देशभर में स्वाइन फ्लू का प्रकोप तेजी से बढ़ रहा है. मरनेवालों की संख्या 600 के आसपास हो चुकी है, जबकि हजारों लोग पीड़ित हैं. अस्पतालों में इसके मरीजों को भरती करने के लिए बेड कम पड़ रहे हैं. ऐसे में यह बीमारी बड़ी चिंता का सबब बन गयी है. क्या है यह बीमारी, सामान्य फ्लू और इसमें क्या है फर्क, कब तक रहता है शरीर में इसका वायरस, कैसे की जाती है इसकी पहचान और क्या है इसका सही निदान, आदि जैसे पहलुओं पर नजर डाल रहा है नॉलेज..
पिछले सप्ताह दिल्ली में स्वाइन फ्लू से पीड़ित एक डॉक्टर करीब चार घंटे तक एंबुलेंस में एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भटकते रहे, लेकिन उन्हें भरती होने की जगह नहीं मिल रही थी. आखिरकार एक निजी अस्पताल में किसी तरह से उन्हें भरती किया गया. आप समझ सकते हैं कि इस बीमारी की चपेट में आने पर जब एक डॉक्टर को इस तरह से भटकना पड़ रहा है, तो आम आदमी की क्या स्थिति होगी. राजधानी दिल्ली समेत देश के अनेक राज्यों में इस बीमारी का कहर बढ़ता जा रहा है. खबरों में बताया जा रहा है कि दिल्ली के अस्पतालों में इस बीमारी के नये मरीजों को भरती करने के लिए जगह कम पड़ गयी है.
मीडिया में आयी खबरों के मुताबिक इस वर्ष 16 फरवरी तक यानी पिछले करीब डेढ़ माह के दौरान देशभर में इस बीमारी से मरनेवालों की संख्या 600 के करीब पहुंच चुकी है, जबकि हजारों लोगों में इस बीमारी की पुष्टि की गयी है. राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में इसके मामले सबसे ज्यादा पाये गये हैं.
दरअसल, स्वाइन फ्लू श्वसन तंत्र से जुड़ी बीमारी है, जो ‘ए’ टाइप के एनफ्लुएंजा वायरस से होती है. मौसमी फ्लू के दौरान भी यह वायरस सक्रिय होता है. जब आप खांसते या छींकते हैं तो हवा में या जमीन पर या जिस भी सतह पर थूक या मुंह और नाक से निकले द्रव कण गिरते हैं, वह वायरस की चपेट में आ जाता है. यह कण हवा के द्वारा या किसी के छूने से दूसरे व्यक्ति के शरीर में मुंह या नाक के जरिये प्रवेश कर जाते हैं.
नॉर्मल फ्लू से अलग
सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के वायरस में एक फर्क होता है. स्वाइन फ्लू के वायरस में पक्षियों, सूअरों और इंसानों में पायी जानेवाली आनुवंशिक सामग्री भी होती है. हालांकि सामान्य फ्लू और स्वाइन फ्लू के लक्षण एक जैसे ही होते हैं, लेकिन स्वाइन फ्लू में यह देखा जाता है कि जुकाम बहुत तेज होता है. नाक काफी ज्यादा बहती है. स्वाइन फ्लू होने के पहले 48 घंटों के भीतर इसका इलाज शुरू हो जाना चाहिए, यह सावधानी जरूरी है.
कब तक रहता है वायरस
एच1एन1 वायरस स्टील और प्लास्टिक में 24 से 48 घंटे, कपड़े और पेपर में आठ से 12 घंटे, टिश्यू पेपर में 15 मिनट और हाथों में 30 मिनट तक सक्रिय रहते हैं. इन्हें खत्म करने के लिए वॉशिंग पावडर, ब्लीच या साबुन का इस्तेमाल कर सकते हैं. किसी भी मरीज में बीमारी के लक्षण संक्रमण होने के बाद एक से सात दिन में विकसित हो सकते हैं.
डब्ल्यूएचओ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन लोगों का स्वाइन फ्लू टेस्ट पॉजीटिव आता है, उनमें से इलाज के दौरान मरनेवालों की संख्या केवल 0.4 फीसदी ही है. यानी इस बीमारी की पहचान होनेवाले हजार मरीजों में से चार लोगों का ही देहांत होता है. इसलिए यह उतना क्रोनिक नहीं, जितना समझा जा रहा है.
1930 में की गयी पहचान
‘मेडिसिन नेट डॉट कॉम’ के मुताबिक, स्वाइन एनफ्लूएंजा वायरस की पहचान पहली बार 1930 में अमेरिका में की गयी थी. सूअर के मांस के कारोबारियों ने इसकी पहचान की थी. उस दौरान कई बार ऐसा पाया गया कि सूअर के मांस के कारोबार से जुड़े लोगों में स्वाइन एनफ्लूएंजा वायरस ज्यादा देखे जा रहे हैं.
2009 में जो स्वाइन फ्लू सामने आया था, उसे विशेषज्ञों ने ‘एच1एन1’ नाम दिया. इसमें एच1 का तात्पर्य हेमागुलेटिनिन टाइप वन और एन1 का तात्पर्य न्यूरेमिनिडेज टाइप वन है.
