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किस्सा कुरसी का : जानिए एक्‍सपर्ट की रॉय, सियासी उठा-पटक के बाद किसे क्‍या मिला

जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ बिहार में जारी सियासी उठा-पटक शांत हो गया है. सियासी संकट के बीच नयी राजनीतिक गोलबंदी हुई, जो इसी साल होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिहाज से महत्वपूर्ण है. इस संकट ने जहां जदयू-राजद के बीच दोस्ती को और मजबूत किया, वहीं भाजपा को भी नीतीश कुमार व लालू […]

जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ बिहार में जारी सियासी उठा-पटक शांत हो गया है. सियासी संकट के बीच नयी राजनीतिक गोलबंदी हुई, जो इसी साल होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिहाज से महत्वपूर्ण है. इस संकट ने जहां जदयू-राजद के बीच दोस्ती को और मजबूत किया, वहीं भाजपा को भी नीतीश कुमार व लालू प्रसाद पर निशाना साधने का नया मुद्दा मिला. पिछले 20 दिनों से बिहार का सियासी संकट पूरे देश में चर्चा के केंद्र में रहा. मांझी प्रकरण पर विश्लेषकों की पैनी नजर रही. राजनीति और समाज पर नजर रखनेवाली महत्वपूर्ण हस्तियां बता रही हैं कि आखिर इस सियासी संकट के बीच किस दल ने क्या खोया और क्या पाया.
मांझी का 20-20
शपथ : 20 मई, 2014
पहले पासवान, अब महादलित का बलिदान किया : रामविलास
नयी दिल्ली. लोजपा प्रमुख और केंद्रीय खाद्य एवं उपभोक्ता संरक्षण मंत्री रामविलास पासवान ने कहा कि नीतीश कुमार ने महादलित की राजनीति करके पहले दलितों में विभाजन पैदा किया. उन्होंने पहले पासवान समुदाय को नुकसान पहुंचाया. खुद सत्ता हासिल करने के लिए अब उन्होंने एक महादलित जीतन राम मांझी का बलिदान किया पासवान ने नीतीश कुमार पर कटाक्ष किया कि बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्ता के बिना नहीं रह सकते और यह अच्छा है कि उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में छह महीने और मिल गये, क्योंकि जनता का उनसे मोहभंग हो जायेगा. लोजपा नेता ने यह स्पष्ट किया कि राजग भविष्य में भी मांझी को समर्थन देती रहेगी.
नीतीश के अवसरवाद को बिहार की जनता देख रही : प्रधान
नयी दिल्ली. भाजपा नेता व पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान ने कहा, नीतीश कुमार को बिहार की जनता को जवाब देना होगा और उसे यह समझाना होगा कि उन्होंने आठ महीने पहले मांझी को मुख्यमंत्री क्यों बनाया था. बिहार भाजपा के प्रभारी रहे श्री प्रधान ने कहा, नीतीश कुमार अपने राजनीतिक अवसरवाद के लिए इस तरह का खेल खेलते रहे हैं. उनका कोई सिद्धांत नहीं है. वह सत्ता में बने रहने के लिए इस तरह की अनैतिक चीजें करते रहते हैं. बिहार की जनता यह सब देख रही है.
मोदी सरकार ने बिहार में पैदा की राजनीतिक अस्थिरता : मायावती
लखनऊ : बसपा अध्यक्ष मायावती ने भाजपा व केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार पर सत्ता के लिए बिहार में राजनीतिक अस्थिरता पैदा करने का आरोप लगाते हुए कहा कि केंद्र सरकार के ऐसे हथकंडों से पूरे देश का माहौल खराब हो रहा है. मायावती ने कहा कि भाजपा व मोदी ने मांझी के रूप में एक ‘महादलित’ का समर्थन करके अगले कुछ महीने बाद बिहार विधानसभा के चुनाव में इसका लाभ हासिल करने से कहीं ज्यादा, नीतीश कुमार को किसी भी कीमत पर मुख्यमंत्री नहीं बनने देने का प्रयास किया. इस वजह से बिहार को राजनीतिक संकट का सामना करना पड़ रहा है. इसके लिए राजभवन का भी गलत इस्तेमाल किया गया.
