रचनाकार की अपनी चिंता भी होती है. आज के समाज के लिए तो यह बात और विचित्र लगती है क्योंकि जो आलोचक रचनाकार की स्वतंत्रता का पक्षधर है, वह भी यह स्वीकार करता है.’’ इसी निबंध में उन्होंने लिखा है, ‘‘कसी भी देश की सामाजिक चेतना के उत्थान-पतन में साहित्य का कितना योगदान होता है, यह हम विश्व इतिहास के पटल पर देख सकते हैं.
(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफेसर तथा कोलकाता केंद्र के प्रभारी हैं)
भारतीय साहित्य ;हिंदीद्ध में कला.काल कहा जानेवाला मध्य काल अपनी सामाजिक चेतना के कारण ही मानिसक विकृति की उपज माना जाता रहा. मुगल काल की विकृतियों का सीधा प्रभाव साहित्य पर पड़ा. समाज को छोड़कर दरबार और धार्मिक गतिविधियों का अंकन साहित्य का काम नहीं हैए लेकिन दरबार और धर्म जहां तक सामाजिक प्रक्रि याओं से जुड़े हैंए साहित्य तटस्थ नहीं रह सकता.श्
कहने की जरूरत नहीं कि सामाजिक चेतनाए युग और परिवेश की चिंता के कारण ही शैलेंद्र की रचना और आलोचना दोनों के मूल में जीवन और जगत है. शैलेंद्र का आलोचक.विवेक जीवन.विवेक से जुड़ा था और जीवन.विवेक जगत.विवेक से. ष्कविता क्या हैष् शीर्षक निबंध में दर्जनों कवियों की रचनाओं को उद्धृत करते हुए शैलेंद्र ने लिखा हैए श्जीवन के साथ कविता का अपना दायरा बढ़ा है.श् शैलेंद्र इस दायरे को देखने के लिए कभी अ™ोय के पास जाते हैं कभी मुक्तिबोध के पास तो कभी प्रभाकर माचवे के पास. वे कभी भारत भूषण अग्रवाल के पास जाते हैं तो कभी निराला तो कभी महादेवी वर्मा तो कभी गिरजिाकुमार माथुर तो कभी श्रीकांत वर्मा तो कभी बच्चन तो कभी जगदीश गुप्त तो कभी धर्मवीर भारती तो कभी कुंवर नारायण तो कभी केदारनाथ सिंह के पास जिनकी रचनाओं में जीवन राग की गूंज दूर तक सुनी जा सकती है.
शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी रचना को आलोचना की सभी मानक कसौटियों पर कसने की कोशिश करते थेए इसीलिए उनकी आलोचना एकांगी होने के दोष से बच जाती थी. रचना की अंतर्वस्तु व भाषा शैली को समग्रता में देखने की शैलेंद्र की कोशिश ही उनकी विशेषता थी. यह विशेषता रचना के सम्यक व पारदर्शी मूल्यांकन में सहायक होती है और अंतत: आलोचक को तीक्ष्ण दृष्टिसंपन्न चिंतन से समृद्ध करती है. तीक्ष्ण दृष्टिसंपन्न आलोचनात्मक चिंतन से समृद्ध होकर शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी की आलोचना रचनात्मक आलोचना बन जाती थी. इसका पुख्ता सबूत उनकी आलोचना पुस्तकें.ष्कविता में बंद जीवनष्ए ष्कविता के दुर्दिन मेंष्ए ष्आधे गांव की पूरी संवेदनाष् और ष्अ™ोय: कुछ और संदर्भष् शिद्दत के साथ पेश करती हैं.
शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी की संपादित पुस्तकों की संख्या भी आधा दर्जन है. उनकी हर संपादित किताब अलग महत्व रखती है. उनकी पहली संपादित किताब है.ष्दिल्ली कहां हैष् जो महीप सिंह की कहानियों का संकलन है. उनकी दूसरी संपादित किताब ष्अपनी कैद मेंष् मणिका मोहिनी की कहानियों का संकलन है. उनकी तीसरी संपादित किताब ष्गांव की कलमष् कृष्णबिहारी मिश्र के रचनाकर्म पर आकलन ग्रंथ है. इस किताब का संपादन शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने विजय बहादुर सिंह के साथ मिलकर किया है.