एनफ्लूएंजा डायग्नोस्टिक टेस्ट
इसकी जांच के लिए विभिन्न प्रकार के टेस्ट किये जा सकते हैं. ‘सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन’ की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि लैबोरेटरी में सांस के नमूनों में एनफ्लूएंजा की मौजूदगी की पहचान की जाती है. इसके अलावा डायरेक्ट एंटीजेन डिटेक्शन टेस्ट, सेल कल्चर में वायरल आइसोलेशन या रीयल टाइम रिवर्स ट्रांसक्रिप्टेस- पॉलिमेरस चेन रिएक्शन के द्वारा एनफ्लूएंजा खासकर आरएनए की पहचान की जाती है. ये सभी टेस्ट संवेदनशीलता के मामले में अलग-अलग तरह के हैं और इनसे एनफ्लूएंजा वायरस की पहचान की जाती है. मौजूदा समय में अमेरिका की संबंधित स्वास्थ्य प्राधिकरण द्वारा सामान्य एनफ्लूएंजा वायरस इनफेक्शन के कन्फर्मेशन के लिए केवल दो ही तरीके मान्य हैं.
आरंभिक लक्षण
नाक का लगातार बहना, छींक आना, नाक जाम होना.
मांसपेशियों में काफी दर्द या अकड़न महसूस करना.
सिर में भयानक दर्द.
कफ और कोल्ड, लगातार खांसी आना.
नींद नहीं आना, बहुत ज्यादा थकान महसूस होना.
बुखार होना, दवा खाने के बाद भी बुखार का लगातार बढ़ना.
गले में खराश होना और इसका लगातार बढ़ते जाना.
बचाव के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले मास्क
मास्क पहनने की जरूरत सिर्फ उन्हें है, जिनमें फ्लू के लक्षण दिखाई दे रहे हों.
फ्लू के मरीजों या संदिग्ध मरीजों के संपर्क में आने वालेलोगों को ही मास्क पहनने की सलाह दी जाती है.
भीड़ भरी जगहों मसलन, सिनेमा हॉल या बाजार जाने से पहले सावधानी के लिए मास्क पहन सकते हैं.
मरीजों की देखभाल करनेवाले डॉक्टर, नर्स और हॉस्पिटल में काम करनेवाले अन्य स्टाफ.
एयरकंडीशंड ट्रेनों या बसों में सफर करनेवाले लोगों को एहतियातन मास्क पहन लेना चाहिए.
कितनी देर करता है काम
स्वाइन फ्लू से बचाव के लिए सामान्य मास्क कारगर नहीं होता, लेकिन थ्री लेयर सर्जिकल मास्क को चार घंटे तक और एन-95 मास्क को आठ घंटे तक लगा कर रख सकते हैं.
ट्रिपल लेयर सजिर्कल मास्क लगाने से वायरस से 70 से 80 फीसदी तक बचाव रहता है और एन-95 से 95 फीसदी तक बचाव संभव है.
वायरस से बचाव में मास्क तभी कारगर होगा जब उसे सही ढंग से पहना जाये. मास्क ऐसे बांधें ताकि मुंह और नाक पूरी तरह से ढक जाएं.
एक मास्क चार से छह घंटे से ज्यादा देर तक न इस्तेमाल करें, क्योंकि खुद की सांस से भी मास्क खराब हो जाता है.
कैसा मास्क पहनें
सिर्फ ट्रिपल लेयर और एन 95 मास्क ही वायरस से बचाव में कारगर हैं.
सिंगल लेयर मास्क की 20 परतें लगा कर भी बचाव नहीं हो सकता.
मलमल के साफ कपड़े की चार तहें बना कर उसे नाक और मुंह पर बांधें. यह सस्ता व सुलभ साधन है. इसे धोकर दोबारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है.
वैक्सिन से भी होगा इलाज
वर्ष 2014- 15 के फ्लू सीजन के लिए अमेरिका की सेंटर्स फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) ने सिफारिश की है कि छह माह से अधिक उम्र वाले लोगों को इस बीमारी से बचाव करने या उसके जोखिम को कम करने के लिए फ्लू का टीका लेना चाहिए. ‘मेडिसिन नेट डॉट कॉम’ की रिपोर्ट के मुताबिक, एच1एन1 स्वाइन फ्लू से बचाव का श्रेष्ठ तरीका टीकाकरण है. एच1एन1, एच3एन2 और अन्य फ्लू वायरसों की पहचान होने के संदर्भ में 2014 सीडीसी सिफारिशों में कहा गया है कि सीमित मात्र में वैक्सिन लेने पर निम्नलिखित परिस्थितियों में मरीजों में जोखिम बढ़ जाता है :
छह माह से चार वर्ष की उम्र तक.
50 वर्ष से ज्यादा की उम्र होने पर.
कार्डियोवैस्कुलर, रीनल, हेपेटिक, न्यूरॉलोजिक, हेमाटोलॉजिक या मेटाबोलिक डिजॉर्डर (डायबिटीज मेलाइटस समेत) बीमारियों की दशा में.
एनफ्लूएंजा सीजन के दौरान गर्भवती होने वाली महिलाएं.
नर्सिग होम और अन्य क्रोनिक-केयर सुविधाओं के आसपास रहने वालों में.
मोटापे से जुड़ी अस्वस्थता होने की स्थिति में.
अस्पताल से जुड़े कर्मचारियों में. त्न अस्पताल में इस बीमारी के मरीज की देखभाल करने वाले पारिवारिक सदस्य.