हम महादलित सीएम के साथ खड़े रहे : शाहनवाज
नयी दिल्ली. भाजपा के प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने पूरे मामले को जदयू का आंतरिक मामला बताते हुए कहा कि किस गुट को बहुमत है, इसका फैसला सदन में होना था. इसलिए भाजपा मांझी के साथ खड़ी थी. हमने एक महादलित को अधर में नहीं छोड़ा.
राजनीति संकट को नीतीश जिम्मेदार : गिरिराज
जमशेदपुर : केंद्रीय सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उपक्रम राज्यमंत्री गिरिराज सिंह ने बिहार की वर्तमान राजनीतिक स्थिति के लिए नीतीश कुमार जिम्मेदार हैं. जब से नीतीश ने भाजपा से संबंध तोड़ा है और लालू प्रसाद के साथ आये हैं, कानून-व्यवस्था की हालत खराब हो गयी है.
इस्तीफा : 20 फरवरी, 2015
गैर भाजपा दलों को मिलेगी मजबूती
जीतन राम मांझी के इस्तीफे के साथ बिहार में जारी सियासी उठा-पटक शांत हो गया है. सियासी संकट के बीच नयी राजनीतिक गोलबंदी हुई, जो इसी साल होनेवाले विधानसभा चुनाव के लिहाज से महत्वपूर्ण है. इस संकट ने जहां जदयू-राजद के बीच दोस्ती को और मजबूत किया, वहीं भाजपा को भी नीतीश कुमार व लालू प्रसाद पर निशाना साधने का नया मुद्दा मिला. पिछले 20 दिनों से बिहार का सियासी संकट पूरे देश में चर्चा के केंद्र में रहा. मांझी प्रकरण पर विश्लेषकों की पैनी नजर रही. राजनीति और समाज पर नजर रखनेवाली महत्वपूर्ण हस्तियां बता रही हैं कि आखिर इस सियासी संकट के बीच किस दल ने क्या खोया और क्या पाया.
जदयू-राजद
प्रो. एमएन कर्ण
समाजशास्त्री व पूर्व निदेशक
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट
बिहार में पिछले कुछ दिनों से जो कुछ चल रहा था और उससे आज जो तसवीर बनी, उसमें गैर भाजपा दलों को मजबूत होने का मौका मिलेगा. जदयू और राजद कभी अलग-अलग हुए थे. पर आगे अलग-अलग नहीं चल सकते. वैसे मैं कोई चुनावी वेिषक तो नहीं हूं पर बिहार के समाज के बारे में थोड़ी-बहुत समझ रखता हूं. मुङो लगता है कि बिहार की जो सामाजिक संरचना है उसमें जदयू और राजद जैसी शक्तियों को अलग-अलग रहने का कोई स्कोप नहीं है.
दोनों को एक साथ आना ही पड़ेगा. यह ठीक है कि दस-बीस साल के अनुभवों से दोनों दलों के शीर्ष नेतृत्व को यह बात समझ में आयी. दूसरी बात यह है कि बिहार में प्रतिपक्ष काफी सशक्त रहा है. कुछ खास मौकों को छोड़ दें तो अक्सर प्रतिपक्ष मजबूत हालत में रहा है. भाजपा का राष्ट्रीय स्तर पर आज जो स्वरूप दिख रहा है, उससे मुकाबला करना है कि जदयू-राजद जैसी धारा वाली पार्टियों को एक-दूसरे के करीब आना पड़ेगा. हाल के घटनाक्रम में वे दोनों साथ भी आये. दूसरी बात यह है कि इस प्रकार की घटनाएं समाज को सोचने-समझने की दृष्टि देती हैं. इसे सिर्फ किसी पार्टी के नफा-नुकसान तक सीमित कर देखने की जरूरत नहीं है. यही भी कि इन घटनाओं को केवल सत्ता के खेल के तौर पर भी नहीं देखना चाहिए. इसकी जगह हमें समझना पड़ेगा कि राज्य की सामाजिक संरचना का प्रतिनिधित्व करने वाली जो शक्तियां हैं, उनका इससे क्या होगा?
