केंद्र ने 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए करों में राज्यों को मिलनेवाली हिस्सेदारी में 10 फीसदी की बड़ी वृद्धि की है. इससे राज्यों के पास अधिक धन पहुंचेगा और विकास योजनाओं को अमलीजामा पहनाने के लिए उनके पास अधिक वित्तीय स्वतंत्रता होगी. प्रधानमंत्री ने इसे ‘को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म’ को बढ़ावा देने की दिशा में कदम बताया है. हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि इसकी सही तस्वीर बजट में दिखेगी और यदि सामाजिक योजनाओं का भार राज्यों पर डाला गया तो पिछड़े राज्यों की परेशानी बढ़ सकती है. पेश है इसके विभिन्न पहलुओं पर यह विशेष.
किसी भी बड़े परिवर्तन के लिए बड़ी सोच, स्पष्ट नेतृत्व और अच्छे संयोग की जरूरत होती है. इस बात की व्याख्या भारत में सिर्फ सहयोगी संघवाद (को-ऑपरेटिव फेडरलिज्म) के विकास की कहानी से संभव है. गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर नरेंद्र मोदी प्राय: यह तर्क दिया करते थे कि केंद्र प्रायोजित कई परियोजनाएं राज्य की जरूरतों व प्राथमिकताओं के अनुरूप नहीं थी. मसलन, विद्युतीकरण के लिए दिये जानेवाले फंड का गुजरात में बहुत कम महत्व था, क्योंकि गुजरात पहले ही सौ फीसदी विद्युतीकरण के लक्ष्य को लगभग हासिल कर चुका था. यदि इस राज्य को विद्युतीकरण के लिए आवंटित की जानेवाली राशि को किसी अन्य योजना में लगाने की अनुमति दी जाती, तो राज्य उस राशि को ज्यादा लाभकारी ढंग से खर्च कर पाता.
नरेंद्र मोदी के इस विचार को कई अन्य मुख्यमंत्रियों ने आगे बढ़ाया, जैसे कि राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया का तर्क था कि केंद्रीय योजनाओं की बड़ी संख्या राज्यों के राजस्व को बढ़ने से रोकती हैं, क्योंकि इनमें से कई योजनाओं में राज्यों को भी बराबर राशि का योगदान देना होता है, अन्यथा वह राशि खर्च ही नहीं हो पाती हैं. एक बार अगर राज्य ने केंद्रीय परियोजनाओं को लागू करने के लिए बराबर राशि सौंप दी, तो राज्यों के पास बहुत सीमित फंड बच जाते हैं और कई बार तो लॉ एंड ऑर्डर को अमल में लाने जैसे सबसे महत्वपूर्ण काम के लिए काफी कम बजट होता है.
हालांकि, तीन वजहों से यह व्यवस्था एक या अन्य रूप में पिछले कई दशकों से अपना प्रभुत्व जमाये हुए है. पहली वजह है कि राज्य से बाहर के नेताओं, कुछ अर्थशास्त्रियों, नीति विश्लेषकों और राज्य को अधिक राजकोषीय स्वायत्तता देने व अपनी प्राथमिकताएं तय करने के लिए उनपर भरोसा करने के पक्षधर लोगों की संख्या बहुत कम रही है. दूसरा कारण है कि पांच वर्षो में एक बार गठित होनेवाला वित्त आयोग राज्यों व केंद्र के बीच कर (टैक्स) से प्राप्त राजस्व के बंटवारे में बहुत अहम भूमिका निभाता है. पहले बिंदु की तरह ही अगला वित्त आयोग बिना खर्च हुए फंड को 30 प्रतिशत या उससे कम कर राजस्व के हिस्से के रूप में राज्यों को सौंप देता था. सिर्फ 13 वें वित्त आयोग ने इस सीमा में बढ़ोत्तरी करते हुए राज्यों की हिस्सेदारी को 32 फीसदी तय करने का कदम उठाया था. अंतत:, केंद्र सरकार ने बची हुई राशि का अधिकांश हिस्सा राज्यों को केंद्र से या केंद्रीय योजनाओं के माध्यम से स्थानांतरित करने का फैसला लिया है. एक दशक में करीब आठ प्रतिशत की दर से कर राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इसके साथ ही केंद्र और केंद्रीय योजनाओं व राजस्व स्त्रोतों को अपनाने में भी प्रभावी ढंग से बढ़ोत्तरी हुई है.