शैलेंद्र की एक अन्य संपादित किताब है.ष्आचार्य रामचंद्र शुक्ल की विचार वीथी.ष् यह किताब आचार्य शुक्ल के लेखोंए विचारोंए अनुवादों और संस्मरणों का संकलन है. शैलेंद्र ने इस किताब को विष्णुचंद्र शर्मा के साथ संपादित किया है. शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने मोती बीए की हिंदी कविताओं का प्रतिनिधि संकलन ष्आग और अनुरागष् शीर्षक से संपादित किया. मोती बीए ;1919.2009द्ध की एक दर्जन से अधिक पुस्तकें हिंदी साहित्य की अमूल्य धरोहर हैं.
मोती बीए ने हिन्दी तथा भोजपुरी की साठ से अधिक फिल्मों के लिए गीत लिखे और भोजपुरी भाषा को अपने लय दार गाने और भावुक कविताओं से मिला कर एक नई पहचान दी. मोती बीए की रचनात्मकता को समझने में शैलेंद्र की संपादित किताब बहुत सहायक है. शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी ने शिव कुमार पराग की भोजपुरी कविताओं का संकलन ष्काहें रउवां बानी मनबेघिलष् शीर्षक से संपादित किया. कहने की जरूरत नहीं कि महीप सिंहए मणिका मोहिनी से लेकर मोती बीए और शिव कुमार पराग की रचनाओं का संकलन.संपादन भी एक विवेकवान और जरूरी काम रहा है. इस तरह के विवेवान व जरूरी काम के लिए शैलेंद्र के योगदान को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता.
शैलेंद्र कुमार त्रिपाठी का यह संपादकीय विवेक था कि विख्यात साहित्यकार डाण् कृष्णबिहारी मिश्र के चिंतन और व्यक्तित्व पर केंद्रित ष्गांव की कलमष् संपादित करते समय उसे आकलन ग्रंथ के रूप में उन्होंने निकाला. इस आकलन ग्रंथ को हिंदी समाज ने हाथों.हाथ लिया. शैलेंद्र की इस संपादित पुस्तक का दूसरा संस्करण तीन महीने पहले ही प्रकाशित हुआ. इस आकलन ग्रंथ में शैलेंद्र ने भी ष्कल्पतरु की उत्सव लीलाष् का आकलन किया है. अपने लेख की शुरु आत वे इस उद्धरण से करते हैंए श्इस संसार का प्रबंध देखकर ऐसा लगता है कि इसकी रचना किसी शैतान ने की है. यह कोई व्यवस्था हुई कि साधु जन यातना भोगे और चोर तथा भ्रष्ट लोग मौज से रहेंघ् यह कौन सा न्याय हैघ् यह तो जंगली न्याय हुआ. और फिर यही यदि सच है तो लात मारो साधुता और धर्म को. पापाचार को वरण कर मौज में रहो. ऐसे नहीं होता. जो दीख रहा हैए वह दोषपूर्ण है. मैं निश्चित रूप से इससे अच्छे संसार की सृष्टि कर सकता था.श् ;कल्पतरु की उत्सव लीलाए पृष्ठ.403ए प्रथम संस्करणद्ध. इस आकलन लेख में शैलेंद्र ने कितनी सटीक टिप्पणी की है कि हिंदी साहित्य में अब तक इस तरह की कोई पुस्तक नहीं है जो रामकृष्ण परमहंस को इस तरह प्रस्तुत करे जैसा कि ष्कल्पतरु की उत्सव लीलाष् करती है.
संपादित किताब हो या मौलिकए शैलेंद्र पूरी तैयारी के साथ उसे निकालते थे. उदाहरण के लिए ष्कविता की विसंगतिष् की तैयारी का अंदाजा उसी किताब के पृष्ठ 180 से 185 तक में प्रकाशित पत्नों से लगाया जा सकता है. इन पत्नों में शैलेंद्र को लिखे गए रामविलास शर्मा के पांच मूल्यवान पत्न हैं जबकि शिव प्रसाद सिंह के दो पत्न और चंद्रकांत देवतालेए बालेंदु शेखर तिवारीए शलभ श्रीराम सिंह और श्रीराम शुक्ल के एक.एक पत्न प्रकाशित हुए हैं. शैलेंद्र पूरी तैयारी के साथ किताब ही नहीं निकालते थेए पत्रिका निकालने के लिए भी पूरी तैयारी करते थे. वे 1990 से ही साहित्यिक पत्रिका ष्सरयूधाराष् निकाल रहे थे. लघु पत्रिका आंदोलन का कोई संदर्भ ष्सरयूधाराष् के बिना पूरी नहीं होगा.