मुङो लगता है कि ताजा घटनाक्रम को इसी संदर्भ में देखने की जरूरत है. यह भी लग सकता है कि तत्काल जदयू या राजद को नजदीक आने से नुकसान होगा. लेकिन लांग टर्म की राजनीति के हिसाब से देखें तो इससे दोनों को फायदा होगा. और मेरा तो मानना है कि इस धारा की ऐसी दूसरी ताकतों को भी जमीन मिलेगी. मेरा मानना रहा है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में अगर रानीतिक दल हैं तो वहां खींचतान चलती रहेगी. यह निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है. सकारात्मक बात यह है कि ऐसी उथल-पुथल से आम लोगों के सामने सोचने-विचारने का विस्तृत फलक मिलता है. यह लोकतंत्र के हित में ही है.
ट्रैक पर लाने में लगेगा तीन महीने का वक्त
वीएस दुबे
पूर्व मुख्य सचिव
बिहार-झारखंड
बिहार में अब जो भी सरकार आयेगी, उसके सामने व्यवस्था को पटरी पर लाने की गंभीर चुनौती होगी. मेरी समझ है कि चीजों को ट्रैक पर लाने में आने वाली सरकार को तीन महीने का वक्त लगेगा. इसी साल चुनाव होने वाले हैं और काम करने का वक्त अत्यंत कम है. पिछले कुछ महीनों में हालात इस कदर बदल चुके हैं कि उसे पटरी पर लाने में ही अपनी सारी ऊर्जा झोंकनी पड़ेगी. राज्य में हाल के दिनों में जो राजनीतिक माहौल बना, उससे बिहार को बहुत घाटा हो चुका है.
विकास के जो भी काम हो रहे थे, वे थम गये. अब किसी भी नयी सरकार के लिए उसे ठीक करना किसी मशक्कत से कम नहीं है. इसके लिए गतिशील व उत्साहित लीडरशिप की जरूरत होगी.मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि हवा का रुख पहचानने में ब्यूरोक्रेसी बेहद संवेदनशील होती है. इस नजरिये से देखें तो अब नयी सरकार को काम करने वाले अधिकारियों को अपनी टीम में शामिल करना होगा. नीचे तक सरकार का संदेश पहुंचने में वक्त लगता है.
राज्य में जो कुछ भी हुआ, उसे भविष्य के लिए अच्छा नहीं माना जा सकता. अब देखिए कि मांझी सरकार ने जितनी भी घोषणाएं की है, उसे लागू करने पर सारा पैसा चला जायेगा. क्या सरकार केवल तनख्वाह देने का काम करेगी या उसे दूसरे काम भी करने हैं. इस लिहाज से नयी सरकार को मांझी सरकार के फैसलों को पलट पाना भी आसान नहीं होगा. चूंकि इसी साल विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं और लोक लुभावन घोषणाओं को सिरे से खारिज नहीं कर सकते.
यह वोट से जुड़ा मसला होता है. जनता कहेगी कि सरकार उसके खिलाफ काम कर रही है. इन स्थितियों में मैं मानता हूं कि आने वाली सरकार को गुभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. बीते कुछ सालों में बिहार की गाड़ी पटरी पर चल रही थी. वह बेपटरी हो गयी तो उसे दोबारा रास्ते पर लाना कठिन टास्क होगा. बिखरी कड़ियों को रिस्टोर करने में कठिन मेहनत की जरूरत पड़ेगी. इसके लिए तगड़ा लीडरशिप चाहिए. मुङो पता नहीं कि अगले मुख्यमंत्री कौन होंगे, पर जो भी आयेंगे उन्हें कठोर परिश्रम करना पड़ेगा.