दो महत्वपूर्ण वजहों के नाटकीय रूप में एक साथ आने से इस संतुलन में बदलाव हुआ है. पहला, भारत के प्रधानमंत्री पूर्व में एक मुख्यमंत्री थे, जो यह महसूस करते थे कि सहयोगी संघवाद का अभिप्राय राज्यों के अधिक राजकोषीय एवं वैधानिक स्वायत्तता से है. दूसरा, सुखद संयोग है कि 14 वें वित्त आयोग के अध्यक्ष एवं सदस्य खुद वास्तविक संघवाद में विश्वास रखते हैं.
इसके अलावा उनलोगों ने इस अवसर की पहचान की कि उनके पास एक ऐसा प्रधानमंत्री है जो राज्यों एवं उसके नेताओं की शक्ति में वास्तव में विश्वास रखते हैं. उसी प्रकार, उनलोगों ने अनुशंसा की है कि राज्यों को कर राजस्व में 42 फीसदी की हिस्सेदारी दी जायेगी. 10 फीसदी तक बढ़ोत्तरी होने से स्थानांतरण में यह बहुत बड़ा और अभूतपूर्व परिवर्तन है. पहले से लगाये जा रहे अनुमान के अनुरूप ही प्रधानमंत्री और उनकी कैबिनेट ने 14वें वित्त आयोग की सिफारिशों को मंजूरी दे दी है.
इस परिवर्तन के क्या निहितार्थ हैं? प्रारंभिक तौर पर बिना खर्च हुई राशि के बड़े हिस्से के स्थानांतरण से राज्यों के पास उस राशि को खर्च करने की अधिक जिम्मेदारी होगी. इसका मतलब है कि अब तक केंद्र द्वारा कवर किये गये क्षेत्रों में राज्यों (खास कर वैसे राज्यों को, जो उन क्षेत्रों में पिछड़े हुए हैं) को अधिक जिम्मेदारी से अपनी भूमिका का निर्वहन करना होगा. राज्यों को यह काम अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर करना होगा, न कि ‘वन साइज फिट्स ऑल’ की तर्ज पर. उसी प्रकार कर राजस्व में कम हिस्सेदारी से केंद्र की राजकोषीय स्थिति कमजोर होगी, जिससे केंद्र एवं केंद्रीय योजनाओं पर फिर से विचार करना होगा.
इस मसले पर नीति आयोग की प्रासंगिता पर भी सवाल खड़े किये जा सकते हैं. मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी द्वारा योजना आयोग को नीति आयोग से बदले जाने की बात वित्त आयोग के लिए अप्रत्याशित नहीं होगी. पिछली व्यवस्था में प्राय: केंद्र ‘दाता’ और राज्य ‘प्रापक’ के अनुरूप व्यवहार करते थे, जिससे ऐसा महसूस होता था कि राज्य बराबरी से कम के साझीदार हैं. योजना आयोग को नीति आयोग से बदल कर प्रधानमंत्री ने उस सूत्र को बदलने और दोनों पक्षों को एक बराबर बनाये रखने का प्रयत्न किया है. इस तरह का परिवर्तन सहयोगी संघवाद की तरफ एक कदम है.
जब शनिवार को वित्त मंत्री सदन में आम बजट पेश करेंगे, तो राज्य और केंद्र के बीच उभर रहे इस नये रिश्ते की तस्वीर पूरी तरह स्पष्ट हो जायेगी. लेकिन, एक चीज बहुत स्पष्ट है जो हम जानते हैं कि नीति आयोग को बहुत बड़ी भूमिका अदा करनी है. राजकोषीय खाते में अधिक स्वायत्तता मिलने के साथ ही संविधान द्वारा तय की गयी समवर्ती सूची के अनुसार राज्यों की विधायी स्वायत्तता भी बढ़ेगी. इसका मतलब है कि राज्यों को अपनी योजनाओं व नीतियों को बनाते समय अधिक सक्रिय भूमिका निभाना पड़ेगा.
अगर वे ऐसा करते हैं, तो उनको डाटा, विश्लेषण और विशेषज्ञों की राय चाहिए होगी. केंद्रीय कैबिनेट के 1 जनवरी, 2015 के नोट के अनुसार नीति आयोग यह सेवा प्रदान करेगी. उसी तरह हमलोगों को, जो नीति आयोग के सदस्य हैं, नये मजबूत तत्वों का विकास करना होगा, ताकि हमारे पास सलाह एवं मदद के लिए आनेवाले राज्यों को निराशा न होना पड़े. हमलोग इसका ख्याल रखेंगे.
(द टाइम्स ऑफ इंडिया से साभार)
अरविंद पनगढ़िया
नीति आयोग के उपाध्यक्ष