मांझी को लेकर भाजपा एक्सपोज हुई
डीएम दिवाकर
निदेशक
एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी को समर्थन देकर भी भाजपा एक्सपोज हो गयी है. अब वह कह रही है कि उसके समर्थन के अलावा विधायकों को जुटाने का काम मांझी को करना था. विधानसभा में विश्वास मत हासिल करने के पहले भाजपा का समर्थन के मसले पर दूसरा कुछ कहना था. 19 और 20 फरवरी के उसके बयानों में फर्क बताता है कि उसे मांझी से मतलब नहीं था. उसे महादलित के नाम पर राजनीति करनी है.
यह समाज को विघटन की ओर ले जाने वाला स्टैंड है. अगर भाजपा पहले ही यह साफ कर देती कि उसे मांझी को समर्थन नहीं देना है तो बात इतनी दूर तक जाती ही नहीं. तब शायद मांझी यह अनुमान लगा पाते कि वह बहुमत नहीं जुटा पायेंगे. अगर वह इतनी दूर तक गये तो इसे पीछे भाजपा का साथ था. वैसे इतिहास ने मांझी को ऐतिहासिक मौका दिया था.
उन्हें काम ही करना था तो उनके पास यह मौका था. वह भूमि सुधार के काम कर सकते थे. वह जमीन वितरण का काम कर सकते थे. मगर भाजपा का साथ होने के चलते ये काम भी वे नहीं कर सके. जदयू के एजेंडे पर तो नही ही चले, बुनियादी काम करके जो इतिहास बना सकते थे, उस मौके को भी उन्होंने गंवा दिया. इस पूरे घटनाक्रम में देखें कि भाजपा का दलित प्रेम तात्कालीक था. मुख्यमंत्री का दायित्व संभालने के पहले मांझी कभी विवादास्पद नहीं रहे.
इसका विश्‍लेषण भी महादलित भी करेंगे कि भाजपा ने ऐसा क्यों किया. उसे मांझी से नहीं, महादलितों के वोट से मतलब है. मुङो लगता है कि भाजपा चुनाव में मांझी का नाम लेना भी मुनासिब नहीं समङोगी. उसने एक तरह से मांझी जी को मझधार में छोड़ दिया. भाजपा का पूरा स्टैंड समाज को विभाजित करने वाला दिखता है. जिस महादलित वोट के लिए भाजपा ने मांझी का साथ दिया, वह आने वाले दिनों में और बेपर्दा होगा. उसे तो मतलब जदयू के महादलित वोट से था.
इसलिए उसने मांझी को समर्थन दिया. शायद मांझी जी ने भी प्रकारांतर से भाजपा पर कुछ ज्यादा ही भरोसा कर लिया था. इसके लिए आज यह दशा हुई. यह मान सकते हैं कि भाजपा के बारे में मांझी जी का अनुमान सही नहीं हुआ. ऐसी नौबत तभी पैदा हुई.
न घर के न घाट के रहे जीतन राम मांझी
रजी अहमद
मंत्री, गांधी संग्रहालय
मुङो ऐसा लगता है कि भाजपा ने मांझी जी ने ठग लिया. उन्हें न तो घर का रखा और न ही घाट का. उनके साथ ऐसा नहीं होना चाहिए था. पर क्या करिएगा. बिहार की राजनीति में ऐसी बातें होती रही हैं और इससे नयी राहें भी. ऐसी घटनाओं से लोग सचेत और जागरुक होते हैं. पर जहां तक सवाल मांझी जी का है, तो उनके आकलन में थोड़ी गड़बड़ी हो गयी. मुङो नहीं पता कि भाजपा के साथ उनकी क्या बात हुई या भाजपा ने उन्हें क्या आश्वस्त किया था.
मेरे जेहन में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर मांझी जी इतनी दूर तक कैसे निकल गये. वह तो खुद को नीतीश कुमार का हनुमान बता रहे थे. यह भी कह रहे थे कि नीतीश कुमार को अपना नेता मानते हैं. फिर कौन सी ऐसी बात हो गयी कि भाजपा उनके करीब आ गयी? दरअसल, दिल्ली के चुनाव परिणाम ने तसवीर बदल दी.
अगर ऐसा नहीं होता, तो यकीनन बिहार में राष्ट्रपति शासन लागू हो जाता. उसी चुनाव परिणाम का असर है कि मोहन भागवत की जुबान बदल गयी. संघ और भाजपा के कई नेताओं की बोली बदलती हुई दिख रही है तो इसकी वजह दिल्ली चुनाव है. इस घटनाक्रम को लोग सबक की तरह ही लेंगे, ऐसा विश्वास है. 1977 का चुनाव हुआ और कांग्रेस का सफाया हो गया तो लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने कहा था कि हिन्दुस्तान की जनता अनपढ़ जरूर है, वह बेवकूफ नहीं है. इस घटना से भी लोग चेतनशील होंगे.
एक बात तकलीफ की है कि ऐसे प्रकरण में संवैधानिक संस्थाओं की भूमिका पर सवाल उठने लगते हैं. विधानसभा के स्पीकर और मुख्यमंत्री के फैसलों के खिलाफ मामले अगर अदालतों में जाने लगें तो इससे दुखद बात क्या हो सकती है? दूसरी बात, इससे भी ज्यादा खतरनाक लगती है. यह दूसरी बात है कि राजनीति जातिवाद को बढ़ावा देने की ओर बढ़ चली है. इस प्रकरण में मांझी जी ने कहा कि उन्हें महादलित होने के चलते परेशान किया जा रहा है. उनकी इस बात को भाजपा नेलपक लिया. उसने भी यही जुमला दोहराना शुरू कर दिया. मुङो लगता है कि यह अप्रोच गलत है. मांझी जी की पहचान एक महादलित से नहीं है.
जदयू-राजद के लिए आसान नहीं विधानसभा चुनाव की राह
भारतीय जनता पार्टी ने जो पासा फेंका, वह उलटा हो गया. लेकिन मांझी की निजी महत्वाकांक्षाओं को सहला कर उसने दलित जनाधार में कुछ न कुछ सेंधमारी करने में कामयाबी जरूर हासिल की है.ऐसे में नीतीश कुमार की अगुआई वाले जदयू-राजद गंठबंधन के लिए अगले विधानसभा चुनाव का रास्ता बहुत आसान नहीं है.
नीतीश कुमार और उनके सहयोगी यदि विवेक, समझदारी और जनता के प्रति तरफदारी के साथ काम करेंगे, तो चुनावी मैदान में वह बड़ी ताकत बन कर उभर सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने एजेंडे और कार्यक्रम को जनता के सामने ले जाने का वक्त बहुत कम है.
उर्मिलेश
वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक
बिहार में जीतनराम मांझी प्रकरण का पटाक्षेप भारतीय जनता पार्टी की बड़ी राजनीतिक और रणनीतिक विफलता है. इससे महामहिम राज्यपाल की भूमिका पर उठे कतिपय सवालों को भी प्रामाणिकता मिली है. बीते 13 दिन के घटनाक्रम और आज के नतीजे से यह बात अब आइने की तरह साफ हो गयी कि महामहिम ने मांझीजी को इतना लंबा वक्त देकर बिहार की जनता, शासन और समाज के साथ अच्छा नहीं किया. सरकारी कामकाज पूरी तरह ठप रहा और बिहार की सियासत को लेकर पूरे देश में बेवजह के कयास लगाये जाते रहे. विश्वासमत के लिए 20 फरवरी तक का इंतजार संविधान, समाज और सियासत, सबके खिलाफ गया. इससे देशभर के विधानमंडलों और राजभवनों को सबक लेना चाहिए.
इस घटनाक्रम ने राजनीतिक दलों में आंतरिक लोकतंत्र की बदहाली, मूल्यों और सामाजिक सरोकार विहीनता के दौर की राजनीति के चेहरे को भी उजागर किया है. आज की राजनीति में अवाम और उसके बड़े सरोकारों पर निजी महत्वाकांक्षाएं और सत्ता लोभलिप्सा का माहौल इस कदर हावी है कि समाज के अत्यंत उत्पीड़ित वर्ग से आये राजनीतिज्ञ भी कब बड़े निहीत स्वार्थो के हाथ में कठपुतली बन जायें या उनकी रणनीतिक योजनाओं को हिस्सा बन जायें, यह उन्हें पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है तब तक काफी वक्त गुजर गया होता है. लेकिन यह प्रसंग किसी एक व्यक्ति तक सीमित नहीं है.
आंतरिक लोकतंत्र के अभाव में दलीय सरोकार और विचार ज्यादातर राजनीतिक दलों से लगातार गायब हो रहे हैं, यह भी इस घटनाक्रम से उजागर हुआ है. जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बनाने का जदयू नेतृत्व का फैसला स्वयं उसके लिए घातक साबित हुआ. लेकिन इसे कैसे भुलाया जा सकता है कि दलीय लोकतांत्रिकता के अभाव में ही ऐसी राजनीतिक दुर्घटनाएं संभव होती हैं.
इस्तीफा देने के बाद निवर्तमान मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जो बातें कहीं उससे किसी दलित नेता का प्रतिबद्ध चेहरा नहीं, उसके व्यक्तित्व का खोखलापन उजागर हुआ. वे दलित समाज में जरूर पैदा हुए हैं, लेकिन वे दलित नेता नहीं कहला सकते. वरना इतने लंबे समय तक वह नीहित स्वार्थो के हाथों खिलौना कैसे बने रहे? यह देखना दिलचस्प था कि वह जदयू के शीर्ष नेता नीतीश कुमार और राजद के शीर्ष नेता लालू प्रसाद के मुकाबले विधानसभा अध्यक्ष उदय नारायण चौधरी पर ज्यादा बरसे. कहीं न कहीं महादलित जनाधार को अपने साथ बनाये रखने की उनकी छटपटाहट की यह अभिव्यक्ति थी.
इस घटनाक्रम के बाद अक्तूबर-नवंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों की रणभूमि सज गयी है. भारतीय जनता पार्टी ने जो पासा फेंका, वह उलटा हो गया. लेकिन मांझी की निजी महत्वाकांक्षाओं को सहला कर उसने दलित जनाधार में कुछ न कुछ सेंधमारी करने में कामयाबी जरूर हासिल की है.
दलित जनाधार में थोड़ी-बहुत सेंधमारी की कोशिश जरूर की है. पिछड़ों के अंदर वह पहले से कोशिश कर रही है और पिछले लोकसभा चुनावों के दौरान उसे कई स्थानों पर कामयाबी भी मिली थी. ऐसे में नीतीश कुमार की अगुवाई वाले जदयू-राजद गंठबंधन के लिए अगले विधानसभा चुनाव का रास्ता बहुत आसान नहीं है.
नीतीश कुमार और उनके सहयोगी यदि विवेक, समझदारी और जनता के प्रति तरफदारी के साथ काम करेंगे, तो चुनावी मैदान में वह बड़ी ताकत बन कर उभर सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने एजेंडे और कार्यक्रम को जनता के सामने ले जाने का वक्त बहुत कम है. अगले कुछ महीनों में शासन और सियासत दोनों का एक पाक-साफ चेहरा सामने आना चाहिए और अगर ऐसा नहीं होता है तो मुश्किलें उनका भी पीछा करेंगी. यह साफ है कि दिल्ली की हार के बावजूद भाजपा बिहार में अपनी तमाम ऊर्जा झोंक देगी क्योंकि उसे पता है कि हिंदी पट्टी के इस बड़े राज्य में उसके फैलाव का गहरा असर होगा. सामाजिक समीकरणों के हिसाब से बीते कुछ दिनों में भाजपा ने अपनी पहल भी तेज कर दी है.
राज्य के सबसे चर्चित पिछड़े नेता कपरूरी ठाकुर की जयंती के कार्यक्रम में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के शामिल होने का मतलब खास हो जाता है. इससे पता चलता है कि उसने कौन सी दिशा अख्तियार की है और उस सामाजिक समीकरण को अपने पक्ष में मोड़ना चाहती है जो अब तक उससे दूर रहा है. इस लिहाज से भी गठबंधन की चुनौतियां कम नहीं हैं.

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